रोग नहीं, लक्षण है रुपये का गिरना!
कोरोना के दौर में निर्यात के थमे रहने और सिर्फ़ तेल मंगाते जाने की मजबूरी के चलते आयात बिल बढ़ते रहने की मजबूरी जैसे-जैसे कम होती जा रही है वैसे-वैसे उन अर्थशास्त्रियों का दिल बैठ रहा है जो अचानक निर्यात तेज होने और डॉलर की आमदनी बढ़ने से उसका रेट गिरने की उम्मीद लगाए बैठे थे। हाल में डॉलर और चढ़कर लगभग चौहत्तर रुपए तक पहुँच गया था। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के काफ़ी विरोधी उनकी उस बात को याद करते हैं और आलोचना के एक मुद्दे की तरह प्रचारित करते हैं जो उन्होंने 2014 चुनाव के बारे में कही थी।
तब रुपए की गिरावट को मुल्क की प्रतिष्ठा से जुड़ा बताते हुए वे अपना शासन आने पर डॉलर का रेट चालीस रुपया करने का दावा किया था। पर लगता है कि डॉलर का 74 के क़रीब जाना हमारे आर्थिक जीवन के लिए कोई ‘रोग’ न होकर एक चेतावनी है कि हमारी अर्थव्यवस्था कई संजीदा बीमारियों की चपेट में आ गई है। अगर इन पर तत्काल ध्यान न दिया गया, और समय रहते निदान न किया गया तो यह गिनाने से कुछ नहीं होगा कि डॉलर किस साल में कितने रुपये का था और हमारी विदेश व्यापार निर्भरता कितनी थी।
समस्या की अनदेखी
दुनिया की अधिकतर मुद्राओं के मुक़ाबले डॉलर के चढ़ने को एक अकाट्य सत्य की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अगर हम फलां-फलां मुद्रा से कम गिरे हैं तो यह चिंता की नहीं शाबाशी की बात है और दुनिया में सबसे तेज़ विकास दर लाने का चमत्कार है। हमें नुक़सान सिर्फ़ यह हो रहा है कि हम तेल खरीदने में ज़्यादा ख़र्च कर रहे हैं। तेल खरीदकर क्या कर रहे हैं, या देसी तेल उत्पादन का क्या हुआ, या बायो-डीजल जैसी चीजों का क्या हुआ, ये सवाल भुला दें तो भी यह पूछना ज़रूरी है कि तेल से अपनी भारी कमाई सरकार कब बंद करेगी।
हर साल तेल से लगभग ढाई-पौने तीन लाख करोड़ की अतिरिक्त कमाई सरकार करती है। पर यह आलेख तेल के राजस्व और बोझ पर नहीं है। सरकार समर्थक जमात यह तर्क भी देती है कि रुपये की गिरावट में यह ‘सिल्वर लाइनिंग’ है कि हमारा निर्यात बढ़ेगा। हमारे उत्पाद डॉलर के भाव से सस्ते हो जाएँगे तब हमारे उत्पाद की मांग बढ़ेगी। हमें मज़दूरी या अधिकांश कच्चे माल के लिए रुपये में ही भुगतान करना होता है। इसलिए अगर तेल महंगा हो रहा है तो निर्यात की कमाई बढ़ेगी और नुक़सान की भरपाई हो जाएगी।
लेकिन रुपये की गिरावट और मात्र तेल की क़ीमत चढ़ने तथा निर्यात बढ़ने का तर्क देने वाले कभी भी न तो इस परिघटना के लिए अपनी अर्थव्यवस्था के अंदर झाँकने की कोशिश करते हैं, न अमेरिकी डॉलर चढ़ने के पीछे वहाँ की जीडीपी में उछाल और अर्थव्यवस्था में सुधार की तरफ़ नज़र फेरने की ज़रूरत देखते हैं। वे तो अपनी अर्थव्यवस्था की चिंताजनक प्रवृत्तियों से भी नज़र चुराते हैं।
अगर रुपये की गिरावट से निर्यात चढ़ता तो क्यों मनमोहन राज में अर्थात 2013-14 में हुआ 312 अरब डॉलर का निर्यात ही, आज तक रिकॉर्ड बना हुआ है। तब से हमारा निर्यात भी गिरा है और रुपया भी।
