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राहुल गांधी की सदस्यता रद्द करने वाले RP Act और उसका इतिहास 

राहुल गांधी की सदस्यता रद्द करने वाले RP Act और उसका इतिहास 

राहुल गांधी को सूरत की एक अदालत द्वारा दो साल की सजा सुनाए जाने के बाद लोकसभा सचिवालय ने उनकी सदस्यता पर फैसला लेते हुए उनकी सदस्यता समाप्त कर दी। इसके साथ ही राहुल वर्तमान लोकसभा के सदस्य नहीं हैं, वे अगला लोकसभा चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे। 

गुजरात की एक अदालत द्वारा गुरुवार को राहुल गांधी को क्रिमिनल डिफेमेशन के चार साल पुराने मामले में दो साल की सजा सुना जाने के एक दिन बाद शुक्रवार को लोकसभा से उनकी सदस्यता भी समाप्त कर दी गई। हालांकि अदालत कोर्ट ने सजा के क्रियान्वयन पर 30 दिनों की रोक भी लगाई थी। सजा के सस्पेंड किये जाने  के साथ ही उन्हें ऊपरी अदालत में अपील करने की छूट भी प्रदान की थी । राहुल को दो साल की सजा होने के बाद बहस चल रही थी कि उनकी वायनाड से संसद सदस्यता रहेगी या फिर जाएगी। लोकसभा सचिवालय ने उनकी सदस्यता पर फैसला लेते हुए उनकी सदस्यता समाप्त कर दी। इसके साथ ही राहुल वर्तमान लोकसभा के सदस्य नहीं हैं, इसके साथ ही वे अगला लोकसभा चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे। 

इस मसले पर कई कानूनी विषेशज्ञों का पहले से ही मानना था कि सजा का एलान होते ही उनकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी। राहुल की सदस्यता भले ही समाप्त हो गई हो लेकिन उनके पास कुछ विकल्प अभी भी बचे हुए हैं जिनके सहारे उन्हें राहत मिल सकती है। 

पिछले साल अक्टूबर में  समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान को 2019 के भड़काऊ भाषण के मामले में दोषी ठहराए जाने के दो दिन बाद ही उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य घोषित कर दिया गया था। इस मामले में आजम खां को तीन साल की सजा सुनाई गई थी। सजा की घोषणा के तुरंत बाद ही आजम खां जमानत मिल गई थी और उन्हें ऊपरी अदालत में अपील दायर करने की छूट भी दी गई थी, लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने उनकी सदस्यता समाप्त कर दी थी। राहुल गांधी के मामले ने भी लगभग उसी फैसले को दोहराया गया है। लेकिन सदस्यता समाप्त करने के फैसले को लोकसभा के अध्यक्ष पर छोड़ दिया गया है।

हालांकि संसद/विधानसभा सदस्यों की अयोग्यता निर्धारित करने वाला कानून संसद में बनाया गया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये तमाम पुराने फैसलों में और विधायिका के कानून बनाने की शक्तियों और इन कानूनों की व्याख्या करने वाले फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि कब किसको अयोग्य घोषित किया जा सकता है।

संसद/विधानसभा सदस्यों को अघोषित किये जाने के लिए कई नियम बनाए गये हैं जिसमें अनुच्छेद 102 कहता है कि यदि कोई व्यक्ति लाभ का पद धारण करता है तो उसे संसद के किसी भी सदन के सदस्य के रूप में अयोग्य घोषित किया जा सकता है,  या तो फिर वह मानसिक रूप से अस्वस्थ है; अपनी नागरिकता गंवा चुका है; या फिर दिवालिया घोषित किया गया हो तो उसको अयोग्य घोषित किया जा सकता है। इसके अलावा संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के तहत उसे अयोग्य घोषित किया गया हो। इस संबंध अनुच्छेद 191 को विधायकों और विधान पार्षदों की अयोग्यता के लिए निर्धारित किया गया है।

चुनाव आयोग, भारत बनाम सका वेंकट राव (1953) मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्पष्ट कर दिया गया था कि अनुच्छेद 191 चुनावों के साथ-साथ सदस्य के रूप में बने रहने के लिए अयोग्यता का एक ही प्रावधान करता है। संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों से संसद ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 तैयार की, जिसमें मौजूदा सांसदों, विधायकों और विधान पार्षदों को अयोग्य ठहराने के लिए अपराधों की विभिन्न श्रेणियों को स्पष्ट किया गया है।

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा (1) के अनुसार किसी सदस्य को बलात्कार, आतंकवाद में शामिल होने, सांप्रदायिक वैमनस्य भड़काने, भ्रष्टाचार, नफरत फैलाने वाले भाषण, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का अपमान जैसे अपराधों के लिए दोषसिद्धि का उल्लेख किया है। सदस्य के खिलाफ ऐसे मामलों में  किसी सदस्य को अयोग्य ठहराने के लिए केवल दोषसिद्ध होना ही पर्याप्त कारण है। इन मामलों दी गई सजा जुर्माना है, तो छह साल की अवधि दोषी ठहराए जाने की तारीख से शुरू होगी। यदि जेल की सजा होती है, तो अयोग्यता दोषसिद्धि की तारीख से शुरू होगी, और जेल से रिहाई के बाद छह साल पूरे होने तक जारी रहेगी।

