+
आख़िर, यूक्रेन के साथ क्यों नहीं खड़ा है भारत?

आख़िर, यूक्रेन के साथ क्यों नहीं खड़ा है भारत?

रूस के द्वारा यूक्रेन पर हमला करने की भारत आलोचना क्यों नहीं कर सका? रूसी हमले को हमला न कह पाना, हमलावर का नाम न ले पाना क्या हमारा नैतिक पतन है? 

पढ़ाई करने को यूक्रेन गए हुए छात्र वापस देश लौट रहे हैं। वे  छोटे -छोटे तिरंगे लहरा रहे  हैं। वे 'भारत माता की जय' और 'वंदे मातरम' के नारे लगा रहे हैं। अपने प्राण भर बच जाने की राहत से देश भक्ति उमड़ पड़ती है। इस देश भक्ति और स्वार्थपरता के बीच के सीधे रिश्ते का इससे बेहतर उदाहरण नहीं मिल सकता। 

एक मित्र ने निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि लौट रहे छात्रों में किसी ने यूक्रेन पर रूसी हमले का विरोध करना तो दूर उसपर दुःख भी जाहिर नहीं किया। किसी छात्र ने नहीं कहा कि ठीक है कि वह सुरक्षित है लेकिन उसे अपने साथ पढ़नेवाले, पढ़ानेवाले और काम करनेवाले यूक्रेनी लोगों की चिंता है। 

जिस देश ने उन्हें पढ़ने को जगह दी जबकि अपने देश में मौक़ा नहीं था, उसके संकट में पड़ने पर सहानुभूति का एक शब्द पहली प्रतिक्रिया में न निकल पाना उस स्वार्थी राष्ट्रवाद का दूसरा पहलू है जो इस घड़ी 'भारत माता' की जय जयकार में व्यक्त हो रहा था। 

लेकिन हरियाणा की चरखी दादरी की 17 साल की नेहा एक आश्चर्यजनक अपवाद जान पड़ती है। आज के खुदगर्ज, तंगदिल भारत में अजनबी, एक अहमक। वह इस आफत में अपने मकान मालिक के परिवार को, उनके बच्चों को अकेला छोड़कर आने को तैयार नहीं। परिवार में पिता या पति युद्ध के मोर्चे पर गया है। घर पर मां और तीन बच्चे हैं। नेहा ने अपनी चिंतित माँ को कहा - “मैं ज़िंदा रहूँ, न रहूँ लेकिन इन तीन बच्चों और उनकी माँ को इस हाल में छोड़कर नहीं आ सकती।"

 

नेहा का साहस कितना असाधारण जान पड़ता है। उसकी हमदर्दी, मानवीयता और जैसा ट्रिब्यून अखबार ने लिखा उसका विश्व बंधुत्व कितना विशाल मालूम पड़ता है।

सबके लिए नेहा होना कठिन है। लेकिन आदमी तो हुआ जा सकता है। दुनिया सिर्फ अपने लिए, अपने फायदे के लिए हो, मैं भर ज़िंदा रहूँ, तरक्की करूँ, बाकी दुनिया को जो होना है, हो, इसे परले दर्जे की खुदगर्जी कहा जा सकता है। वैसे भी कहा जाता है कि युद्ध ऐसा वक्त होता है जब आपके चरित्र की परीक्षा होती है। 

लेकिन अब भारत से व्यापकता, उदारता जैसे गुणों की अपेक्षा नहीं की जाती। यूक्रेन के इस संकट के क्षण में इस मौके पर प्रधानमंत्री ने जो बयान दिया, वह भी क्षुद्र 'देशभक्ति' का उदाहरण था। जब युद्ध में फँसे भारतीय छात्रों को निकालने की अपील चारों तरफ से की जा रही थी, प्रधानमंत्री ने इस घड़ी में एक व्यावसायिक सन्देश दिया। उन्होंने अपने देश के 'निजी क्षेत्र' को एक तरह से इस संकट में अवसर दिखलाया: वे क्यों नहीं मेडिकल की शिक्षा में निवेश करते? हमारे बच्चों  को पढ़ने को छोटे-छोटे देशों में क्यों जाना पड़ता है? क्यों उन्हें एक और भाषा सीखनी पड़ती है?

