एक चिट्ठी रोहित वेमुला के नाम...
प्रिय रोहित,
जिस सड़ांध को छोड़कर तुम सितारों की सैर पर गए वह सड़ांध अब और ज्यादा बदबूदार हो गई है। शैक्षणिक संस्थानों के बड़े बड़े दरवाजे अब दलित, आदिवासी, पिछड़े- वंचितों के लिए अधिक संकीर्ण हो चले हैं। इन स्थानों पर संवाद के लिए जगह दिन-ब-दिन सिकुड़ रही है। हां, सदियों तक कमजोरों और सामाजिक रुप से वंचितों को जिस अफीम के नशे में सुलाया जाता रहा, वह जरूर बढ़ता जा रहा है। अपने हक-हुकूक के लिए तनी मुट्ठियाँ और बुलंद आवाजों को दबाने के लिए तमाम संस्थान वही कर रहे हैं, जो तुम्हारे साथ सेंट्रल यूनिवर्सिटी हैदराबाद ने किया था।
प्रिय रोहित, तुम कार्ल सागान की तरह विज्ञान लेखक बनना चाहते थे। कितना अच्छा होता तुम जीवित रहते और सितारों की सैर करते, उनका सच कहते। इस देश में पाखंडियों ने सितारों को भी धंधे का एक साधन बना लिया है। सितारों के नाम पर डराकर लोगों को भाग्यवादी बनाया जा रहा है। कुकुरमुत्तों की तरह उग आए तमाम पाखंडी धर्म के नाम पर हिंसा के लिए उकसाकर, लोगों को हत्यारा बनाने के लिए उतावले हैं। इन्हें भी उसी सत्ता का संरक्षण प्राप्त है, जिसके दबाव में तुम्हें और तुम्हारे साथियों को निलंबित करके छात्रावास से बेदखल किया गया था।
प्रिय रोहित, हम जानते हैं कि तुम्हारे ऊपर सिर्फ तात्कालिक दबाव नहीं था। सिर्फ वही होता तो तुम शायद उसका मुकाबला करते। लेकिन तुम्हारी दृष्टि निजी नहीं थी। विश्वविद्यालय में पढ़ने का मतलब ही होता है, निजी दृष्टि को सामाजिक दृष्टि में तब्दील करना। लेकिन तुमने शायद विश्वविद्यालय को सिकुड़ते पाया। तुमने देखा कि शिक्षण संस्थानों में वैज्ञानिक सोच और मनुष्यता के विचार को बढ़ावा देने के बजाय जातीय दंभ, धार्मिक अंधता, ढकोसला और मूर्खता का बोलबाला बढ़ता जा रहा है।जातीय श्रेष्ठता के दंभ में छिपे भेड़ियों को दलित, आदिवासी वंचित समाज से आने वाले कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के छात्रों की प्रतिभाओं को बर्दाश्त करना मुश्किल हो रहा है। ऐसी प्रतिभाओं का मनोबल तोड़ने के लिए उनका उत्पीड़न किया जाता है।
सदियों तक शूद्रों, दलितों और स्त्रियों को पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं मिला। मिथकों में तप करने वाले का सिर उतार दिया गया। विद्या अभ्यास करने वाले का अंगूठा काट लिया गया। फिर स्मृतियों में विधान कर दिया गया कि जो वेद सुनने की कोशिश करे तो उसके कान में पिघला सीसा डाल दिया जाए। सदियों तक दलित स्त्रियों को खुले स्तन रहने के लिए मजबूर किया गया। कहीं दलितों के गले में मटकी और कमर में झाड़ू बांध दी गई। चढ़ती सुबह और उतरती शाम उनका निकलना प्रतिबंधित कर दिया गया। ताकि उनकी लंबी परछाई से स्वघोषित श्रेष्ठ जातिधारी शोषक अपवित्र ना हो जाएं!
आजादी के आंदोलन में यह समाज दोहरी लड़ाई लड़ रहा था। विदेशी साम्राज्यवाद और देशी सामंतवाद की दोहरी गुलामी में जातिगत शोषण का तंत्र ज्यादा खतरनाक था। जातितंत्र ने शोषितों को अपाहिज बना दिया था। इसीलिए बाबासाहेब अंबेडकर ने 15 अप्रैल 1920 को नासिक में कहा था, “जातिवाद का अंत जरूरी है। जाति को समर्थन देना अपराध है। हमारे समाज की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा जाति है।” सवाल यह है कि आजादी के 75 साल बाद यह बाधा समाप्त हुई क्या?
