क्योंकि संजीव का क़द साहित्य अकादेमी सम्मान से बड़ा है
जो साहित्य अकादेमी सम्मान संजीव को कम से कम 20 साल पहले मिल जाना चाहिए था, वह अब जाकर मिला है। हालांकि इस दुर्घटना के शिकार होने वाले वे अकेले लेखक नहीं हैं। हिंदी समाज में जैसे यह प्रवृत्ति हो गई है कि जब तक लेखक 75 पार न करे, उसे सम्मानित न किया जाए। पिछले पंद्रह बरसों में साहित्य अकादेमी की ओर से हिंदी में दिए गए पुरस्कारों की सूची बताती है कि अस्सी फ़ीसदी से ज्यादा उन लेखकों को सम्मान मिले जो 75 पार के हो गए।
संजीव निस्संदेह हिंदी की कथा-परंपरा के प्रथम पांक्तेय लेखकों में हैं। उन्होंने जीवन और समाज के बहुत सारे पक्षों को छूती कहानियां लिखीं, लेकिन हर बार वे कमज़ोर तबकों के पक्ष में खड़े दिखे। ‘सर्कस’, ‘पांव तले की दूब’, ‘सावधान नीचे आग है’, ‘धार’, ‘सूत्रधार’, ‘रह गईं दिशाएं उस पार’ से लेकर ‘फांस’ और नवीनतम ‘मुझे पहचानो’ जैसे कई उपन्यासों और ‘अपराध’, ‘आप यहाँ हैं’, ऑपरेशन जोनाकी’, और ‘तीस साल का सफ़रनामा’ जैसी कई यादगार कहानियों के साथ उन्होंने बहुत बड़ी तादाद में अपने पाठक और प्रशंसक जुटाए। उनके पूरे लेखन एक असंदिग्ध प्रगतिशील और वाम तेवर रहा। इस लिहाज से साहित्य अकादेमी सम्मान उनको बरसों पहले मिल जानी चाहिए था।
विडंबना यह है कि यह सम्मान उन्हें ऐसे समय में मिला है जब साहित्य अकादेमी की स्वायत्तता सबसे ज़्यादा संदेह के घेरे में है। अन्य कई संस्थाओं की तरह अकादेमी भी सरकारी दबाव के आगे घुटने टेक चुकी है और इसकी छाया इसके आयोजनों में दिखती रही है। अकादेमी के इसी रुख़ को देखते हुए सात बरस पहले अनायास पुरस्कार वापसी की एक मुहिम चल पड़ी थी जिसे हिंदी समाज का बड़ा समर्थन भी मिला था। बीते साल जब बद्रीनारायण को यह पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो सोशल मीडिया पर उनकी जो सार्वजनिक लानत-मलामत हुई, वह अब तक सबकी स्मृति में है।
यहाँ से कुछ सवाल उठते हैं। पहला सवाल तो यही कि आखिर इस साल अकादेमी ने संजीव को सम्मान के लिए क्यों चुना। इसके कुछ रेडीमेड जवाब सुलभ हैं। अक्सर फासीवादी माने जाने वाले तंत्र में भी संस्थाएं अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए ऐसे लोगों को सम्मानित करती रहती हैं जो उनके विरोधी हैं। यह अपने लिए समाज की मान्यता अर्जित करने की कोशिश होती है।
यहां से दूसरा सवाल पैदा होता है। क्या लेखकों या संस्कृतिकर्मियों को संस्थानों की इस कोशिश को नाकाम नहीं करना चाहिए? क्या उन्हें पुरस्कार लेने से इनकार नहीं करना चाहिए?
दुनिया भर में ऐसी मिसालें रही हैं जब लोगों ने नोबेल सहित बड़े-बड़े सम्मान ठुकराए हैं। क्या संजीव भी ऐसा करते तो अपने लोगों की निगाह में कुछ और उठ जाते?
