छपाक से आँखें चुराकर दिखा दिया कि स्त्रियों के प्रति कितना संवेदनहीन है समाज!
‘सुन्दर और सुशील कन्या चाहिये’
हमारे अख़बारों के वैवाहिक विज्ञापन ऊपर लिखे वाक्य के साथ मुनादी किया करते हैं। यह दीगर बात है कि इन विज्ञापनों में कन्या की चारित्रिक शुद्धता खुले रूप में चिन्हित नहीं की जाती। ‘सुशील’ शब्द कई गुणों की भरपाई करता है।
क्या लड़कों के लिए भी ये ही योग्यताएँ माँगी जाती हैं नहीं, ये सब लड़की के लिए अर्हतायें हैं। हाँ, लड़के की नौकरी या अन्य ज़रिये से चलने वाली आजीविका को देखा जाता है जो कुल मिलाकर उसके करियर से जुड़ता है। समाज में ऐसे भेदभावों का चलन सदा सदा से है। नहीं तो लड़की की सुन्दरता न देखकर उसकी योग्यता और क्षमताओं पर ज़ोर देते हुए ‘सुन्दर और सुशील’ जैसे शब्दों का विज्ञापनों में बहिष्कार क्यों नहीं किया जाता
नहीं किया जाता बहिष्कार क्योंकि पुरुष की आकांक्षाओं में एक हूर परी रहती है। तब वह पत्नी के रूप में पद्मिनी क्यों न चाहे अब आप कहेंगे कि लड़कियाँ भी राजकुमार जैसा वर चाहती हैं। ज़रूर चाहती होंगी क्योंकि किसी के चाहने पर कोई बंदिश नहीं लग सकती लेकिन विरले ही होती हैं जिनकी ऐसी इच्छायें सर्वोपरि होकर सामने आयें।
ख़ूबसूरत लड़की पत्नी बने या नहीं बने फिर भी जवान और बूढ़े मर्दों को उसे घेरने और छेड़ने का अनकहा अधिकार मिला रहता है। घर, परिवार, सड़क, बीहड़ और सार्वजनिक स्थान, लड़की या स्त्री को कहीं भी गिरफ़्त में लिया जा सकता है और यह ऐसे घटित होता रहता है जैसे यह पुरुषों का जन्मसिद्ध अधिकार हो। लड़की ऐसी चाहत से इनकार करती है तो लगभग पाँच दशक पहले तक फ़िल्मी गानों की मदद से लड़के या कि अपने रूप में पुरुष अपनी चाहतों का इज़हार किया करते थे, मसलन- ‘उलफत न सही नफ़रत ही सही इसको भी मोहब्बत कहते हैं’ या ‘सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा’ इसके बाद आया ‘तुम अगर मुझ को न चाहो तो कोई बात नहीं, किसी ग़ैर को चाहोगी तो मुश्किल होगी’। अब सरे आम धमकी- ‘अब अगर मेल नहीं है तो जुदाई भी नहीं, बात तोड़ी भी नहीं, तुमने बनाई भी नहीं, तुम मुझसे न निबाहो तो कोई बात नहीं, किसी दुश्मन से निबाहोगी तो मुश्किल होगी’।
मुश्किल तक आते-आते बात आगे बढ़ती गयी और धमकियाँ ख़ौफ़नाक होती गयीं। पाँच दशक पहले तक जो आशिक खतोकिताबत कर के रह जाते थे और लड़की शादी होकर पति के घर चली जाती थी। पीछे रह जाती थीं प्रेमियों की आहें-कराहें कुछ इस तरह - ‘मेरे दुश्मन तू भी कभी किसी की दोस्ती को तरसे’ या ‘तेरी गलियों में ना रखेंगे क़दम, आज के बाद।’
समय आगे बढ़ा, ज़माना बदला। लड़कियाँ घरों और पहरों से बाहर आयीं, बन्दिशों ने दम तोड़ दिया। सब को अच्छा अच्छा लगा मानो स्त्रियों के लिए आज़ादी आ गयी हो। नहीं पता था कि अगर लड़कियों के लिए आज़ादी आयेगी तो जवाँ मर्दों के लिए मनमानी आ जायेगी। स्वतंत्रता की बग़ल में आकर खड़ी हो जायेगी स्वच्छन्दता! आशिक अब केवल आशिक होकर नहीं माशूक़ा के मालिक हो जाने के ‘आधुनिक’ वक़्त की पैदाइश हैं। अब लड़की उनके हाथ से निकलकर नहीं जा सकती। जो उनके मन भा गई है, वह उनकी ही है, निजी प्रॉपर्टी। अब उसकी मजाल क्या जो उनकी चाहत के लिए इनकार का दम भरे। नहीं, लड़की होकर वह उनकी मर्दानगी को चुनौती नहीं दे सकती। औरत जात की चुनौती उनकी इच्छाओं की बेइज़्ज़ती है।
इसके साथ करो कुछ ऐसा कि दूसरी लड़कियाँ भी सबक़ लें। किसी दिलनवाज़ को इनकार करने से पहले ही डर के हवाले हो जायें और हम जैसों के आँख के इशारों पर चली आयें हमारे पीछे पीछे। हमारी इच्छायें भी आख़िर इच्छायें हैं जिनके आगे माँ-बाप और घर-परिवार झुकता रहा है, यह लड़की क्या और इसकी औक़ात क्या इसकी औक़ात हम से है तो हम ही इसकी औक़ात बता देंगे। समझती क्या है ख़ुद को रूप का घमंड दिखा रही है!
