नेहरू की अनुपस्थिति में पटेल ने लागू करवाया था अनुच्छेद 370
आरएसएस के बौद्धिक शिविरों में एक ‘सच’ का प्रतिपादन बड़ी तेज़ी के साथ किया जाता रहा था- अनुच्छेद 370 लादने का काम जवाहर लाल नेहरू ने किया था, जबकि उनके गृह मंत्री सरदार पटेल इसके विरोध में थे। 5 अगस्त 2019 को जब अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने की प्रक्रिया शुरू की गई, इस बात को बड़े ज़ोर शोर से कहा गया कि प्रधानमंत्री मोदी ने एक बड़े नायक की तरह सरदार वल्लभ भाई पटेल का ‘एक भारत’ का सपना पूरा कर दिया।
बीजेपी के वरिष्ठ नेता राम माधव ने एलान किया था कि पंडित नेहरू के ऐतिहासिक भूल को अंत में ठीक कर दिया गया। यह भी दावा किया गया कि अनुच्छेद 370 को हटाने के फ़ैसले से 'शहीद' श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जिन्होंने कश्मीर को भारत से मिलाने के लिए अपना जीवन बलिदान किया था, का भी सपना पूरा कर दिया।
आरएसएस-बीजेपी के इस दावे में कि 370 के लिए नेहरू ज़िम्मेदार हैं और सरदार पटेल ने इसका विरोध किया था, इसमें रत्ती भर भी सच्चाई नहीं है। इसके विपरीत तमाम दस्तावेज़ इस बात की तसदीक करते हैं कि सरदार पटेल उस संवैधानिक प्रक्रिया का हिस्सा थे, जिनके तहत अनुच्छेद 370 को भारत के संविधान में जोड़ा गया।
क्या कहते हैं दस्तावेज़?
सरदार पटेल के निजी सचिव और वरिष्ठ आईसीएस अफ़सर विद्या शंकर ने सरदार पटेल के पत्राचार का एक संकलन तैयार किया है। यह संकलन दो खंडों में उपलब्ध है और सरदार पटेल के विचार और उनके कामों का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज़ है। हक़ीक़त यह है कि जम्मू-कश्मीर से सम्बन्धित उपखंड की प्रस्तावना में विद्या शंकर सरदार पटेल की इस बात के लिए तारीफ़ करते हैं कि उन्होंने बिना किसी बाधा के इसे पास करा लिया था।विद्या शंकर के दस्तावेज़ों से साफ़ है कि जब संविधान सभा से अनुच्छेद 370 पास हुआ, उस वक़्त नेहरू हिन्दुस्तान से दूर अमेरिका की आधिकारिक यात्रा पर थे।
‘जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में सरदार पटेल की कई उपलब्धियों में अनुच्छेद 370 का भारतीय संविधान में जोड़ना भी है। यह पूरा मामला जवाहर लाल नेहरू की संस्तुति के साथ शेख अब्दुल्ला और उनके मंत्रिपरिषद के विचार विमर्श के साथ गोपाल स्वामी अयंगर देख रहे थे। हालाँकि उस वक़्त अमेरिका में थे, इस मामले से जुड़े मसौदे की अनुमति नेहरू से ले ली थी। तब तक सरदार पटेल से सलाह मशविरा नहीं किया गया था। संविधान सभा में राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने पर कांग्रेस पार्टी ने ज़बरदस्त विरोध दर्ज कराया था। उसूलन कांग्रेस की राय थी कि दूसरे राज्यों की तरह ही कश्मीर भी संविधान को स्वीकार करे। इस बात को लेकर ज़्यादा ग़ुस्सा था कि मौलिक अधिकार जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होंगे। जब गोपाल स्वामी अयंगर कांग्रेस के लोगों को समझाने बुझाने में नाकाम रहे, उन्होंने पटेल की मदद ली। पटेल नेहरू की अनुपस्थिति में बहुत बेचैन थे और वह नहीं चाहते थे कि ऐसा कुछ हो जाए जिससे नेहरू को नीचा देखना पड़े। नेहरू की अनुपस्थिति में सरदार पटेल ने पार्टी को समझाने बुझाने का बीड़ा उठाया। वह अपने मिशन में कामयाब रहे और इस हद तक कामयाब रहे कि संविधान सभा में इस पर कोई बहस नहीं हुई। अनुच्छेद 370 का कोई विरोध नहीं हुआ।’
पटेल की सक्रिय भूमिका
यानी सरदार पटेल ने अनुच्छेद 370 को बनाने और संविधान सभा से पास कराने में सक्रिय भूमिका अदा की। इस बात की पुष्टि 3 नवंबर 1949 को नेहरू को लिखी उनकी चिट्ठी से भी होती थी। ‘कश्मीर से जुड़े हिस्से में थोड़ी सी दिक़्क़त आई थी। मैंने पार्टी को सिर्फ़ एक मसले को छोड़ कर सब पर राज़ी कर लिया था।’17 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा में अनुच्छेद 370 पर बहस हुई। उस वक़्त डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद अध्यक्षता कर रहे थे। एक लंबी टिप्पणी के साथ गोपाल स्वामी ने सदन में प्रस्ताव को रखा। बहस के दौरान सिर्फ़ 1 सदस्य मौलाना हसरत मोहानी ने आपत्ति दर्ज कराई थी। उन्होंने कहा :
