संघ प्रमुख ने फिर उठाया आरक्षण पर सवाल, की बहस की माँग
क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) आरक्षण के प्रावधानोें में बदलाव कर उसे कमज़ोर करना चाहता है? क्या आरएसएस केंद्र सरकार पर इस मामले में दबाव डाल कर कोई बदलाव करवा सकता है? ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि संघ के सरकार्यवाह यानी प्रमुख मोहन भागवत ने रविवार को आरक्षण पर बहस की माँग की है। वह चाहते हैं कि इस मुद्दे पर नए सिरे से बहस हो।
भागवत ने आरएसएस से जुड़े शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के दीक्षांत समारोह कार्यक्रम में शिरकत करते हुए कहा कि ‘आरक्षण के मुद्दे पर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में बातचीत की जानी चाहिए।’
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जो लोग आरक्षण के ख़िलाफ़ हैं, उन्हें इसके समर्थकों के बारे में सोचना चाहिए और जो लोग इसका समर्थन करते हैं, उन्हें इसके विरोधियों के बारे में सोचना चाहिए।
मोहन भागवत, सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
संघ प्रमुख ने कहा कि आरक्षण के मुद्दे पर काफ़ी क्रिया-प्रतिक्रिया होती है, जबकि समाज के अलग-अलग वर्गों के बीच समरसता होनी चाहिए।
बीजेपी पर लगा दलित-विरोधी होने का आरोप
आरएसएस प्रमुख की बातें महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि सत्तारूढ़ बीजेपी में ज़्यादातर लोग किसी ने किसी रूप में संघ से जुड़े हुए रहे हैं। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आरएसएस के प्रचारक रह चुके हैं। नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान कई ऐसे फ़ैसले हुए, जिन्हें आरक्षण विरोध के तौर पर देखा गया। विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति के मामले में यह प्रावधान कर दिया गया था कि हर नियुक्ति को रोस्टर प्रणाली से जोड़ दिया गया था। इसका बहुत ही विरोध हुआ और उसके बाद सरकार को इस आदेश को वापस लेना पड़ा। मोहन भागवत के बयान को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
मोहन भागवत ने कहा था कि संविधान बनाने वालों ने जो सोच कर इसकी व्यवस्था की थी, वह नहीं हुआ है। आरक्षण के नाम पर राजनीति हुई है। उन्होंने एक ग़ैर-राजनीतिक कमेटी बनाने की माँग की थी जो इस पूरे मामले की समीक्षा करे।
भागवत ने कहा था, ‘हमें सबके समग्र कल्याण के लिए काम करना चाहिए। यह सोच होनी चाहिए कि हमारा हित पूरे राष्ट्र के हित से जुड़ा हुआ हो, सरकार को भी इस मामले में इस तरह संवेदनशील होना चाहिए कि इसके लिए किसी आंदोलन की ज़रूरत ही न हो।’
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ऐसे लोगों की एक कमेटी बनाई जानी चाहिए जो सचमुच पूरे राष्ट्र के बारे में सोचते हों, सबके कल्याण और बराबरी के बारे में सोचते हों। इस कमेटी में ऐसे लोग भी हों जो यह सुझाव दे सकें कि किसको आरक्षण मिले और कब तक मिले।
मोहन भागवत, सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
आरक्षण के ख़िलाफ़ बीजेपी?