दूसरी ओर पेट्रोलियम उत्पादों पर बढ़े करों ने केंद्र और राज्य सरकारों को मालामाल किया है पर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में क़ीमतें गिरने के बावजूद हमारा आयात का बिल बढ़ता गया है और अब भुगतान असंतुलन मुश्किल पैदा करने लगा है। रुपये की गिरावट या किसी भी मुद्रा का मोल सिर्फ़ निर्यात या विदेश व्यापार पर निर्भर नहीं करता, लेकिन यह एक महत्वपूर्ण भूमिका ज़रूर निभाता है।
आज डॉलर के वैश्विक उठान के बीच जिन मुद्राओं का भाव नहीं गिरा है उनमें बांग्लादेश और वियतनाम जैसे छोटे देश भी हैं जिनका निर्यात पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ा है। ये भी हमारी तरह श्रम बहुल उत्पादों का निर्यात करते हैं और यह माना जा रहा है कि नए अमेरिकी निजाम द्वारा लगाए जा रहे आर्थिक प्रतिबंधों के बीच ये देश और तेजी से निर्यात बढ़ाएँगे। उनका निर्यात हमसे दोगुने से ज़्यादा रफ्तार से बढ़ा है जबकि उनकी मुद्रा हमसे आधे से कम गिरी है। चीन भी सारे प्रतिरोध और कोरोना की मारामारी के बावजूद निर्यात बढ़ाए जा रहा है और उसकी मुद्रा की गिरावट ज़्यादा नहीं है। वह बीते साल में भी अपनी जीडीपी में अच्छा विकास करने में सफल रहा है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि बांग्लादेश, वियतनाम, मलेशिया जैसे देशों से हमें चुनौती पहले से मिल रही थी। श्रम आधारित काम वे हमारे यहाँ से भी सस्ता करा लेते थे। पर उन्हें लीड तब मिली है जब हमारे यहां नोटबंदी और जीएसटी का प्रयोग चला। कोरोना के दौर ने उनकी लीड और बढ़ा दी क्योंकि हमारी तुलना में उनके यहाँ प्रबन्धन बेहतर था और इसकी मार कम रही।
चार साल पहले हुआ जीएसटी का फ़ैसला अंतत: अर्थव्यवस्था और देश को लाभ दे सकता था पर उसको लागू करने के तरीक़े और टाइमिंग ने सारा गुड़ गोबर किया और उसने हमारे सारे छोटे और श्रम-आधारित धंधे का भट्ठा बिठा दिया।
निर्यात कारोबार का काफी बड़ा हिस्सा इससे प्रभावित हुआ। वहां देश की सीमा जैसी कोई सुरक्षा नहीं है कि थोड़ा लड़खड़ा कर भी चलने लगे। वहाँ सचमुच गलाकाट प्रतिद्वंद्विता है। लेकिन नोटबंदी तो फिजूल की चीज थी जिसने अपनी ही अर्थव्यवस्था पर ठीक उसी समय चोट की जब हम लगभग ‘टेक-ऑफ’ की स्थिति में थे।
दिलचस्प यह है कि 2008 के सब-प्राइम संकट के समय हमें सरकारी बैंकों और हल्के विदेश व्यापार ने बचाया था। आज ये दोनों बोझ बन गए हैं। और सरकार की कहें या अंतरराष्ट्रीय वितीय संस्थाओं के लॉबिस्ट लोग इन बातों को छुपाते हुए अर्थव्यवस्था में जरा सी सुगबुगाहट आने पर शोर मचाते हैं, रेट्रोस्पेक्टिव प्रभाव से कर न वसूलने के फ़ैसले पर तालियाँ बजाते हैं, विदेशी पूंजी की गंगा उतर आने की भविष्यवाणी करते हैं, उदारीकरण और विनिवेशीकरण के हर फ़ैसले पर वाह-वाह करते हैं। इन सबके बीच भी रुपया क्यों टूटता जा रहा है इसे भुलाए रखना बहुत समय तक बुखार का जारी रहना साबित हो सकता है जो खुद बीमारी कम है, लेकिन दूसरी बड़ी बीमारियों का सिगनल ज़्यादा है।