 - Satya Hindi

प्रधानमंत्री का बयान 

यह यूक्रेन के मित्र देश के प्रधानमंत्री का उस समय दिया गया बयान है जब यूक्रेन रूसी हमले का मुकाबला कर रहा है। जिस क्षण वह वीरता से अपनी रक्षा कर रहा है,  उसे छोटा देश कहने के लिए ख़ासा संकरा दिल और दिमाग चाहिए। वैसे भी वह यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा देश है। मेरे मित्र ने ठीक ही ध्यान दिलाया, वहाँ के लोग प्रायः द्विभाषी हैं। वह आपके हजारों युवकों को आपसे कम पैसे में शिक्षा दे रहा है। इस बयान में इन सबके लिए यूक्रेन को शुक्रिया अदा करने की जगह, यह कहने की जगह कि उसे हमारे युवकों को अवसर दिया, यह कि हमारी पूरी सहानुभूति उसके साथ है, प्रधानमंत्री ने एक वाणिज्यिक बयान दिया।  

कहाँ हम अपने बच्चों को दूसरी भाषाओं को सीखने, दूसरी संस्कृतियों से परिचय करने को प्रेरित करते हैं और कहाँ उसे एक समस्या की तरह पेश किया जा रहा है। क्या बाहर जाकर पढ़ने की बात सिर्फ यूक्रेन पर लागू होती है या अमेरिका पर भी? 

क्या छोटा देश होना अपने आप में बुरी बात है? फ्रांस तो यूक्रेन से छोटा है? क्या हम शिक्षा और दूसरे मामलों में उसके बराबर हैं? या जर्मनी के? क्या उनके बारे में प्रधानमंत्री कभी यह कहने की हिम्मत कर सकते हैं?

यह भी याद रखना चाहिए कि भारत में यह सरकार विश्वविद्यालयों को जिस तरह बर्बाद कर रही है, उस वजह से बाहर से तो कोई यहाँ पढ़ने को आने से रहा! यहाँ से भी जिसकी औकात होगी, वह बाहर का ही रुख करेगा। हम सिर्फ जनसंख्या और आकार में ही बड़े रह जाएँगे। अंदर से खोखले। बौद्धिक जगत में पिछलग्गू। क्योंकि हमने इस क्षुद्र राष्ट्रवाद को गले लगा लिया है। यह कहावत भी भारत पर लागू होने में देर नहीं: 'बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर!"

सुरक्षा परिषद् में भी आक्रमण के लिए रूस की निंदा के प्रस्ताव पर वोट देने से बच निकलने से भी भारत की सिद्धांतहीनता का ही पता चलता है।

ठीक है कि रूस मित्र देश है, तो वह तो यूक्रेन भी है। रूस ज़्यादा ताकतवर है, क्या यही तर्क हमें उसके हमले की आलोचना करने से रोक रहा है? क्या इसे कूटनीतिक कौशल कहेंगे कि भारत ने इसके पहले भी दोनों देशों की सीमा पर तनाव बढ़ने पर चिंता जाहिर की थी जबकि कहना यह चाहिए था कि सीमा पर रूस का अपनी फौज तैनात करने से तनाव बढ़ रहा है। हमले के बाद दोनों से तनाव घटाने को कहना भी बेईमानी है। कहा जाना चाहिए था कि रूस हमला बंद करे। यूक्रेन ने तनाव नहीं पैदा किया था। 

 - Satya Hindi

लेकिन भारत यह नहीं कह सका। इसे भी कूटनीतिक चतुराई कहा जा रहा है। यह भी विडंबना ही है कि इस प्रस्ताव के मामले में भारत चीन के साथ था। 

यह ठीक है कि इस हमले पर अमेरिका और यूरोप के क्रोध में एक झूठ है। उन्हें युद्ध से परहेज नहीं। जब वह युद्ध करें तब वह जनतंत्र की रक्षा बन जाता है। उनका पाखंड साफ़ है। लेकिन भारत के साथ तो यह बात नहीं। फिर भी अब हम हमले को हमला नहीं नहीं कह पाते। अब हम दुनिया में न्याय के पक्षधर नहीं, ताकत के पुजारी माने जाते हैं। जो शक्तिशाली हैं, भारत उनके सामने सर ऊँचा करके नहीं खड़ा हो सकता। शायद इसीलिए वह चीन के सीमा के अतिक्रमण का भी विरोध खुलकर नहीं कर पा रहा। क्योंकि वह शायद मानने लगा है कि जो ताकतवर है, उसे यह करने का अधिकार है। हम चीन से कमजोर है तो चुप बैठने में भलाई है। 

भारतीय टीवी चैनलों की पत्रकारिता

अगर यूक्रेन के लोग इस समय के  भारत के हिंदी के टीवी चैनल देखते तो भारत में बढ़ रहे लफ़ंगेपन का उन्हें अंदाज होता। टीवी चैनल पुतिन को महानायक, बाहुबली दिखला रहे थे जो घुसकर मारता है। यह सड़कछाप भाषा है और गली के गुंडों को ही शोभा देती है। यह अब भारत की राष्ट्रीय भाषा हो चली है। आखिरकार ये शब्द प्रधानमंत्री के प्रचार के ही हैं। 

रूसी हमले को हमला न कह पाना, हमलावर का नाम न ले पाना नैतिक पतन का एक और उदाहरण है। भारत का कद इससे बढ़ता है या नहीं, यह तो हमें सोचना है। 

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें