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सुप्रीम कोर्ट ने दी गौतम नवलखा को जमानत- '4 साल में भी आरोप तय नहीं'

सुप्रीम कोर्ट ने दी गौतम नवलखा को जमानत- '4 साल में भी आरोप तय नहीं'

एल्गार परिषद-माओवादी संबंध मामले में एक्टिविस्ट गौतम नवलखा की गिरफ्तारी के चार साल से ज़्यादा समय होने के बाद भी अब तक आरोप तय क्यों नहीं हो पाए? जानिए, सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल उठाते हुए क्या राहत दी।

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एल्गार परिषद-माओवादी संबंध मामले में मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा को जमानत दे दी। वह पिछले चार साल से जेल में थे। अदालत ने इस बात पर गौर किया कि वह पहले ही चार साल से ज़्यादा समय से जेल में हैं और अभी तक उनपर आरोप तक तय नहीं हो पाए हैं। उनको एल्गार परिषद के मामले में गिरफ्तार किया गया था। पुलिस के अनुसार, एल्गार परिषद सम्मेलन के कारण अगले दिन भीमा कोरेगांव युद्ध स्मारक के पास हिंसा हुई थी। बाद में उन पर माओवादियों से संबंध रखने का भी आरोप लगा दिया गया।

गौतम नवलखा गिरफ़्तारी के बाद से जेल में थे। पिछले साल बॉम्बे हाईकोर्ट ने उनको जमानत तो दे दी थी, लेकिन इसके साथ ही अदालत ने अपने फ़ैसले पर रोक लगा दी थी। यानी जमानत मिलने के बाद भी उन्हें घर में नज़रबंद ही रहना पड़ा। वह 2022 से ही नज़रबंद थे। सुप्रीम कोर्ट में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा लगाई गई रोक को आगे बढ़ाने की मांग की गई थी।

लेकिन न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश और न्यायमूर्ति एस वी एन भट्टी की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने गौतम नवलखा को दी गई जमानत पर बॉम्बे हाई कोर्ट की रोक को बढ़ाने से इनकार कर दिया। हालाँकि, इसने नवलखा को नजरबंदी में सुरक्षा के खर्च के लिए 20 लाख रुपये का भुगतान करने का भी निर्देश दिया।

बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार पीठ ने कहा, 'हम रोक को आगे बढ़ाने के इच्छुक नहीं हैं क्योंकि जमानत पर उच्च न्यायालय का आदेश काफी विस्तार से बताया गया है। ट्रायल पूरा होने में वर्षों-वर्ष-वर्ष लगेंगे। विवादों पर लंबी चर्चा किए बिना हम रोक की अवधि नहीं बढ़ाएंगे।'।

अगस्त 2018 में गिरफ्तार किए गए नवलखा को पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने घर में नजरबंद करने की अनुमति दी थी। वह वर्तमान में नवी मुंबई में हैं।

यह मामला 31 दिसंबर, 2017 को पुणे में आयोजित एल्गार परिषद सम्मेलन में दिए गए कथित भड़काऊ भाषणों से जुड़ा है। इसके बारे में पुलिस का दावा है कि उस सम्मेलन के बाद कोरेगांव-भीमा युद्ध स्मारक के पास हिंसा भड़क उठी थी।

2018 में चूँकि इस युद्ध की 200वीं वर्षगाँठ थी लिहाज़ा बड़े पैमाने पर लोग जुटे और टकराव भी हुआ। जनवरी, 2018 में पुलिस ने वामपंथी कार्यकर्ता के पी. वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वरनो गोन्जाल्विस जैसे एक्टिविस्टों के ख़िलाफ़ केस दर्ज किया था। बाद में कई लोगों को गिरफ़्तार भी किया गया था। आरोप लगाया गया है कि इस सम्मेलन के बाद भीमा-कोरेगाँव में हिंसा भड़की। हालाँकि इनकी गिरफ़्तारी के बाद से ही कई लोग यह दावा कर रहे हैं कि इस मामले में इनको जानबूझ कर इसलिए फँसाया जा रहा है क्योंकि वे दलित समुदाय के अधिकारों की पैरवी करते हैं। 

इस मामले में शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के अध्यक्ष संभाजी भिडे और समस्त हिंदू अघाड़ी के मिलिंद एकबोटे पर भी आरोप लगे कि उन्होंने मराठा समाज को भड़काया, जिसकी वजह से यह हिंसा हुई। भिडे, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक हैं और एकबोटे भारतीय जनता पार्टी के नेता और विधायक का चुनाव लड़ चुके हैं। हिंसा के बाद दलित नेता प्रकाश आंबेडकर ने इन पर मुक़दमा दर्ज कर गिरफ़्तार करने की माँग की थी। लेकिन इस बीच हिंसा भड़काने के आरोप में पहले तो बड़ी संख्या में दलितों को गिरफ़्तार किया गया और बाद में सामाजिक कार्यकर्ताओं को। 

मामले में गौतम नवलखा सहित सोलह एक्टिविस्टों को गिरफ्तार किया गया है और उनमें से 6 पहले ही जमानत पर बाहर हैं।

इस मामले में शोमा सेन को पिछले महीने जमानत मिली थी। उनसे पहले सुधा भारद्वाज को डिफ़ॉल्ट जमानत (2021) मिली, जबकि आनंद तेलतुम्बडे (2022), वर्नोन गोंसाल्वेस और अरुण फरेरा (2023) को योग्यता के आधार पर जमानत मिली। वरवरा राव को मेडिकल आधार पर जमानत दे दी गई है। अब गौतम नवलखा भी नजरबंद से आज़ाद होंगे। एक अन्य आरोपी, फादर स्टेन स्वामी की जुलाई 2021 में हिरासत में मृत्यु हो गई।

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