इस पर भारतीय जनता पार्टी की काफ़ी आलोचना की गई, यह कहा गया कि बीजेपी आरक्षण ख़त्म करना चाहती और यह भी कि वह दलित विरोधी है। लगभग उसी समय बिहार में विधानसभा चुनाव था, जिसमें राष्ट्रीय जनता दल ने इस मुद्दे को खूब भुनाया। उस चुनाव में बिहार में बीजेपी को बहुत नुक़सान हुआ और इसे भागवत के बयान से जोड़ कर देखा गया था।भागवत के विवादास्पद बोल
पिछले साल सितंबर में भागवत ने एक बार फिर आरक्षण पर बयान दिया, उन्होंने इसका समर्थन किया। लेकिन इस बार भी उन्होंने यह सवाल उठा दिया कि यह कब तक चलेगा, उसकी समीक्षा का समय आ गया है।मोहन भागवत ने अपनी तीन दिवसीय व्याख्यान श्रंखला के समापन के मौके पर 20 सितंबर को कहा:
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सामाजिक कलंक को मिटाने के लिए संविधान में प्रदत्त आरक्षण का आरएसएस पूरी तरह समर्थन करता है। आरक्षण कब तक दिया जाना चाहिए, यह निर्णय वही लोग करें, जिनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। जब उन्हें लगे कि यह जरूरी नहीं है, तो वे इसका निर्णय लें।
मोहन भागवत, सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
उन्होंने कहा, ‘आरक्षण कोई समस्या नहीं है, समस्या आरक्षण की राजनीति से है। समाज का एक अंग पीछे छूट गया है, यह हमारे कर्मों का परिणाम है। इस 1,000 साल पुरानी बीमारी को ठीक करने के लिए हमें 100-150 साल पीछे जाना होगा, और मैं नहीं समझता कि यह कोई महँगा सौदा है।’ ध्यान देने वाली बात है कि मोहन भागवत का यह यह रुख उनके 2015 के रुख से अलग है।
इसके लगभग एक साल पहले भी भागवत ने आरक्षण के मुद्दे पर अपनी राय रखी थी और उस बार भी संघ और बीजेपी को काफ़ी किरकिरी हुई थी।
भागवत ने 8 नवंबर, 2017 को राजस्थान में एक कार्यक्रम में भी आरक्षण पर सवाल उठाया था। उन्होंने कहा था, ‘जाति के आधार पर समाज के एक वर्ग के साथ भेदभाव लंबे समय से किया जाता रहा है। संविधान में जाति-आधारित भेदभाव को दुरुस्त करने की व्यवस्था है और यह लंबे समय से चली आ रही है।
जिस समय भागवत ने यह बात कही, तत्कालीन मुख्य मंत्री वंसुधरा राजे सिन्धिया वहाँ मौजूद थीं, उन्होंने कुछ नहीं कहा। उस समय वहाँ राजस्थान बीजेपी के प्रमुख अशोक प्रणामी भी थे। उन्होंने बाद में कहा, ‘बीजेपी ने कभी भी आरक्षण का विरोध नहीं किया। कांग्रेस ने 55 साल के शासन में दलितों के विकास के लिए कुछ नहीं किया, जिस वजह से उन्हें आज भी आरक्षण की ज़रूरत पड़ती है।’
संघ की रणनीति
सवाल यह है कि भागवत के इस बयान को किस रूप में देखा जाना चाहिए। उन्होंने आरक्षण व्यवस्था पर तो सवालिया निशान लगा ही दिया। उन्होंने इस पर बहस करने की माँग कर इस पर पुनर्विचार का संकेत दे दिया।पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह संघ की दूरगामी रणनीति का हिस्सा है और यह बीजेपी के लिए भी फ़ायदेमंद है।
संघ पूरे हिन्दू समुदाय को एकजुट करना चाहता है, वह चाहता है कि एक ऐसा समुदाय बन कर तैयार हो जो जाति के नाम पर बँटा हुआ नहीं हो। यह बीजेपी के लिए फ़ायदेमंद इसलिए है कि जातियों के आधार पर बँटे हुए गुट अपने-अपने हितों के हिसाब से वोट करते हैं।
यदि एकजुट हिन्दू वोट करेगा तो जाति के नाम पर राजनीति करने वाले दलों को वोट नहीं मिलेगा और बीजेपी को वह वोट मिलेगा।
पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि बीजेपी को इसमें कुछ हद तक कामयाबी मिली है। बीजेपी को 303 सीटें और लगभग 43 प्रतिशत वोट मिले हैं। यह पहली बार हुआ है। इसकी वजह यह समझी जा रही है कि बड़े पैमाने पर लोगों ने जातिगत समीकरण से हट कर पार्टी को वोट दिया है। इसे इससे भी समझा जा सकता है कि बिहार में पिछड़ों का रहनुमा समझे जाने वाले राष्ट्रीय जनता को एक भी सीट नहीं मिली। इसी तरह उत्तर प्रदेश में यादवों की समझे जाने वाली समाजवादी पार्टी अपनी 5 सीटों को किसी तरह बचाने में कामयाब रही। सिर्फ दलितों की पार्टी समझे जाने वाली बहुजन समाज पार्टी की सीटें बढीं।
तो क्या मोहन भागवत यह संकेत दे रहे हैं कि जातिगत आरक्षण को कमज़ोर किया जाए क्योंकि अब उन्हें लगता है कि सारे इसकी ज़रूरत नही है, इसके बदले सभी हिन्दुओं को एकजुट कर एक वोट बैंक बना लिया जाए?