दिल्ली: दंगों के गवाह बने बच्चे कैसे भूलेंगे इन दहशत के दिनों को?
दिल्ली तीन दिन तक दंगों में जली। दंगाइयों ने कोई कसर नहीं रखी कि वे कुछ भी छोड़ दें। उन्होंने घर, दुकान, मकान, जो कुछ जला सकते थे, सब जला दिये। दंगाइयों के अंदर भरे ज़हर से बच्चों के स्कूल तक नहीं बच सके। अंग्रेजी अख़बार ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने दंगा ग्रस्त इलाक़े बृजपुरी के कुछ बच्चों से बातचीत की है। कई बच्चे ऐसे हैं जो दंगों के चश्मदीद बने हैं।
‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के मुताबिक़, बृजपुरी की ही रहने वाली 13 साल की तुबा अक़ील पिछले कुछ दिनों से ख़ामोश है। उसके परिवार का कोई भी सदस्य जब भी उससे बात करने की कोशिश करता है तो वह रोने लगती है। तुबा ने मंगलवार को दंगाइयों को उसका स्कूल जलाते हुए देखा था और इसके एक दिन बाद दंगों में उसके 17 साल के चचेरे भाई की मौत हो गई।
अख़बार के मुताबिक़, तुबा की मां ज़ीनत अक़ील कहती हैं कि उनकी बेटी सदमे में है। ज़ीनत कहती हैं, ‘वह (तुबा) गमगीन है। मंगलवार को जब दंगाई हमारे घर में घुसे तो हमने सभी बच्चों को छत पर भेज दिया था। जब बच्चों ने देखा कि भीड़ उनके स्कूल में तोड़फोड़ कर रही है और उसे आग लगा रही है तो वे चिल्ला रहे थे। ऐसा लगता है कि तुबा पर इसका सबसे ज़्यादा असर हुआ है।’ ज़ीनत आगे बताती हैं, ‘बुधवार को तुबा के चचेरे भाई को ब्रह्मपुरी में गोली मार दी गई। उस समय वह दूध लेने गया था। तुबा उसके बेहद क़रीब थी।’
तुबा की ही तरह उत्तरी-पूर्वी दिल्ली में सैकड़ों बच्चे ऐसे हैं, जो इन दंगों के दंश से उबरने की कोशिश कर रहे हैं। इसके अलावा कई बच्चे ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने परिवार के लोगों, दोस्तों को इस दंगे में खो दिया। अख़बार के मुताबिक़, सोमवार के बाद से ही कई बच्चे अपने घर से बाहर नहीं निकले हैं।
अख़बार के मुताबिक़, 14 साल की सामिया फाज़िल ने मंगलवार को अपने स्कूल पर हमला होते हुए देखा। सामिया ने कहा, ‘सीबीएसई के द्वारा 26 फ़रवरी को होने वाले निरीक्षण के लिये हम लोगों ने अपने स्कूल को सजाया था। लेकिन उससे एक दिन पहले ही दंगाइयों ने स्कूल में तोड़फोड़ कर दी।’ जब सामिया ने अपने स्कूल की बिल्डिंग को जलते हुए देखा तो वह फूट-फूटकर रोयी। सामिया कहती है कि सब लोगों ने स्कूल को सजाने में बहुत मेहनत की थी।
अख़बार ने ओल्ड मुस्तफ़ाबाद के रहने वाले 14 साल के नितेश चाक का भी दर्द बयां किया है। नितेश कहता है कि उसने कभी सोचा नहीं था कि जो उसने फ़िल्मों में देखा था, उसे वह असल जिंदगी में देखेगा। नितेश ने कहा, ‘दंगों के दौरान मेरे मम्मी-पापा ने मुझे और मेरी बहन को कमरे में बंद कर दिया था। हम खिड़की से देख रहे थे। सब जगह धुआं था और यह देखकर मैं डर गया कि लोग लाठी और रॉड लेकर सड़कों पर दौड़ रहे थे। मैं सोमवार के बाद आज अपने घर से बाहर निकला हूं।’
अख़बार के मुताबिक़, 13 साल के वासु अरोरा ने कहा कि जब उसने अपने पापा के फ़ोन में पड़ोस में हो रहे दंगों का वीडियो देखा तो वह डर गया। वासु कहता है कि यहां रहने वाले उसके टीचर की दंगों में मौत हो गई है। अख़बार के मुताबिक़, ब्रजपुरी, भजनपुरा, चांद बाग, शिव विहार, मुस्तफ़ाबाद और दंगा प्रभावित अन्य इलाक़ों में रहने वाले माता-पिता अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर बेहद चिंतित हैं।
अख़बार ने इस बारे में फ़ोर्टिस हेल्थ केयर के मनोवैज्ञानिक डॉ. समीर पारिख से बात की है। पारिख कहते हैं, ‘जिन बच्चों ने हाल ही में हुए दंगों को देखा है, यह सुनिश्चित करना बेहद ज़रूरी है कि उनकी जिंदगी इससे प्रभावित न हो। बड़े लोग दंगों को समझ सकते हैं और अपने डर पर भी क़ाबू कर सकते हैं लेकिन बच्चे अक्सर ऐसा नहीं कर पाते।’
ये दंगे बहुत भीषण थे। इनमें मरने और घायल होने वालों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। दंगाइयों ने कई स्कूलों को तहस-नहस कर दिया। इन स्कूलों को फिर से बनने में काफ़ी दिन लगेंगे। माहौल को ठीक होने में कई दिन लगेंगे और उम्मीद है कि दिल्ली एक बार फिर अपनी रफ़्तार को पकड़ेगी। लेकिन इन दंगों में अपनों को खो चुके, दंगों के गवाह बन चुके बच्चे दहशत भरे दिनों और इन घटनाओं को क़तई नहीं भूल पायेंगे और उनकी सारी जिंदगी इससे बुरी तरह प्रभावित हो सकती है।