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क्या यूक्रेन की लड़ाई हार रहे हैं पुतिन?

क्या यूक्रेन की लड़ाई हार रहे हैं पुतिन?

क्या जंग के मैदान से पुतिन की सेना भाग रही है? क्या सैनिकों का मनोबल कमज़ोर पड़ता जा रहा है। क्या रूस इस लड़ाई को हार रहा है? 

यूक्रेन और रूस की लड़ाई को शुरू हुए सात महीने होने जा रहे हैं। लड़ाई के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा के मंच से रूस की निंदा हो रही है। पर राष्ट्रपति पुतिन ने देशवासियों को संबोधित करते हुए आंशिक रूप से सेना जुटाने और यूक्रेन के उन पूर्वी प्रांतों में क्रीमिया जैसा जनमत संग्रह कराने का ऐलान किया है जो रूस के क़ब्ज़े में हैं। लड़ाई चार मोर्चों पर चल रही है। जंग के मैदान में, आर्थिक मोर्चे पर, कूटनीति के मोर्चे पर और जनसमर्थन और प्रचार के मोर्चे पर। आरंभ के सप्ताहों में लगभग हर मोर्चे पर मुँह की खाने के बाद ऐसा लगने लगा था मानो राष्ट्रपति पुतिन की रणनीति काम कर रही है। यूक्रेन की राजधानी कीव के घेराव की कोशिश में नाकाम होने के बाद रूसी सेना ने पूर्व में डोनबास और दक्षिण में मारियूपूल, मेलितोपोल और खरसोन प्रान्तों में प्रवेश करते हुए यूक्रेन के लगभग पाँचवें हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया। 

आर्थिक प्रतिबंधों के ऐलान के आरंभिक दिनों में झटका खाने के बाद रूसी मुद्रा रूबल की क़ीमत में उछाल आया क्योंकि कोयला, तेल और गैस की क़ीमतों में आए उछाल से रूस की आमदनी में भी बढ़ोतरी हुई। यूरोप के प्रतिबंधों से हुए नुक़सान की भरपाई रूस ने चीन और भारत को सस्ती दरों पर तेल और उर्वरक बेच कर कर ली।

बड़ी संख्या में रूसी सैनिकों के मारे जाने और मारियूपोल की बमबारी और बूचा के नरसंहार से हुई बदनामी के बावजूद लड़ाई के प्रति रूसी जनसमर्थन कायम रहा।

लेकिन इस महीने यूक्रेनी सेना ने ख़ारकीव के पूर्वोत्तर में एक ऐसा नाटकीय जवाबी हमला किया जिसने रूसी सेना के पैर उखाड़ दिए और उसे भाग कर अपनी सीमा में लौटना पड़ा है। रूसी तेल की क़ीमत पर यूरोप द्वारा लगाई गई रियायती दर की सीमा के कारण तेल और गैस के दाम गिरने लगे हैं जिससे रूस की आमदनी कम होने लगी है। उच्च तकनीक के प्रतिबंधों के कारण रूस में विमानों, सुरक्षा उपकरणों और आधुनिक मशीनों में लगने वाले कल-पुर्ज़ों की तंगी हो रही है। भारत, चीन और तुर्की जैसे पुतिन के मित्र देशों का धीरज तेल और खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में आए उछाल से बेलगाम हुई महँगाई के कारण डोलने लगा है। सोशल मीडिया से मिल रही सूचनाओं के अनुसार रूसी सेना का मनोबल टूटने के संकेत दिखाई देने लगे हैं।

ख़ारकीव के इलाके में रूसी सेना की हार के बाद लड़ाई के उद्देश्यों पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। सैनिक कमांडर मोर्चे पर भेजने के लिए सैनिकों और सुरक्षा उपकरणों की कमी की शिकायतें करने लगे हैं। कुल मिला कर ऐसा माहौल बन रहा है जिसे सामरिक विशेषज्ञ इस लड़ाई की बदलती हवा के रूप में देख रहे हैं।

यूक्रेन का कहना है कि उसकी सेनाओं ने देश के दूसरे सबसे बड़े शहर ख़ारकीव के पूर्वोत्तर के इलाके से और दक्षिण में खरसोन शहर के आसपास से रूसी सेना को खदेड़ कर लगभग आठ हज़ार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को रूसी सेना के पंजे से छुड़ा लिया है। खारकीव के पास पड़ने वाले शहरों इज़ियुम और कुपियांस्क में रूसी सेना ने अपने सप्लाई केंद्र बना रखे थे इसलिए इन दोनों का वापस छीन लेना यूक्रेन की सामरिक जीत के रूप में देखा जा रहा है। रूसी सेना और राष्ट्रपति पुतिन का कहना है कि रूसी सेना अपनी रणनीति के हिसाब से पीछे हटी है। लेकिन सेना जिस तरह से अपने टैंकों, तोपों, गोलाबारूद और सुरक्षा सामान को छोड़ कर भागी है उसे रणनीतिक वापसी के रूप में नहीं देखा जा सकता। 

