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क्या मसजिद-शिवलिंग तकरार पर ब्रेक लगाना चाहते हैं भागवत?

क्या मसजिद-शिवलिंग तकरार पर ब्रेक लगाना चाहते हैं भागवत?

क्या देश में बढ़ रही 'असहिष्णुता' से आरएसएस को अब दिक्कत महसूस होने लगी है? क्या हर मसजिद में विवाद ढूंढने से संघ प्रमुख मोहन भागवत को परेशानी हो रही है? जानिए उन्होंने क्यों कहा कि हर मसजिद के नीचे शिवलिंग खोजने की ज़रूरत नहीं।

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आम हिन्दुओं की भावना को संभवत: पढ़ लिया है जिनका आभूषण सहिष्णुता है और जो अपने ही लोगों के द्वारा इस आभूषण के छीने जाने की कोशिशों से असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। हर मसजिद के नीचे शिवलिंग खोजने की क्या ज़रूरत और हमें झगड़ा क्यों करना?- सामान्य से दो सवालों के ज़रिए मोहन भागवत ने वह बात कह दी है जो आम हिन्दू परिवारों में चर्चा का विषय रहा है।

ऐसा नहीं है कि मोहन भागवत के सवालों के जवाब में सारे सुर एक जैसे हों, लेकिन इन सवालों ने हिन्दू परिवारों में सहिष्णु बने रहने को लेकर एक लकीर ज़रूर खींच दी है। आज जो लोग मोहन भागवत के बयान का विरोध कर रहे हैं उनमें ज़्यादातर कट्टरता का आवरण ओढ़े हुए हिन्दू हैं। खुद मोहन भागवत भी अचरज में होंगे कि उनका कट्टर समर्थक रहा यह वर्ग उनकी ही मुखालिफत पर क्यों उतर आया है? उन्हें अहसास हो रहा होगा कि ग़लत रास्ते पर चलते हुए ऐसी स्थितियों का सामना करना ही पड़ता है जब अपने ही पराए हो जाते हैं।

मोहन भागवत ने पहले क्यों नहीं तोड़ी चुप्पी?

मोहन भागवत ने काश थोड़ा और पहले पहल की होती। मॉब लिंचिंग का विरोध किया होता, दिल्ली दंगे के वक़्त सक्रिय हुए होते, ‘गोली मारो… को..’ जैसे नारे का प्रतिरोध किया होता, सीएए-एनआरसी आंदोलनकारियों पर हमलों की घटनाओं की निन्दा की होती, ‘कोरोना जिहाद’ जैसी आक्रामक मुहिम को ग़लत बताया होता, आंदोलनकारी किसानों को खालिस्तानी और आतंकी बताने को ग़लत ठहराया होता, मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत बोए जाने वाली तमाम घटनाओं की निन्दा की होती… तो आज मोहन भागवत की निन्दा करने वाले लोगों की तादाद और भी कम होती। जो निन्दा कर रहे हैं उनकी ज़ुबान में भी वजन कम होता।

हर मसजिद के नीचे शिवलिंग ढूंढने की बढ़ती प्रवृत्ति को ग़लत ठहराने में मोहन भागवत जितनी अधिक देरी करते उनके विरोधियों की संख्या और अधिक बढ़ती चली जाती। खासकर उन विरोधियों की जो अब तक उनके समर्थक रहे हैं। 

कह सकते हैं कि मोहन भागवत ने आम हिन्दू परिवारों के बीच उस बेचैनी को आख़िरकार महसूस कर लिया जो हिन्दुओं के रैडिकलाइजेशन किए जाने की कोशिशों से पैदा हो रही है।

आम हिन्दू किसी भी सूरत में न तो जिहादी बनना चाहते हैं, न अपने धर्म का इस्लामीकरण होने देना चाहते हैं। फिर भी यह महसूस किया जा सकता है कि ऐसा चाहने वाले लोगों की संख्या भी बीते दिनों में बढ़ी है। मगर, इसके पीछे सत्तालोलुप सियासत का अधिक योगदान है।

बीजेपी को भी भागवत का संदेश

हिन्दुओं के रैडिकलाइजेशन के आरोपों से खुद मोहन भागवत भी नहीं बच सकते। भले ही उन्होंने वक्त की नजाकत को समझते हुए यह कहा हो कि हर मसजिद के नीचे शिवलिंग ढूंढने की ज़रूरत नहीं है लेकिन ‘ज्ञानवापी तो ठीक है’ कहकर उन्होंने वह गुंजाइश भी बनाए रखी है जिसमें कट्टर हिन्दूवादी तत्वों के अनियंत्रित हो जाने का ख़तरा बन आया है। इसे थोड़ा और बेहतर तरीक़े से समझें तो मोहन भागवत ने राम मंदिर आंदोलन के बाद किसी आंदोलन का नेतृत्व करने से संकोच दिखाया है। ऐसा कहकर वास्तव में मोहन भागवत ने भारतीय जनता पार्टी के लिए संदेश छोड़ा है। यह संदेश अनियंत्रित कट्टरता की राह पर चलने से बचने का है।

मोहन भागवत जानते हैं कि राजनीति की अपनी ज़रूरत होती है और सबकुछ आरएसएस के मनमाफिक नहीं चल सकता। ऐसे में जो वर्ग राजनीति के कारण भारतीय जनता पार्टी से दूर हो रहा है या दूर होने वाला है, वह स्थायी रूप से कहीं आरएसएस से भी दूर ना हो जाए- यह चिंता मोहन भागवत को सताने लगी है। बीजेपी सत्ता में रहे, न रहे, आरएसएस को जनता के बीच हमेशा बने रहना है। आम हिन्दू बीजेपी की छत्रछाया में पलते-बढ़ते कट्टर हिन्दूवाद से कहीं बिदक न जाए, इसलिए उन्हें साथ बनाए रखने की गरज से मोहन भागवत ने संयम और धीरज के साथ विवेकपूर्ण दिखने का प्रयास किया है।

मोहन भागवत के बयान को बीजेपी के संभावित राजनीतिक क़दमों से एक निश्चित दूरी बनाए रखने के तौर पर भी देखा जा सकता है। मगर, यह सवाल ज़रूर उठता है कि इसकी ज़रूरत ही क्यों पड़ी?

हिन्दुवाद को कट्टरता की राह आरएसएस ने ही दिखलायी है। आगे भी नेतृत्वकर्ता वह खुद बने रहना चाहता है। लिहाजा ‘ज्ञानवापी तो ठीक है’ कहकर इस राह में रुकावट भी बनना नहीं चाहता और हर मसजिद के नीचे शिवलिंग ढूंढने की इजाजत देकर वह कट्टरता की अनियंत्रित आंधी भी पैदा होने नहीं देना चाहता। 

मोहन भागवत ने हिन्दू कट्टरता के प्रवाह को मनोनुकूल दिशा देने के लिए वास्तव में एक हस्तक्षेप किया है। इस बहाने वह बीजेपी और उसकी अनुषंगी इकाइयों के बीच अपने नेतृत्व को मज़बूत करने की भी कोशिश कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इस वर्ग में संघ का नेतृत्व स्थापित नहीं है लेकिन वैचारिक आधार पर उसकी समीक्षा का प्रयास है। तभी तो विरोध करने वाले भी खुलकर सामने आ रहे हैं। मगर, ये मुट्ठीभर विरोधी समय रहते नियंत्रित हो जाएंगे, इसका भी मोहन भागवत को यक़ीन है।

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