आरजेडी के लिए बिहार में चुनौती बनेगी एआईएमआईएम?
उपचुनावों में हार-जीत से सरकार पर तो कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता लेकिन नेताओं को अपनी नीतियों की जीत और दूसरे की नीतियों की हार के दावे करने का मौका मिल जाता है। बिहार में गोपालगंज और मोकामा की सीटों पर पिछले चुनाव में जीत हासिल करने वाले राजनीतिक दलों का ही कब्जा रहा लेकिन इनके परिणामों से बिहार की आगे की राजनीति में बीजेपी और आरजेडी के लिए होने वाली मुश्किलों का पता भी चल गया।
मोकामा में भूमिहार जाति की ही दो उम्मीदवारों आरजेडी की नीलम देवी और बीजेपी की सोनम देवी के बीच मुकाबला था और वहां बीजेपी ने भूमिहार जाति से आने वाले अपने नेताओं को लगाया था लेकिन जो झटका उसे मुजफ्फरपुर की बोचहां सीट पर हुए उपचुनाव के दौरान इस जाति के वोटरों से लगा था, वह मोकामा में भी जारी रहा।
दोनों दलों ने वहां से दो बाहुबलियों अनंत सिंह और नलिनी रंजन की पत्नी को उम्मीदवार बनाया था। 2020 के लिहाज से देखा जाए तो इस बार आरजेडी के उम्मीदवार की जीत का अंतर 35757 से घटकर 16741 रह गया लेकिन पिछली बार यहां अविभाजित एलजेपी के प्रत्याशी सुरेश सिंह निषाद को 13 हजार से अधिक वोट मिले थे।
2020 में आरजेडी उम्मीदवार अनंत सिंह को 78721 मत मिले थे जबकि इस बार उनकी पत्नी और आरजेडी उम्मीदवार नीलम देवी को 79646 वोट मिले। पिछली बार यहां जदयू बीजेपी के साथ था और उसके उम्मीदवार राजीव लोचन को 42964 वोट मिले थे। यहां का चुनाव परिणाम पूरी तरह से अनंत सिंह के प्रभाव का नतीजा माना जा रहा है लेकिन यह बात भी तय है कि बीजेपी को भूमिहारों का वोट लेने में काफी मशक्कत करनी पड़ रही है।
दूसरी तरफ, गोपालगंज में अपनी सारी ताकत झोंकने के बावजूद तेजस्वी यादव अपने उम्मीदवार को जीत नहीं दिला सके और इसके लिए काफी हद तक असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के उम्मीदवार अब्दुल सलाम को जिम्मेदार माना जा रहा है। अब्दुल सलाम को 12214 वोट मिले। यहां से आरजेडी उम्मीदवार मोहन प्रसाद गुप्ता को 68259 वोट मिले जो 2020 में महागठबंधन के उम्मीदवार आसिफ गफूर को मिले वोट 36460 से कहीं अधिक थे, तब नीतीश कुमार बीजेपी के साथ थे।
इस सीट से तेजस्वी यादव को अपने मामा साधु यादव से भी तगड़ा झटका लगा। 2020 में साधु यादव बसपा से चुनाव लड़कर 41039 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर थे और इस बार उनकी पत्नी इंदिरा यादव को बसपा के टिकट पर 8854 वोट मिले।
यहां से जीतने वाली बीजेपी उम्मीदवार कुसुम देवी को 70032 वोट मिले और वे महज 1794 वोट से जीत पायीं जबकि ‘नोटा’ पर 2170 लोगों ने बटन दबाया। 2020 में कुसुम देवी के पति सुभाष सिंह को 77751 वोट मिले थे। यानी बीजेपी के वोट यहां कुछ कम हुए और बीजेपी विरोधी वोटों को बंटवारा कम हुआ।
इन दोनों परिणामों से बीजेपी और आरजेडी की आगे की मुश्किलों का अंदाजा लगाया जा सकता है। बीजेपी के लिए मुश्किल यह है कि भूमिहारों के बीच उसकी लोकप्रियता कम होती जा रही है जबकि परंपरागत रूप से यह माना जाता है कि सवर्ण वोटों में भूमिहारों के सबसे ज्यादा वोट बीजेपी को मिलते थे। इसके लिए शायद यह बात भी जिम्मदार है कि बीजेपी के राज्य नेतृत्व में भूमिहारों की भूमिका काफी कम दिखती है और उम्मीदवारों के चयन पर भी इस समुदाय की शिकायत रही है।