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यूक्रेनी सेना को इज़ियुम से सामूहिक कब्रें मिली हैं और नागरिकों को दी गई यातना के प्रमाण भी मिले हैं जिनके आधार पर नरसंहार और बंदी प्रताड़ना के केस तैयार किए जा रहे हैं। कुपियांस्क से भाग कर खारकीव आए सात श्रीलंकाई बंदी भी अपनी यातना के किस्से सुना रहे हैं। इनमें छह युवक और एक अधेड़ महिला है जो काम की तलाश में यूक्रेन आए थे पर लड़ाई छिड़ने पर फँस गए और रूसी सैनिकों के हाथ लग गए।

रूस ने बूचा में मिली सामूहिक कब्रों और नागरिकों की लाशों की तरह इज़ियुम में मिली सामूहिक कब्रों और यातना के सबूतों को यूक्रेन की साज़िश बता कर निष्पक्ष जाँच कराने की बात की है। पिछले सप्ताह उज़्बेकी शहर समरकंद में हुई शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के बाद बोलते हुए पुतिन ने कहा कि यूक्रेन के जवाबी हमलों से रूस की योजनाएँ नहीं बदलेंगी। पुतिन ने कहा कि वे जल्दी में नहीं हैं और यूक्रेन के डोनबास प्रदेश में चल रही रूसी सेना आगे बढ़ रही है। तेज़ी से न सही पर हम धीरे-धीरे इलाक़ा हथियाते जा रहे हैं। पुतिन ने याद दिलाया कि अभी तक रूस की पूरी सेना जंग के मैदान में नहीं उतरी है। केवल पेशेवर सेना लड़ रही है। लेकिन यदि यूक्रेन ने इस तरह के हमले किए तो जवाब और गंभीर हमलों से दिया जाएगा। पुतिन का इशारा संभवतः दो सप्ताह पहले के उन क्रूज़ मिसाइल हमलों की तरफ़ था जिनसे सारे खारकीव प्रान्त की बिजली और पानी की आपूर्ति ध्वस्त हो गई थी।

सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि खारकीव प्रांत से रूसी सेना की वापसी को उसकी हार मानना तो सही नहीं होगा। पर इससे यह ज़रूर सिद्ध होता है कि रूसी सेना सैनिकों और सुरक्षा सामग्री के संकट के दौर से गुज़र रही है।

यूक्रेन के मोर्चों पर तैनात रूसी सैनिक अफ़सरों की सोशल मीडिया में छपी टिप्पणियों से पता चलता है कि कमांडरों के पास मोर्चों पर भेजने के लिए पर्याप्त सैनिक नहीं हैं। उन्हें देने के लिए पर्याप्त शस्त्र और सही उपकरण नहीं हैं। ड्रोन जैसी छोटी-छोटी चीज़ों के लिए जनरलों से अनुमति लेनी पड़ रही है। सेना का मनोबल गिर रहा है। रिज़र्व सैनिकों को बुलाने और अनिवार्य भर्ती की बात नहीं हो रही क्योंकि अभी तक पुतिन ने यूक्रेन की लड़ाई को युद्ध घोषित नहीं किया है।

इसे केवल विशेष सैनिक कार्रवाई बताया जा रहा है। इसलिए नौजवानों को आकर्षित करने के लिए ऊँचे वेतनों पर तीन महीने से लेकर साल भर की अल्पकालिक भर्ती के पोस्टर लगा कर लुभाने की कोशिश की जा रही है। भर्ती के पोस्टर सार्वजनिक स्थानों के साथ-साथ सुधारगृहों, क़ैदख़ानो और पागलख़ानों तक में लगाए जा रहे हैं। भर्ती की उम्र 40 साल से बढ़ाकर 60 साल कर दी गई है और सेवानिवृत्त सैनिकों के साथ-साथ अपराधियों को भी लुभाने के प्रयास हो रहे हैं। यह सब दर्शाता है कि बड़ी संख्या में सैनिकों के मारे जाने और लड़ाई के लंबा खिंचने से समस्याएँ बढ़ गई हैं।