एक तरह से यह बात सही है। लेकिन इसका एक पक्ष और है। यह सच है कि साहित्य अकादेमी सम्मान संजीव की प्रतिष्ठा में राई-रत्ती भी इजाफ़ा नहीं करने वाला है। बरसों पहले उनका कद इस पुरस्कार से बड़ा हो चुका है। इस पुरस्कार का अधिकतम उपयोग उनके लिए उस पुरस्कार राशि से बनता है जिसकी हिंदी के किसी स्वतंत्र-स्वाभिमानी लेखक को सबसे ज़्यादा जरूरत पड़ती है। यानी एक लाख रुपये की राशि संजीव के कुछ काम आ जाएगी।
लेकिन इसके अलावा संजीव के लिए साहित्य अकादेमी को स्वीकार करने या ठुकराने का ज़्यादा मतलब नहीं है। ठुकराने में जो तत्कालीन नायकत्व है, बेशक उसका एक मोल है लेकिन अंततः किसी लेखक की प्रतिष्ठा उसके लेखन से ही बनती और बचती है। संजीव की जो प्रतिष्ठा है, उस पर साहित्य अकादेमी सम्मान खरोंच नहीं डाल सकता।
जहाँ तक फासीवादी संस्थाओं के समाज से मान्यता हासिल करने की इच्छा का तर्क है, वह एक भोला-भाला खयाल है। पूरी व्यवस्था इतनी बेशर्म हो चुकी है कि उसे किसी बहाने, किसी ओट, किसी दिखावे की ज़रूरत नहीं। वह खुल कर सांप्रदायिकता के साथ खड़ी है, वह खुल कर हिंसा के साथ खड़ी है, खुल कर सरकारी दमन के साथ खड़ी है। साहित्य अकादेमी के ज़रिए यह व्यवस्था संजीव को पुरस्कार दिला कर अपने लिए मान्यता हासिल करने की कोशिश कर रही है- यह दलील बहुत जमती नहीं। संभव है, शीर्ष पर बैठे लोगों को पता ही न हो कि ये संजीव कौन हैं? आख़िर इस हिंदीभाषी समाज में अपढ़ता अपने चरम पर है और साहित्य-संस्कृति और मीडिया की दुनिया में भी वे लोग हावी हैं जिन्हें पढ़ने-लिखने से वास्ता नहीं है।
फिर संजीव के पुरस्कार की पहेली कैसे हल करें? और इस प्रश्न का क्या करें कि जो लोग बद्रीनारायण को अकादेमी सम्मान लेने पर कोस रहे थे वे संजीव को बधाई क्यों दे रहे हैं? पहली बात तो यह कि भारत के संसदीय लोकतंत्र को हमेशा से एक अर्धसामंती और अर्धफासीवादी प्रवृत्ति का सामना करना पड़ा है। यह सच है कि इस देश में जो कुछ बुरा हो रहा है, वह 2014 के बाद ही हो रहा हो, ऐसा नहीं है। पहले भी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर कुठाराघात होते रहे हैं, लेखकों-पत्रकारों पर हमले होते रहे हैं। 2014 के बाद यह ज़रूर हुआ है कि व्यवस्था ने इन सबकी खुली छूट सी दे दी है- वह बेशर्मी से हर कृत्य का बचाव करती है, वह सांप्रदायिक नफ़रत को उसके चरम पर ले जाकर समाज की लोकतांत्रिकता को नष्ट करना चाहती है। यह नष्ट हुई भी है, इसके उदाहरण भी तमाम वाट्सऐप समूहों और सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म्स पर बहुत प्रचुरता से सुलभ हैं।
लेकिन इसके बावजूद समाज में अच्छे-बुरे का विवेक काफी-कुछ बचा हुआ है। ऐसे फ़ैसले होते हैं जो संस्थाओं के चरित्र से बाहर जाकर नज़ीर बनते हैं। कह सकते हैं कि साहित्य अकादेमी के हिंदी सम्मान के लिए बनाई गई जूरी ने भी यही काम किया। लीलाधर जगूड़ी, नासिरा शर्मा और राम कुमार तिवारी ने वह नाम चुना जो उन्हें उपलब्ध विकल्पों में सबसे उचित जान पड़ा और फिर अकादेमी ने इसे स्वीकार कर लिया। यह चीज़ बताती है कि लेखक का अपना क़द भी अहमियत रखता है- यह बात भी अहमियत रखती है कि वह कहां खड़ा है और किन लोगों के साथ दिख रहा है। संजीव को दिया गया सम्मान दरअसल अकादेमी की विश्वसनीयता पर मुहर नहीं है, संजीव के लेखन को स्वीकार करने की अपरिहार्यता की मजबूरी का प्रमाण है। सोशल मीडिया की प्रतिक्रियाएं भी यही बता रही हैं कि ज़्यादातर लोगों को संजीव का साहित्य अकादेमी हासिल करना बुरा नहीं लगा है। बद्रीनारायण की इसलिए रगड़ाई हो गई कि वे संजीव नहीं हैं।
लेकिन संजीव के सम्मान को स्वीकार करने का अर्थ साहित्य अकादेमी के हर कृत्य को मान्यता देना नहीं है। जहां उसका विरोध उचित और ज़रूरी है, वह किया जाना चाहिए। संजीव के चयन से बस इतना हुआ कि किसी और को साहित्य अकादेमी सम्मान जाने से जो तमाशा बनता, वह नहीं हुआ।