उत्तर बिहार में कई मजबूत भूमिहार नेता आरजेडी के संपर्क में बताये जाते हैं। इस बात का अंदाजा बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल के उस बयान से भी लगाया जा सकता है जो उन्होंने उपचुनाव के परिणाम आने के बाद दिया है। उन्होंने कहा है कि बिहार की राजनीति अब बीजेपी बनाम आरजेडी की होगी। इस बयान से जायसवाल आरजेडी का कथित खौफ फिर से ताजा करना चाहते हैं। साथ ही, इससे वह आरजेडी के कथित परिवारवाद पर भी हमला करना चाहते हैं।
वरिष्ठ बीजेपी नेता और केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने भी उपचुनाव के परिणाम को बदलाव का प्रतीक बताया है। उनके हिसाब से प्रतीक शायद यह है कि अब बीजेपी अकेले भी जीत सकती है लेकिन दोनों बीजेपी नेताओं के बयान में नीतीश कुमार की कोई आलोचना नहीं दिखी।
दूसरी तरफ बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि बीजेपी अपने कोर वोट के टूटने से परेशान है। उन्होंने दावा किया कि गोपालगंज में उनके दल को बीजेपी के आधार वोट में सेंध लगाने में कामयाबी मिली है। उन्होंने कहा कि पिछली बार महागठबंधन के उम्मीदवार 40 हजार वोटों से हारे थे, अगली बार उनका उम्मीदवार 20 हजार वोटों से जीतेगा। उन्होंने बीजेपी का आधार वोट सिमटने और अपनी पार्टी के विस्तार का दावा किया।
एमवाई में पड़ी दरार
तेजस्वी यादव का दावा अपनी जगह है लेकिन गोपालगंज में उन्हें इस तल्ख हकीकत का सामना करना पड़ा है कि उनके आधार वोट यानी एमवाई में जो दरार पड़ी है, उसका खामियाजा उनके उम्मीदवार मोहन प्रसाद गुप्ता को उठाना पड़ा और इस तरह आरजेडी बिहार की विधानसभा में 80 सीटों के आंकड़े से एक अंक पीछे रह गयी। इसके लिए उनके मामा साधु यादव की पत्नी इंदिरा यादव को मिले वोटों के अलावा असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के उम्मीदवार अब्दुल सलाम को मिले वोटों को भी ध्यान से देखना होगा।
ओवैसी की पार्टी इस बात से खुन्नस खायी हुई थी कि उसके चार विधायकों को आरजेडी ने तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल कर लिया था।
आरजेडी नेतृत्व को इस बात पर सोचना होगा कि क्या इस कारण से गोपालगंज में एमवाई समीकरण से मुसलमान अलग हुए। यह बात भी उल्लेखनीय है कि मतदान से ऐन पहले आरजेडी के मोहन गुप्ता की एक तस्वीर वायरल हुई जिसमें वे आरएसएस के कार्यक्रम में उसकी पोशाक में नजर आ रहे थे।
शायद एआईमएआईएम मुस्लिम मतदाताओं में यह संदेश देने में काफी हद तक सफल हो गयी कि आरजेडी का उम्मीदवार वास्तव में आरएसएस का आदमी है। यह चर्चा भी है कि बीजेपी के तंत्र ने इस तस्वीर को इस वजह से बढ़चढ़ कर वायरल किया कि मुस्लिम वोट बिखर कर एआईएमआईएम के उम्मीदवार को मिल जाए और लगता है कि अंततः ऐसा ही हुआ।
यह बात वाकई रहस्यमयी है कि आरजेडी ने गोपालगंज जैसी प्रतिष्ठा की लड़ाई वाली सीट से ऐसा उम्मीदवार क्यों दिया जिसके तार आरएसएस से जुड़े थे। इस उपचुनाव के परिणाम ने आरजेडी नेतृत्व को यह संदेश दिया है कि मुसलमानों के वोट को हर हाल में अपना मान लेना सही नहीं होगा और खासकर आरएसएस से जुड़े रहे किसी उम्मीदवार को चुनावी मैदान में उतारने से मुसलमानों के वोट से वंचित होना पड़ सकता है। वह भी तब जबकि मुसलमानों के वोट पर दावा करने वाली एआईएमआईमए बिहार में पांव पसार रही है।
आरजेडी ने 2020 में गया की शेरघाटी विधानसभा सीट से बीजेपी की बागी और आरएसएस की करीबी मंजू अग्रवाल को उम्मीदवार बनाया था, तब आरजेडी को जीत मिली थी लेकिन आगे उसे इस विषय पर गंभीरता से सोचना होगा।