दक्षिणपंथ के निशाने पर क्यों है जेएनयू?
जब आँखों के सामने एक संस्था को बर्बाद किया जा रहा हो, सिर्फ़ इसलिए कि वह दक्षिणपंथ की राह पर चलने को तैयार नहीं है तो इसे देश की बदक़िस्मती ही कहा जायेगा। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय को कुछ टीवी चैनलों और फ़ेक न्यूज़ क़ारोबारियों के ज़रिए अर्बन नक्सल, आतंकवाद, देशद्रोह और सेक्स रैकेट का अड्डा बताया जा रहा है। इनमें वे भी शामिल हैं जो अपने को देशभक्त कहते हैं, और वे भी जो छद्म देशभक्ति का आवरण ओढ़े अपनी दुकान चला रहे हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय का सिर्फ़ इतना-सा अपराध है कि वह वामपंथ से प्रभावित है और दक्षिणपंथी विचारधारा को अपने यहाँ जगह देने को तैयार नहीं है।
मैं एक टीवी डिबेट में था। सेना के एक पूर्व अधिकारी हैं। वैसे तो निहायत मृदुभाषी हैं पर टीवी पर आते ही चीख़ने लगते हैं। शुरू में मुझे उनसे सहानुभूति होती थी। बाद में ध्यान से देखा तो लगा कि यह टीवी पर आने का उनका सफल टोटका है। जेएनयू पर बोलते हुए फिर चिल्लाने लगे। ये ‘ट्रेटर्स’ का अड्डा है। उनका भाव था कि सड़क पर प्रदर्शन करने वाले ‘देशद्रोही’ हैं। उनका बस चलता तो जेएनयू को शायद उड़ा ही देते। उनका ज़िक्र मैंने इसलिए किया कि विश्वविद्यालय की बहस में सेना के एक अधिकारी का क्या काम पर उन्हें शायद लाया ही इसलिए गया था कि वह जेएनयू को ‘देशद्रोहियों’ का अड्डा कहें। डिबेट में बीजेपी के एक प्रवक्ता भी थे जो हिंदी भी अंग्रेज़ी में बोलते हैं, उन्होंने बड़े ज्ञान की बात की। कहने लगे एक अख़बार में यह ख़बर छपी थी कि जेएनयू में ‘सेक्स रैकेट’ चलता है। अब दोनों की बात को जोड़ कर देखिए। और फिर यह सवाल पूछिए कि अगर जेएनयू ‘ट्रेटर्स’ और ‘सेक्स रैकेट’ चलाने वालों का अड्डा बन गया है तो इस विश्वविद्यालय को सरकार चलने क्यों दे रही है इसको बंद क्यों नहीं करती
प्रवक्ता महोदय को यह भी बताना चाहिए था कि जेएनयू पहले से ‘ट्रेटर्स’ और ‘सेक्स रैकेट’ का अड्डा था यानी मनमोहन सिंह के समय भी था या फिर मोदी सरकार के आने के बाद बना है। दोनों ही परिस्थितियों में बीजेपी के इस अँग्रेज़ी दाँ हिंदी बोलने वाले प्रवक्ता को यह बताना चाहिए था कि क्यों पिछले पाँच सालों से उनकी सरकार जेएनयू का इलाज नहीं कर पायी क्यों वहाँ अभी तक ‘ट्रेटर्स’ खा-पी कर मोटे हो रहे हैं और क्यों ‘सेक्स रैकेट’ को धड़ल्ले से चलने दिया जा रहा है अगर ऐसा है तो क्या यह नहीं कहना चाहिए कि पिछले तीस साल की सबसे मज़बूत सरकार इतना-सा मामूली काम भी नहीं कर पायी उस वाइस चांसलर को अभी तक बदला क्यों नहीं गया जो यह सब होने दे रहा है फिर देश के गृह मंत्री और शिक्षा मंत्री क्या कर रहे हैं वे तो राष्ट्रवादी लोग हैं। उन्हें तो फ़ौरन ही एक्शन लेना चाहिए।
हक़ीक़त यह है कि ये लोग कुछ भी कह लें, वे अच्छी तरह जानते हैं कि जेएनयू आज भी एक ऐसा विश्वविद्यालय है जिसपर देश को गर्व है। जहाँ से पढ़-लिख कर निकले छात्र बड़े-बड़े पदों पर हैं और देश का नाम रौशन कर रहे हैं। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इसी जेएनयू की उपज हैं। केंद्रीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर भी कभी यहाँ पढ़ा करते थे। इतना ही नहीं, इस साल आर्थिक मामले में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले अभिजीत बनर्जी ने भी 1981- 83 में जेएनयू में पढ़ाई की थी। हर साल यहाँ के दर्जनों छात्र आईएएस-आईपीएस की परीक्षा पास करते हैं। और यहाँ पढ़ कर निकले छात्र विदेश के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में पढ़ने-पढ़ाने जाते हैं।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि फिर जेएनयू को सत्ता प्रतिष्ठान की तरफ़ से डिसक्रेडिट करने का उपक्रम क्यों किया जा रहा है और क्यों वह दक्षिणपंथ के निशाने पर है
