सऊदी हुकूमत पर ‘टेरर फंडिंग’ के आरोप पहले भले किसी ने लगाया हो लेकिन तब्लीगी जमात पर ‘दहशतगर्दी’ का आरोप कभी किसी ने नहीं लगाया। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सऊदी अरब की मौजूदा हुकूमत ने अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों को खुश करने के लिए अपने यहाँ तब्लीगी जमात की गतिविधियों पर पाबंदी लगाई है? क्या यही वजह है कि भारत के दक्षिणपंथी सोच वाले लोग इससे खुश नज़र आ रहे हैं? तब्लीगी जमात पर लगे इस इल्जाम का हस्र चाहे जो हो मगर इतना तो तय है कि ‘इस्लामोफोबिया’ से ग्रस्त लोग दुनिया भर में इससे ज़रूर खुश होंगे।
सऊदी अरब में इसलामी मामलों के मंत्री डॉ. अब्दुल लतीफ -अल शेख- ने हर शुक्रवार को मसजिदों में होने वाले जलसों में जमात-उल-दावा की तकरीरों पर पाबंदी लगा दी है। मंत्री का यह भी कहना है कि जमात-उल-दावा से ही जुड़ा संगठन ‘अलअहबाब’ और कुछ नहीं सिर्फ़ एक दहशतगर्द तंजीम है।
सऊदी के इस क़दम पर इन दिनों भारत में भी काफी चर्चा हो रही है। यहां के ज्यादातर मुसलिम तंजीमों का कहना है कि मसलक (पंथ) के नाम पर मतभेद अलग बात है लेकिन इस बुनियाद पर किसी तंजीम पर दहशतगर्दी का तमग़ा चस्पा कर देना कहीं से उचित नहीं है।
भारत के जमीयत अहले हदीस को मसलकी एतबार से सऊदी अरब के करीब माना जाता है। इसके अमीर मौलाना असगर अली इमाम मेहदी सल्फी सऊदी हुकूमत के इस कदम को सऊदी का अंदरूनी मामला ज़रूर बताते हैं लेकिन उनका यह भी कहना है कि भारत में तब्लीगी जमात पर किसी को कोई संदेह नहीं है।
वहीं दारुल उलूम देवबंद ने सऊदी अरब के उक्त फरमान को बिल्कुल ग़लत बताते हुए अंदेशा जताया है कि दूसरे देश भी इसका हवाला देकर मुसलमानों को नाहक परेशान कर सकते हैं।
इसलामी मामलों के जानकार मौलाना अताउर्रहमान कासमी का कहना है कि सऊदी अरब के शहजादा शासक मोहम्मद-बिन-सलमान अमेरिका परस्त हैं। अंदरखाने उनकी इजराइल से भी बातें हो रही हैं। फिलिस्तीन के मामले में भी वह नरम पड़ गए हैं।
जमीअत उलेमा हिंद के दोनों गुटों के नेता मौलाना अरशद मदनी तथा मौलाना महमूद मदनी, बिहार-उड़ीसा इमारत शरिया के अमीर मौलाना अहमद वली फैसल रहमानी, मरकजी जमीयत दिल्ली के मौलाना सोहैल अहमद ने भी सऊदी हुकूमत के इस फरमान को साफ़ तौर पर ग़लत बताते हुए कहा है कि सऊदी अरब को अपने फ़ैसले पर फिर ग़ौर करना चाहिए।
तब्लीगी जमात मूल रूप से भारतीय है। इसकी शुरुआत 1926 में उस समय के पंजाब, और अभी हरियाणा में मौलाना मोहम्मद इलियास कंधालवी ने की थी। यह तहरीक तब शुरू हुई जब आर्य समाज से जुड़े लोग इसलाम को लेकर अनर्गल प्रचार कर रहे थे। तब्लीगी जमात ने पुरज़ोर तरीक़े से उनका खंडन किया। इसके साथ ही यह तहरीक भारत की सीमाओं को लांघ दुनिया के कई मुल्कों में फैलती गई।