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दिलचस्प बात यह है कि खारकीव प्रांत में यूक्रेन की नाटकीय जीत से यूरोप और अमेरिका ख़ुश होने से कहीं ज़्यादा चिंतित हैं। उनकी चिंता की वजह इस बात की संभावना है कि कहीं चौतरफ़ा हार से घिरे पुतिन कोई ऐसा क़दम न उठा बैठें जिसके अकल्पनीय घातक परिणाम हो सकते हैं। सेना के गिरते मनोबल, सप्लाई की कमी, गहराते आर्थिक संकट और कूटनीतिक कटाव से परेशान पुतिन के सामने दो-तीन विकल्प बचते हैं। वे यूक्रेन की लड़ाई को युद्ध घोषित करके रिज़र्व सैनिकों को बुला सकते हैं और अनिवार्य भर्ती शुरू कर सकते हैं जो ख़र्चीला होने के साथ-साथ लोकप्रिय काम नहीं होगा। वे और घातक पारंपरिक हथियारों को झोंक कर यूक्रेन का चेचेन्या की राजधानी ग्रोज़नी और यूक्रेन के मारियूपोल जैसा हाल बना सकते हैं जिसकी दुनिया में और घोर निंदा होगी और उनके दोस्तों को भी उनसे किनारा करना पड़ेगा।

तीसरा और सबसे भयावह विकल्प यह है कि वे सीमित लक्ष्यों पर वार करने वाले परमाणु अस्त्रों का सहारा ले बैठें जिसकी परिणति बड़े परमाणु युद्ध में हो सकती है। इसी संभावना से चिंतित होकर अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने एक टेलीविज़न इंटरव्यू में पुतिन को लक्ष्य करते हुए कहा, "मेहरबानी करके ऐसा न करें, न करें, न करें!"

पुतिन के पारंपरिक मित्रों, चीन, भारत और तुर्की को इस लड़ाई के और ख़तरनाक दौर में प्रवेश करने के साथ उस महँगाई की चिंता भी है जो युद्ध के कारण आसमान छूती तेल, गैस, कोयला, खाद्यान्न और उर्वरकों की कीमतों की वजह से दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को डावाँडोल कर रही है और सरकारों को संकट में डाल रही है। रूस ने रियायती दरों पर तेल, गैस और उर्वरक बेच कर चीन, भारत और तुर्की जैसे मित्र देशों को थोड़ी राहत देने की कोशिशें की हैं। पर यह तमाचा जड़ कर सहलाने जैसा ही है। इन चीज़ों के दाम रूसी युद्ध की वजह से बढ़कर दोगुने हो गए। उसके बाद यदि रूस ने 20-30 प्रतिशत रियायत दे भी दी तो उससे क्या होता है? इसीलिए शंघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक में भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, "यह लड़ाई का युग नहीं है।" चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी लड़ाई को लेकर अपनी चिंताएँ प्रकट कीं और कुछ जवाब माँगे। तुर्की के राष्ट्रपति अर्दवान ने लड़ाई को जल्दी से जल्दी बंद करने की अपील की।  

तीनों देश इस लड़ाई से बेकाबू हुई महँगाई की समस्या से जूझ रहे हैं। चीन में पेट्रोल 110 रुपए प्रति लीटर है। तुर्की में इससे थोड़ा सस्ता है पर वहाँ महँगाई की दर 25 प्रतिशत से भी ऊपर है। चीनी राष्ट्रपति को अगले महीने अपनी अगली कार्यावधि को सुनिश्चित कराना है।

भारतीय प्रधानमंत्री को अगले कुछ महीनों के भीतर विधानसभा के कुछ अहम चुनावों और फिर 2024 में आमचुनावों का सामना करना है। 

तुर्की के राष्ट्रपति को भी अगले साल आमचुनाव का सामना करना है। महँगाई की समस्या तीनों अर्थव्यवस्थाओं और सरकारों के राजनीतिक अस्तित्व के लिए चुनौती खड़ी करती है। इसलिए तीनों ने अपनी बात साफ़-साफ़ रखी। भारत ने तो पिछले महीने यूक्रेनी नेता से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के एक प्रस्ताव में भी रूस का साथ नहीं दिया। कूटनीतिक विश्लेषक इसे कूटनीति की दुनिया में पुतिन के एकदम अकेला पड़ जाने का संकेत मान रहे हैं। वे अकेले ऐसे बड़े नेता हैं जिन्हें महारानी एलिज़बथ की अंत्येष्टि में नहीं बुलाया गया।

कुल मिलाकर देखें तो जंग के मैदान में पुतिन की सेना भाग रही है। सैनिकों का मनोबल कमज़ोर पड़ता जा रहा है। पुतिन के पारंपरिक मित्र देश उनको खरी-खरी सुनाने पर मजबूर हो गए हैं। रूस की अर्थव्यवस्था की कमर टूट गई है। यदि पुतिन इस लड़ाई से रूस की ज़ारशाही वाली शान को बहाल करना चाहते थे, तो वे लड़ाई हार चुके हैं। क्योंकि पुरानी शान बहाल होने के बजाय रूस की बदनामी हो रही है और वह बदहाली की तरफ़ बढ़ रहा है।

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