श्रीमान मैं पहले ही यह बात साफ़ कर देना चाहता हूँ, मैं न तो अपने दोस्त शेख अब्दुल्ला को यह सब रियायत देने का विरोध करता हूँ न ही महाराजा को कश्मीर का शासक मानने का विरोध करता हूँ और अगर कश्मीर के महाराजा को कुछ और अधिकार और रियायतें मिलती हैं तो मैं खुश ही होऊँगा। लेकिन क्या मैं एक सवाल पूछ सकता हूँ, जब आप कश्मीर को इतनी रियायतें दे रहे हैं तब मैं इस बात का बंबई सूबे में बड़ौदा राज्य के ज़बरदस्ती विलय का विरोध करता हूँ। बड़ौदा राज्य का प्रशासन भारत के दूसरे कई राज्यों के प्रशासन की तुलना में बेहतर है। यह बात ठीक नहीं है कि आप बड़ौदा के महाराजा को अपना पूरा राज्य बंबई में विलय के लिए मजबूर करें और उन्हें पेंशन दे दी जाए। कुछ लोग यह दावा करते हैं कि वह ख़ुद ही विलय के लिए तैयार हो गए हैं। लेकिन मैं जानता हूँ कि सब लोग इस बात से भलीभाँति परिचित हैं कि उन्हें इंग्लैंड से लाया गया और उनकी इच्छा के ख़िलाफ़ उन पर दबाव डाला गया… ‘
इस पर राजेंद्र प्रसाद बोले, ‘मौलाना, हम यहाँ बड़ौदा के महाराजा की चर्चा नहीं कर रहे हैं।’ इस पर मौलाना ने पलट कर जवाब दिया:
‘मैं विस्तार में नहीं जा रहा हूँ, लेकिन मैं ऐसी चीज का विरोध करता हूँ। अगर आप कश्मीर के महाराजा को ये रियायतें दे रहे हैं तो बड़ौदा का बंबई में विलय के फ़ैसले को भी वापस लीजिए और बड़ौदा के महाराजा को भी यही सारी रियायतें तथा और ढेर सारी रियायतें दी जाएँ।’
हैरानी की बात यह है कि राम माधव मौलाना हसरत मोहानी के सिर्फ़ तीन शब्दों को उद्धृत करते हैं। ये तीन शब्द हैं, ‘यह भेदभाव क्यों?’
राम माधव गोएबल्स के अंदाज में यह साबित करना चाहते हैं कि मौलाना ने भी अनुच्छेद 370 के भेदभावपूर्ण प्रावधानों पर सवाल खड़े किए थे। सच इससे अलग है।
मौलाना ने न केवल अनुच्छेद 370 का समर्थन किया था, बल्कि बड़ौदा के शासक के लिए भी ऐसे ही प्रावधानों की माँग की थी। उनकी नज़र में बड़ौदा के महाराजा अच्छी सरकार चला रहे थे, फिर भी उन्हें हटा दिया गया और बंबई के साथ बड़ौदा का विलय करा दिया गया।
बहस पर पर्दा
आरएसएस के लोग संविधान सभा में अनुच्छेद 370 पर हुई असली बहस पर पर्दा डालना चाहते हैं। संविधान में अनुच्छेद 370 को जोड़ने में आधे से भी कम दिन का वक़्त लगा था। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद और गोपाल स्वामी अयंगर के अलावा वरिष्ठ हिन्दू नेता पंडित ठाकुर दास भार्गव, आर. के. सिधवा. पंडित हृदयनाथ कुंजरू. के संथानम और महावीर त्यागी ने बहस में हिस्सा लिया था। किसी ने भी अनुच्छेद 370 का विरोध नहीं किया था।यहाँ यह बात ग़ौर करने लायक है कि इनमें से कई सदस्य हिन्दू राष्ट्रवादी थे। ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी संविधान सभा के सदस्य थे और 26 नवंबर 1949 को जिस संविधान पर उन्होंने दस्तख़त किए थे, उसमें अनुच्छेद 370 मौजूद था। उन्होंने जम्मू-कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे का मामूली विरोध करना भी उचित नहीं समझा था। उन्हीं की तरह हिन्दू राष्ट्रसभा सदस्य जसपत राय कपूर ने 21 नवंबर 1949 को संविधान के मसौदे पर बहस करते हुए अपनी नाखुशी ज़ाहिर की। उन्होंने कहा था, ‘मेरी इतनी सी ख़्वाहिश है कि दूसरे राज्यों की तरह ही कश्मीर को भी भारत का हिस्सा होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे असंतोष और पीड़ा के बाद भी ऐसा नहीं हो सकेगा। यह बहुत ही नाजुक मसला है और मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कहूँगा।'