इस तंजीम के समर्पित लोगों ने इसलाह मुआसरा (समाज सुधार) के नाम पर लोगों को मुख्य रूप से रोजा-नमाज की हिदायत देनी शुरू की। जो आज तक चल रही है। ये लोग दुनियावी मामलों से अपने को दूर ही रखते हैं। इनका कहना है कि दुनिया फानी (खत्म हो जाने वाली) है। ये आखिरत यानी मरने के बाद वाली ज़िंदगी जन्नत में गुजारने के उपायों पर ही जोर देते हैं।
यह कैसी सितमजरिफी है कि दुनियावी और सियासी मामलों से दूर रहने वाले जमातियों पर भारत में मोदी सरकार ने कोरोना महामारी के समय तरह-तरह का कहर ढाया। कोरोना फैलाने के झूठे इल्जाम में सैकड़ों देशी- विदेशी जमाती जेलों में ठूँस दिए गए। मोदी भक्त, गोदी मीडिया ने तो उस समय इनको ‘तब्लीगी जेहादी’ बता कर इन पर हमले के लिए लोगों को उकसाया। हालांकि महीनों बाद निचली अदालतों से लेकर ऊपरी अदालतों ने इन्हें निर्दोष बता रिहा कर दिया। मगर ठेला, फेरी, रेहड़ी वाले मुसलमान मज़दूरों को किस तरह मारा पीटा और परेशान किया गया, इससे सभी वाकिफ हैं। इतने सब कुछ के बाद भी इन जमातियों के मुंह से ‘अल्लाह इंसाफ करेगा’ के अलावा कुछ नहीं निकला।
सवाल उठता है कि क्या इसलाम का पैगाम जुल्म सहते जाने को लेकर है, जुल्म ज्यादती का विरोध नहीं करना चाहिए? क्या इसलाम धर्म के आखिरी पैगंबर मोहम्मद ने दीन (धर्म) और दुनिया दोनों को दुरुस्त करने का काम नहीं किया? क्या कुरान पाक का पहला अक्षर ‘इकरा’ यानी पढ़ो सिर्फ़ मजहबी तालीम के लिए है अथवा दूसरे तरह के इल्म के लिए नहीं है?
तब्लीगी जमात के लोग साल भर देश-दुनिया में रोजा नमाज की हिदायत देने के लिए काफिले लेकर घूमते रहते हैं, जगह-जगह इज्तेमा (सम्मेलन) करते हैं जिसमें लाखों लोग इकट्ठा होते हैं। चंदा के करोड़ों रुपए ख़र्च किए जाते हैं। क्या इन रुपयों से बढ़िया तालीम वाले स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी, बढ़िया अस्पताल नहीं खोले जा सकते हैं? इन पैसों से गरीब लड़कियों की शादी नहीं हो सकती है? क्या इन इज्तेमा के मौक़े पर बिना दान-दहेज के ग़रीब लड़कियों का इज्तेमाई निकाह (सामुदायिक) विवाह का इंतज़ाम नहीं हो सकता है?
जितना पैसा इन इज्तेमा पर ख़र्च होता है उससे कुछ बचा कर शादी के जोड़ों को कुछ उपहार नहीं दिया जा सकता है? छोड़ दीजिए सियासी बातों को पर क्या इज्तेमा में जुटे लोगों को मुसलिम समाज में फैले हसब-नसब (जात-पात) की बीमारी के ख़िलाफ़ बेदारी का संदेश नहीं दिया जाना चाहिए? क्या पैगंबर मोहम्मद इस हसब–नसब के ख़िलाफ़ताजिंदगी की हिदायत नहीं देते रहे! क्या पैगंबर मोहम्मद ने दीन (मजहब) और दुनिया दोनों को दुरुस्त रखने के लिए ताजिंदगी जद्दोजहद नहीं किया? तब्लीगी जमात कब समाज सुधार के इन कामों को अपने हाथों में लेगा।