डालो तेज़ाब, फूँक दो चेहरे को, जला दो छाती को।
वह जल रही है, झुलस रही है, आशिक के दिल में ठंडक पड़ रही है...।
यह कौन-सा समय आ गया है! इतना बेरहम वक़्त! जगह-जगह तेज़ाब से जले ख़ूबसूरत लड़कियों के चेहरे, उनकी नाक आँख की गडमड पहचान होते चेहरे, उनकी रेशमी त्वचा के झूलते चिथड़े और उनकी भयभीत करनेवाली सारी की सारी छवि।
इन सुन्दरियों को लेकर क्या-क्या नहीं रचा था कवियों ने और कैसा-कैसा मनमोहक दृश्य दर दृश्य नहीं बनाते रहे हैं लेखक। अनादि काल से चली आ रहीं कथायें, ऐसा वीभत्स तो स्त्री के साथ उन्होंने भी नहीं किया जिन्हें हम राक्षस कहते और मानते हैं और हर साल उनके पुतले जलाते हैं। क्यों जलाते हैं रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद के पुतले क्या इन तेज़ाबकांडियों से वे ज़्यादा बर्बर थे उन्हें राक्षस नाम पर फूँक देने के बजाय क्यों नहीं भस्म कर डालते इन कुपूतों को जिनकी सैक्सुअल इच्छा पर या विवाह की आकांक्षाओं पर लड़की का इनकार होता है तो ये क्रूरतम हद पर उतर आते हैं कि समाज में उस बेटी का सामना करने का साहस लुप्त हो जाता है।
क्या नैतिक हिम्मत बची है
अगर इस आधुनिक समाज में थोड़ी-सी भी नैतिक हिम्मत बची है तो देखो न छपाक फ़िल्म, सामना करो हक़ीक़त का, वीभत्स सत्य का और भारतीय समाज के ‘सपूतों’ की करतूतों का! आपने भी तो दिखा दिया कि नहीं कर सकते आप इन तेज़ाबी आग में समाये चेहरों का सामना तभी तो चोरों की तरह छपाक से आँखें चुराते हुए ‘तान्हा जी’ पिक्चर के लिए हॉल में घुस गये। कायर हो तुम, पीठ दिखाकर भागने वाले! ऊपर से तोहमत यह कि छपाक ने बॉक्स ऑफ़िस पर कमाई नहीं की। यह फ़िल्म कमाई के लिए नहीं बनाई गयी थी और न दीपिका इसके प्रमोशन के लिए जेएनयू गयी थी। वह इतनी ही स्वार्थी होती तो तेज़ाब से जले चेहरे के साथ फ़िल्मी पर्दे पर नहीं आती। सोचिये जिसे आप फ़िल्मी पर्दे पर देखना गवारा नहीं करते, वह किरदार उसने जीवन्त किया।
आपकी भी क्या ग़लती, आपको राजा-रानियों की पिक्चर लुभाती हैं। भले झोंपड़ों में रहें, महल देखना अच्छा लगता है। रेशम पहनने के लिए न मिले, देखकर दिल रेशमी-रेशमी हो जाता है।
हमें भी ऐसी ही उम्मीद थी कि छपाक को दर्शक मुश्किल से ही मिलेंगे क्योंकि हम जानते हैं कि इस समाज में स्त्रियों के प्रति कितनी संवेदना है! प्रमाण भी यही है कि यह फ़िल्म एक स्त्री मेघना गुलज़ार ने बनाई है और यह दीपिका पादुकोण के कंधों पर टिकी है। पुरुष निर्माता कहाँ गये
फ़िल्म ने एसिड अटैक से पीड़ित लक्ष्मी की कहानी भले कही है लेकिन समाज की असली कहानी तो दर्शकों की कमी कह रही है। और इससे भी भद्दा मज़ाक़ क्या होगा कि लोग छपाक की कमाई की तुलना ऐतिहासिक फ़िल्म ‘तान्हा जी’ से कर रहे हैं जहाँ ज़्यादा से ज़्यादा कल्पना का घालमेल रहता है। समाज की भयानक और वीभत्स सच्चाई को पुराने ऐतिहासिक पन्नों के नीचे न दबाया जाए, इतना तो न्याय आप छपाक के साथ कर ही सकते हैं। तेज़ाब कांड लड़कियों के लिए मौत से भी ज़्यादा ख़ौफ़ज़दा मंजर है, जो इसे झेलकर ज़िन्दा हैं वे जाँबाज़ सिपाहियों की जीती-जागती मिसाल हैं और जिन्होंने इन बहादुर लड़कियों पर तेज़ाबी हमला किया है वे ज़िन्दा तो हैं मगर जीने का हक़ गँवा चुके हैं।
एक बार फिर मेघना गुलज़ार और दीपिका पादुकोण को सलाम!!