इस कानून में सुधार करते हुए 1989 में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा (3) जोड़ी गई, नई जोड़ी गई धारा में कहा गया है कि केवल दोषसिद्ध होने से ही सदस्य को अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकता। सदन की सदस्यता से अयोग्य घोषित किए जाने के लिए अदालत द्वारा कम से कम दो साल की जेल की सजा सुनाया जाना आवश्यक है। राहुल गांधी की संसद सदस्यता को इसी प्रावधान के तहत खतरा पैदा हुआ है।  

1989 में ही जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा (4) भी जोड़ी गई जिससे की मौजूदा सदस्य और चुनाव में उतरने के इच्छुक लोगों के बीच अंतर किया जा सके। इसके तहत किये गये प्रावधानों में स्पषट किया गया है कि किसी भी मौजूदा सांसद और विधायक की अयोग्यता तब तक प्रभावी नहीं होगी जब तक कि तीन महीने के भीतर पहली दोषसिद्धि के खिलाफ दायर उसकी अपील पर अपीलीय अदालत द्वारा अंतिम फैसला नहीं किया जाता। इसके अनुसार सदस्य की सदस्यता तबतक अप्रभावी है जबतक उसके ऊपरी अदालतों में अपील के अधिकार खत्म नहीं हो जाते, या फिर सदन को ही भंग न कर दिया जाए।

के प्रभाकरण बनाम पी जयराजन मामले में 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि की जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (3) के तहत अयोग्यता लागू करने का उद्देश्य राजनीति के अपराधीकरण को रोकना है। उन्होंने कहा, 'जो लोग कानून तोड़ते हैं, उन्हें कानून नहीं बनाना चाहिए। आम तौर पर, कुछ अपराधों के लिए दोषसिद्धि पर अयोग्यता लागू करके हासिल किया जाने वाला उद्देश्य आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को राजनीति में प्रवेश करने से रोकना है।

पांच जजों की बैंच ने धारा 8 (4) में कुछ भी गलत नहीं पाया और कहा कि मौजूदा सांसदों को अन्य लोगों से अलग श्रेणी के रूप में वर्गीकृत करना एक उचित वर्गीकरण है और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन नहीं है। 2005 के फैसले में कहा गया था कि यह धारा सदन संबंधित पार्टी की के सदस्यों की संख्या को कम होने से रोकने के लिए इसको जोड़ा गया था।

2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फैसले को उलट दिया। इस मसले पर सुनवाई करते हुए दो जजों की बैंच ने अनुच्छेद 102 और 191 के प्रावधानों पर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (4) की वैधता पर विचार किया, इसमें तत्काल अयोग्यता की मांग की गई थी। 2013 के फैसले में घोषणा की गई कि संसद के पास धारा 8 (4) को लागू करने के लिए विधायी शक्ति का अभाव है, जबकि संविधान स्पष्ट रुप से प्रावधान किया गया है कि सदस्य की अयोग्यता को तुरंत लागू किया जाना चाहिए।

साका राव मामले में 1953 के संविधान पीठ के फैसले पर भरोसा करते हुए, शीर्ष अदालत ने धारा 8 (4) को रद्द कर दिया और कहा कि संसद के पास सदस्य के रूप में चुने जाने के लिए अयोग्य घोषित किए जाने वाले व्यक्ति और संसद या राज्य विधानसभाओं के सदस्य के रूप में बने रहने के लिए अयोग्य घोषित किए जाने के लिए अलग-अलग कानून बनाने की विधायी क्षमता नहीं है। पीठ ने कहा कि संविधान स्पष्ट रूप से संसद को उस तारीख को टालने से रोकता है, जिससे मौजूदा सांसद या विधायक के मामले में अयोग्यता प्रभावी होगी।

गैर सरकारी संगठन लोक प्रहरी की ओर से वकील लिली थॉमस और एसएन शुक्ला द्वारा दायर जनहित याचिकाओं को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि दोषसिद्धि पर रोक, न केवल सजा, बल्कि सासंद/विधायक की सीट की रक्षा कर सकती है।

रामा नारंग बनाम रमेश नारंग एंड अन्य (1995) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब भारचीय दंड संहिता (सीआरपीसी) की धारा 374 के तहत अपील को प्राथमिकता दी जाती है, तो अपील दोषसिद्धि और सजा दोनों के खिलाफ होती है। पीठ ने कहा, ''इसलिए अपीलीय अदालत संहिता की धारा 389 (1) के तहत अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए दोषसिद्धि के आदेश पर रोक लगा सकती है। उच्च न्यायालय भारतीय दंड संहिता की धारा 482 के तहत अपने अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करते हुए दोषसिद्धि पर रोक लगा सकता है, अगर संहिता की धारा 389 (1) में शक्ति नहीं पाई जाती है।

रविकांत एस पाटिल बनाम सर्वभौमा एस बागली के मामले में 2007 के एक फैसले में कहा है कि दोषसिद्धि पर रोक लगाने का आदेश नियम नहीं है, बल्कि दुर्लभ मामलों में लिया जाने वाला एक अपवाद है, इसमें सजा के क्रियान्वयन पर रोक लगी हुई है, लेकिन दोषसिद्धि जारी है। लेकिन जहां दोषसिद्धि पर रोक लगा दी गई है, वहां प्रभाव यह है कि स्थगन की तारीख से दोषसिद्धि लागू नहीं होगी।  

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