अब फिल्म 'ओपनहाइमर' के एक दृश्य से हिंदूवादियों की भावनाएँ आहत हो गई हैं। यह एक अंतरंग दृश्य है जिसमें नायक ओपनहाइमर भगवत गीता का ज़िक्र करता है और नायिका आग्रह करती है कि वह उसका श्लोक पढ़े। ओपनहाइमर अपनी अलमारी से किताब निकालता है और अपने और नायिका के बीच रखकर यह अंश पढ़ता है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि जिसे अंतरंग दृश्य कहा जा रहा है, वह आज की फिल्मों और वेब सीरीज के अंतरंग दृश्यों के मुकाबले बहुत मामूली सी बात है।
लेकिन इस दृश्य की कई तरह से व्याख्या हो सकती है- जैसे किसी भी दृश्य या रचना की हो सकती है। यह हमारी सोच और मानसिकता पर निर्भर करता है कि किसी दृश्य को हम कैसे देखते हैं। बरसों पहले डॉ. राम मनोहर लोहिया ने हिंदुस्तान की पांच तेजस्वी स्त्रियों का ज़िक्र करते हुए उनमें द्रौपदी को भी रखा था। उन्होंने कहा कि कोई सड़ा हुआ दिमाग ही यह सोचेगा कि द्रौपदी तो पांच पतियों की पत्नी थी।
डॉक्टर लोहिया ने जब यह लिखा था तब के मुकाबले हालात काफी बदल गये हैं। अब हम जो कुछ सोचते हैं बस नफ़रत और हमले की शैली में सोचते हैं।
लेकिन बात फिल्म पर करें। यह फिल्म महान वैज्ञानिक जे रॉबर्ट ओपनहाइमर के जीवन पर केंद्रित एक पुस्तक 'अमेरिकन प्रॉमिथस' को आधार में रखकर बनाई गई है। प्रॉमिथस यूरोपीय मिथक-विश्व का वह चरित्र है जिसे स्वर्ग से आग चुराकर लाने के लिए दंडित किया गया था। ओपनहाइमर ने भी अमेरिका को परमाणु बम दिया लेकिन आने वाले वर्षों में वह अमेरिका के परमाणु बम विस्तार कार्यक्रम के विरुद्ध बोलते रहे और इसलिए अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा दंडित किए गए।
यह एक सुविदित जानकारी है कि ओपनहाइमर गीता से बहुत प्रभावित थे। परमाणु परीक्षण से पहले भी उन्होंने वैज्ञानिकों को गीता के श्लोक सुनाए थे। जब उन्होंने विस्फोट के बाद बना आग का गुब्बारा देखा तब फिर उन्हें गीता के कृष्ण याद आए और यह कथन याद आया- “मैं ही हूं काल पुरुष।”
गीता महाभारत के बीच रची गई थी- जब मोहग्रस्त अर्जुन युद्ध से विरत होना चाहता था, तब कृष्ण ने उसे जो ज्ञान दिया वही गीता है।
गीता की भी बहुत सारी व्याख्याएं हैं। लेकिन उसके सूत्रों में जो सबसे लोकप्रिय और स्वीकृत सूत्र है, वह अपने कर्तव्य पथ पर डिगे रहने का है-कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन।
क्या महाभारत और गीता से निकली इस शिक्षा ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान क्वांटम-भौतिकी में खोए एक वैज्ञानिक को उसकी दुविधा के क्षणों से उसे बाहर निकाला था? अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान की दलील थी कि हिटलर भी परमाणु बम बनाने में लगा है। उसे रोकने के लिए ज़रूरी है कि अमेरिका यह बम पहले बनाए। ओपनहाइमर एक स्वतंत्रचेत्ता वैज्ञानिक थे जो विज्ञान के अलावा कभी कम्युनिज़्म के प्रति भी आकर्षित रहे, कला और साहित्य के प्रति भी सचेत रहे और दुनिया के बदलावों के बारे में उनकी एक स्पष्ट राय रही। लेकिन बम निर्माण का काम जब अपने आखिरी दौर में था तब द्वितीय विश्वयुद्ध लगभग समाप्ति की ओर था- जर्मनी हार चुका था और जापान का भी घुटने टेकना लगभग तय माना जा रहा था। इस समय ओपनहाइमर और दूसरे वैज्ञानिकों के मन में अपने लक्ष्य के प्रति एक वैध संशय पैदा हुआ। लेकिन ओपनहाइमर ने अपने लक्ष्य के प्रति फिर भी निष्ठा बनाए रखी। फिल्म में एक वैज्ञानिक कहता है- 'अब तुम वैज्ञानिक नहीं रहे राजनेता हो गए हो।'
लेकिन जब ओपनहाइमर ने इन धमाकों के नतीजे देखे तो वे परमाणु कार्यक्रम-विरोधी हो गए। इसकी वजह से उन्हें क्या कुछ भुगतना पड़ा, यह सब फिल्म में है।
लेकिन ओपनहाइमर और गीता के बीच का अटूट प्रेम एक अलग अध्याय है। जिस दृश्य को लेकर पूरा विवाद किया जा रहा है, उसकी एक व्याख्या यह भी हो सकती है कि ओपनहाइमर की दुविधा इतनी गहरी थी कि प्रेम के क्षणों में भी वह उन पर हावी थी और उनकी कम्युनिस्ट प्रेमिका यह समझने के लिए उत्सुक हुई कि वे क्या पढ़ रहे हैं।
इत्तिफाक से यह फिल्म ऐसे समय आई है जब मणिपुर में द्रौपदी के चीरहरण को लगातार याद किया जा रहा है। बात-बात पर अपनी भावनाओं को ठेस पहुंचने की दुहाई देने वाले लोग लेकिन वहां धर्म की हानि नहीं देख रहे हैं।
यह दृष्टि-संकुचन का मामला है जो हमारे समय में लगातार बड़ा होता जा रहा है। भक्त होना बड़ी बात नहीं है- रावण भी शिवभक्त था। बड़ी बात अपने विवेक का इस्तेमाल करके धर्म और अधर्म को समझना है।
'ओपनहाइमर' में गीता से जुड़ा यह दृश्य हटा दिया जाएगा तो भी फिल्म पर कारोबारी तौर पर ज़्यादा असर नहीं पड़ेगा- बेशक उसकी आत्मा पर कुछ चोट होगी (गीता में ही कृष्ण कह गए हैं कि आत्मा न जलती है न नष्ट होती है न जन्म लेती है, न मरती है, लेकिन वह घायल होती है, यह हम अपने अनुभव से जानते हैं।), मगर गीता के लिए यह एक हार सी होगी।
संकट यह है कि जिन लोगों ने न गीता पढ़ी है, न फिल्म देखी है, न द्वितीय विश्वयुद्ध और परमाणु हमलों को ठीक से समझते हैं, वे सबसे ज्यादा इस दृश्य से आहत हैं। हमारे समाज में जो कुछ घट रहा है, उसमें आहत होने लायक बहुत सारी बातें हैं, भगवत गीता और धर्म के अपमान के भी दृश्य चारों तरफ़ हैं, लेकिन लोग आहत हैं तो एक फिल्म के मामूली से दृश्य पर, जो संभवत: तीस सेकंड का भी नहीं है और जिसमें ऐसा कुछ नहीं है जिससे गीता की गरिमा पर आंच आती हो। दरअसल, इसके विरोध से अगर आंच आती है तो वह भारत की लोकतांत्रिक समझ और संवेदना पर जिसमें विवेक लगातार घटा है और अंधी आस्था लगातार मज़बूत हुई है।