रोहित, तुमने अपने पहले और दुर्योग से अंतिम खत में लिखा, “मेरा जन्म एक भयानक हादसा था!” यह कथन जाति व्यवस्था का नंगा सच बयान करता है। करोड़ों लोगों का जीवन एक हादसा ही है। इस देश में जन्मते ही जाति और लिंग के आधार पर लोगों की नियति तय हो जाती है।
प्रिय रोहित, इस भयानक हादसे के शिकार तुम्हारे बाद भी हुए हैं। 2018 में केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय के दलित छात्र अखिल ताणत ने प्रशासन की प्रताड़ना से आजिज आकर अपनी कलाई काट ली। उसकी जेब में खून से सना खत मिला, जिसमें लिखा था, “मैं उस दर्द, क्रूरता और उपेक्षा को व्यक्त नहीं कर सकता, जिसका मुझे सामना करना पड़ा है।” 2019 में मुंबई में डाक्टर की पढ़ाई कर रही पायल तड़वी ने जाति शोषकों की प्रताड़ना की शिकार होकर आत्महत्या कर ली। रोहित, तुम्हारी तरह ही उसने अपने मम्मी पापा को लिखा था, “मैं जानती हूं कि मैं आपके लिए कितनी खास हूं और आप लोग ही मेरी दुनिया हो लेकिन अब हालात ऐसे असहनीय हो गए हैं कि मैं उनके साथ एक मिनट भी नहीं रह सकती।”
इसी तरह मद्रास आईआईटी में टॉप करने वाली छात्रा फातिमा लतीफ ने धार्मिक फब्तियों से परेशान होकर आत्महत्या कर ली। यह फेहरिश्त बहुत लंबी है, रोहित! जिन्हें जमीन का सितारा होना था, वे अब तुम्हारी तरह आसमां के सितारों के बीच कहीं होंगे; जहां जाति और धर्म का दमघौंटू परिवेश नहीं होगा।
प्रिय रोहित, तुम्हारे जाने के बाद पूरे देश में छात्र आंदोलन खड़ा हो गया था। जेएनयू, डीयू से लेकर हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी जैसे विश्वविद्यालयों के छात्र संगठन और तमाम सामाजिक संगठन सड़क पर आ गए थे। तुम्हारे पत्र को पढ़कर लाखों लोगों की आंखें नम हुई थीं। वे चाहते थे कि फिर कोई रोहित उनको अलविदा ना कहे। इसलिए भी वे सड़क पर निकले और कैंपसों में एकजुट हुए। कैंडिल मार्च निकाला गया। रोहित एक्ट बनाने की मांग की गई ताकि फिर कोई नौजवान जातीय उत्पीड़न का शिकार ना हो। लेकिन उसके बाद क्या हुआ, जानना चाहते हो, रोहित? जेएनयू के छात्रों, जिन्होंने तुम्हारी शहादत पर आक्रोश व्यक्त किया था, उन्हें टुकड़े टुकड़े गैंग कहा गया। मीडिया और सत्ता के षड्यंत्र से जेएनयू को बदनाम किया गया। वहाँ के छात्रों को देशद्रोही तक करार दिया गया। इसके बाद देशभर के तमाम बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों ने खड़े होकर इसका प्रतिवाद किया। सत्ता को अकादमिक चुनौती दी। राष्ट्रवाद पर संवाद हुआ।
तुम्हारे मसले पर संसद में भी बहस हुई। लेकिन तुम तो जानते ही हो, जो संसद से लेकर तमाम संस्थानों में बैठे हैं, उनकी विचारधारा क्या है। लेकिन संविधान ने सब नागरिकों को सामान बनाया। अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए वे अब संविधान का पाठ उलट देना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने पहले तुम्हें बदनाम करने की कोशिश की और फिर जो लोग तुम्हारे विचारों और सपनों के साथ खड़े हुए, उनको भी बदनाम किया। इतना ही नहीं भीमा कोरेगांव मामले में झूठा केस बनाकर आनंद तेलतुंबड़े, सुधा भारद्वाज, फादर स्टेन स्वामी जैसे तमाम बुद्धिजीवियों को जेल में डाल दिया गया। देश की अदालतें भी मौन हैं। सत्ताधारी और उनके समर्थक अहंकार में चूर हैं। किसानों का दमन जारी है। शिक्षा महंगी होती जा रही है। दवाइयों के दाम पांच गुने हो गए हैं। एक तरफ गरीबों और भिखारियों की संख्या बढ़ रही है तो दूसरी तरफ धन्नासेठ मालामाल होते जा रहे हैं। नौजवानों के पास नौकरी नहीं है। ऐसे में तुम्हारे सपनों का क्या होगा? उन सपनों को जिलाए रखने वालों का क्या होगा?
प्रिय रोहित, जीतेजी तुम्हारी प्रतिभा से रश्क करने वाले आज भी तुम्हारे स्वतंत्र विचारों और लोकतांत्रिक सोच से घबराते हैं। वे जानते हैं कि तुम्हारे नाम का मतलब क्या है! इसका मतलब है; स्वतंत्र विचारों का होना, संवाद का होना, समता और न्याय पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था के भाव का होना। दरअसल, ये जाति शोषक वंचित तबकों से आने वाले नौजवानों के मौलिक विचारों, स्वतंत्र चेतना और परिवर्तन की कामना को भी मार डालना चाहते हैं।
प्रिय रोहित, तुम्हें श्रृद्धांजलि!
रविकान्त
लखनऊ विश्वविद्यालय