राष्ट्र, महाराष्ट्र और धृतराष्ट्र
राष्ट्र प्रसन्न है। महाराष्ट्र उससे भी ज्यादा प्रसन्न है लेकिन सबसे ज्यादा प्रसन्न धृतराष्ट्र हैं। वाक्य थोड़ा गलत है, धृतराष्ट्र प्रसन्न नहीं हैं बल्कि हमेशा प्रसन्न रहते हैं। नई पीढ़ी के जो लोग धृतराष्ट्र के बारे में नहीं जानते हैं वे कुंदन शाह की फिल्म `जाने भी दो यारों’ का कालजयी अंतिम दृश्य देख लें। जो बार-बार कहता है, `ये क्या हो रहा है’ और सबकुछ अपनी आँखों के सामने होने देता है, धृतराष्ट्र वही होता है।
जो धृतराष्ट्र होता है, उसके साथ कोई ना कोई संजय भी होता है। लेकिन कलियुग में धृतराष्ट्र अंधा होने के साथ-साथ बहरा भी होता है। संजय कान में आकर चीखता है—विनाश!!
धृतराष्ट्र मुग्ध भाव से कहता है-- ओ विकास बहुत अच्छे। संजय फिर आता और इस बार ज्यादा जोर से चिचियाता है—दंगा... धृतराष्ट्र तत्काल प्रसन्नता जताता है— चंगा
धृतराष्ट्र के दरबार में एक देवी की मूर्ति भी होती है, जिसके हाथ में तलवार होती है और आँखों पर पट्टी बंधी होती है। अचानक देवी की आँखों से वो पट्टी गायब हो गई है। मैं ढूंढ रहा था कि कहां गई, फिर पता चला कि धृतराष्ट्र ने वो पट्टी अपनी आंखों पर बांध ली है, ताकि गलती भी कुछ दिख जाने की आशंका हो तो उसे रोका जा सके।
धृतराष्ट्र कोई एक व्यक्ति नहीं है, एक संस्थान स्वरूप पदवी है। धृतराष्ट्र बदलते रहते हैं लेकिन राष्ट्र के प्रति उनका अवदान नहीं बदलता। एक धृतराष्ट्र वो थे, जिन्होंने दुनिया की सबसे महंगी बाइक पर सवार होकर फोटो खिंचवाई थी और उसके बाद अचानक सार्वजनिक समारोह में उनकी पूरी पतलून बेल्ट समेत गिरकर जूतों तक आई थी। अच्छा हुआ उस वक्त कानून की देवी ने अपनी आंखों से पट्टी नहीं उतारी थी।
एक धृतराष्ट्र मी टू वाले थे, जो भगवत कृपा से समस्त आरोपों से मुक्त हुए और आगे चलकर सबसे ज्यादा सदस्य संख्या वाली पार्टी को प्राप्त हुए। जितने में धृतराष्ट्र पिछले दस साल में हुए उनमें से ज्यादातर इसी पार्टी के नेता को अपना मी लार्ड मानते रहे, राष्ट्र यह बात अच्छी तरह जानता है।
राष्ट्र को लेकर धृतराष्ट्र हमेशा चिंतित रहते हैं। समय-समय पर अपनी चिंता जताते हैं लेकिन जाने भी दो यारों के आखिरी दृश्य की तरह महाभारत में सलीम-अनारकली का ड्रामा होने देते हैं। धृतराष्ट्र को कुछ लोग घृतराष्ट्र भी मानते हैं। राष्ट्र में आजकल घी की नदियां बहती हैं। अगर घृतराष्ट्र दो चार चम्मच निकालकर अग्निदेवता को समर्पित कर दें तो भला इसमें एतराज लायक बात क्या है।
घृतराष्ट्र को मंदिरों के अवशेष ढूंढवाने और विवादास्पद ढांचा गिराने को वैध ठहराने का बहुत शौक है। उन्हें तत्काल अपने आसन के नीचे खुदाई का आदेश दे देना चाहिए। वैसे वे जहां बैठते हैं, वो पूरी इमारत ही अब विवादास्पद ढांचा बन चुकी है।
जब न्याय के नाम पर घंटा ही मिलना है तो हम वहां मंदिर बनवा लेंगे और न्याय का घंटा उस दिशा में लगवा लेंगे, धृतराष्ट्र न्याय करते वक्त जिस दिशा में दंडवत होते हैं।