बात बहुत गूढ़ नहीं है। इसको समझने में ज़्यादा दिमाग़ नहीं लगाना चाहिए। बात इतनी-सी है। आज़ादी के बाद भारत के विमर्श तंत्र पर वामपंथ का वर्चस्व रहा। बौद्धिक वर्ग में यह वर्चस्व आज भी क़ायम है। लेकिन पिछले पाँच सालों में हिंदुत्ववादियों की तरफ़ से कड़ी चुनौती देने का काम शुरू हुआ है। हिंदुत्ववादियों का मानना है कि वामपंथ एक ऐसी विचारधारा है जो इस देश की नहीं है, विदेशी है। इनका कहना है कि वामपंथ के प्रभाव से भारतीय विचार परंपरा का विकास नहीं हुआ। हिंदुत्ववादी वामपंथ के प्रति शत्रु भाव रखते हैं। आरएसएस के दूसरे प्रमुख गोलवलकर अपनी किताब ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में तीन शत्रुओं का ज़िक्र करते हैं। वामपंथ का नाम इस किताब में तीसरे शत्रु के तौर पर दर्ज है। जेएनयू देश में वामपंथी वैचारिक वर्चस्व का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे में वामपंथ को अगर विमर्श से बाहर करना है तो उसको डिसक्रेडिट करना होगा और इसके लिए ज़रूरी है कि वामपंथ के जितने भी क़िले हैं उनको ध्वस्त किया जाए। जेएनयू इस वैचारिक लड़ाई के बीच में फँस गया है।
जेएनयू का मनोबल नहीं टूटा
मोदी सरकार के आने के बाद यह लगा था कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जेएनयू में अपनी पैठ बनाने में कामयाब होगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बाद में जेएनयू प्रशासन में फेरबदल कर कैंपस के माहौल को बदलने की कोशिश की गयी। 2015 में कश्मीरी छात्रों की बेहद बेवक़ूफ़ाना और आपत्तिजनक हरकत की वजह से जेएनयू की साख पर पहला तगड़ा हमला किया गया। टीवी में बैठे कुछ पत्रकारों ने इस साज़िश में बड़ी भूमिका अदा की और पूरे देश में यह प्रचारित करने की कोशिश की गयी कि जेएनयू में भारत के टुकड़े-टुकड़े करने वाले बसते हैं। यह कहा गया कि जेएनयू कश्मीर में जनमत संग्रह की वकालत करता है। वह आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु को अपना आइकॉन मानता है। जेएनयू के लोगों को देश प्रेम सिखाने के लिए तोप खड़ा करने की बात की गयी। ऐसी तमाम ऊटपटाँग बातों को जम कर फैलाया गया। कन्हैया कुमार के ऊपर हमला किया गया। उसे देशद्रोह के आरोप में जेल की हवा खिलवाई गयी। पर जेएनयू का मनोबल तोड़ने में कामयाबी नहीं मिली। आज भी जेएनयू देश की राजधानी में ऐसे लोगों को मुँह चिढ़ा रहा है।
जिस जेएनयू में मैंने पढ़ाई की है वह विचारों का मुक़्त आकाश है। जिसने मेरे जैसे छोटे-छोटे शहरों से आए न जाने कितने निम्न और निम्न-मध्य वर्ग के बच्चों को बोलना सिखाया। लोकतंत्र के मायने बताए। यह बताया कि पढ़ने-लिखने का न तो कोई धर्म होता है और न ही जाति। जो पढ़ेगा, वह आगे जाएगा।
जेएनयू ने हमें संवैधानिक संस्कार दिए। जहाँ स्त्री-पुरुष में फ़र्क़ नहीं किया जाता। जहाँ महिलाओं के साथ रात के अंधेरे में भी कोई छेड़छाड़ करने की हिम्मत नहीं करता। जहाँ हिंसा के लिए जगह नहीं है। जहाँ अध्यापक और छात्र के बीच आज भी रागात्मक रिश्ता है। दुर्भाग्य की बात है कि विचारधारा थोपने की धुन में जेएनयू की उस परंपरा को ख़त्म करने की कोशिश की जा रही है जिस पर देश को गर्व होना चाहिए।
छात्रों का संदेश
जेएनयू पर पिछले पाँच सालों में जम कर अत्याचार करने की कोशिश की गयी है। उसके बर्दाश्त की सीमा अब ख़त्म होने को है। उसने सड़क पर उतर कर यह संदेश दे दिया है कि वह अब चुप नहीं बैठेगा। त्रासदी यह है कि आज सत्ता में वे लोग हैं जो जेपी आंदोलन का गुणगान करते नहीं थकते। वे भूल गये हैं कि जेपी आंदोलन की शुरुआत गुजरात और बिहार के छात्रों ने की थी। और जब सारे नेताओं को इंदिरा गाँधी ने जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया था तब भी भूमिगत आंदोलन की कमान छात्रों के हाथ में ही थी। अफ़सोस तब होता है जब जेपी आंदोलन पर गर्व करने का ढिंढोरा पीटने वाले बिलकुल वही तर्क देते हैं जो सत्तर के दशक में कांग्रेस और इंदिरा गाँधी दिया करती थीं। टीवी चैनलों पर बक-बक करने वाले प्रवक्ताओं को इंदिरा गाँधी और कांग्रेस की ज़ुबान बोलते देखना तकलीफ़ देता है।