तालिबान से बातचीत के लिए क्यों मजबूर है भारत?
साम्राज्यों का कब्रिस्तान माना जाने वाला अफ़ग़ानिस्तान फिर एक नए मोड़ पर है। यूनानी, शक, कुषाण, हूण, पारसी, अरब, मुग़ल, अंग्रेज़ और सोवियत साम्राज्यों के बाद अबकी बार आधुनिक युग के सबसे शक्तिशाली अमेरिकी साम्राज्य की बारी है। ‘इस्लामी आतंकवाद’ के ख़िलाफ़ 20 साल लंबी लड़ाई में अपने 2315 सैनिक गँवाने और खरबों डॉलर स्वाहा करने के बाद अमेरिका और नैटो संगठन की सेनाएँ अपने लाव-लश्कर के साथ 11 सितंबर 2021 तक लौट जाएँगी।
अमेरिका ने आतंकवादियों को पनाह देने वाले जिस इस्लामी कट्टरपंथी तालिबान संगठन की जड़ें उखाड़ने के लिए सितंबर 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ाई की थी वह न केवल वहाँ मौजूद है बल्कि उसे अफ़ग़ानिस्तान की अशरफ़ गनी सरकार के साथ सत्ता में भागीदारी देकर पिंड छुड़ाया जा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने अप्रैल में जब से अफ़ग़ानिस्तान से सेना वापसी का ऐलान किया है तब से तालिबान ने देश भर में हमले तेज़ कर दिए हैं।
खाड़ी के देश क़तर की राजधानी दोहा में तालिबान और अफ़ग़ान सरकार के बीच साल भर से चल रही सत्ता में भागीदारी की वार्ताएँ नई सरकार के स्वरूप, मानवाधिकार और स्त्री-शिक्षा जैसे मुद्दों पर अटकी पड़ी हैं। पर युद्धविराम के समझौते के बावजूद देश भर में लड़ाई के मोर्चों पर तालिबान का आगे बढ़ना जारी है। पिछले कुछ दिनों के भीतर तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी ताजिक, उज़्बेक और हज़ारा इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया है जिनमें कुंदूज़ और फ़रयाब सूबों की राजधानियाँ और क़रीब 40 ज़िले शामिल हैं।
अफ़ग़ानिस्तान में कुल मिलाकर 34 सूबे और 420 से ज़्यादा ज़िले हैं। ज़्यादातर बड़े सूबों की राजधानियाँ अब भी अफ़ग़ान सरकार के क़ब्ज़े में हैं। लेकिन देश के एक चौथाई ज़िलों समेत क़रीब 40 प्रतिशत भूभाग पर तालिबान का क़ब्ज़ा हो चुका है। राष्ट्रपति अशरफ़ गनी ने सुरक्षा की बिगड़ती स्थिति से चिंतित होकर अपने रक्षा और गृह मंत्रियों को बदला है। जनरल बिस्मिल्ला ख़ान मोहम्मदी को नया रक्षामंत्री बनाया है जिन्होंने नब्बे के दशक के गृहयुद्ध में तालिबान विरोधी उत्तरी मोर्चे के कमांडर अहमद शाह मसूद के साथ मिलकर तालिबान का मुक़ाबला किया था। जनरल अब्दुल सत्तार मीरज़कवाल को नया गृहमंत्री बनाया है।
अशरफ़ गनी और अफ़ग़ान राष्ट्रीय सुलह परिषद के अध्यक्ष अब्दुल्ला अब्दुल्ला इसी सप्ताह राष्ट्रपति जो बाइडन से मिलने अमेरिका जा रहे हैं। इस यात्रा पर टिप्पणी करते हुए तालिबान प्रवक्ता जबीउल्ला मुजाहिद ने कहा कि दोनों अफ़ग़ान नेता अपनी सत्ता और निजी हितों को बचाने की बात करेंगे जिससे अफ़ग़ानिस्तान का कोई भला नहीं होने वाला। जबकि अफ़ग़ान सरकार के प्रवक्ता का कहना है कि दोनों अफ़ग़ान नेता दोहा की वार्ताओं में आ रही अड़चनों के साथ-साथ अमेरिका से ख़ुफ़िया और सैन्य सहायता जारी रखने को कहेंगे।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन कूटनीतिक, आर्थिक और मानवीय सहायता देने के लिए तो तैयार हैं लेकिन अफ़ग़ानिस्तान से बाहर जाकर ख़ुफ़िया और सैनिक सहायता जारी रखना टेढ़ी खीर साबित होगा।
क्योंकि पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान पर नज़र रखने और ज़रूरत पड़ने पर सैनिक कार्रवाई करने के लिए अमेरिकी अड्डों की अनुमति देने से इंकार कर दिया है। प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने एक अमेरिकी चैनल पर और मंगलवार को वॉशिंगटन पोस्ट में छपे अपने लेख में साफ़-साफ़ कहा कि ‘हम अफ़ग़ानिस्तान में शांति के लिए अमेरिका के सहयोगी बनने को तैयार हैं लेकिन सैनिक कार्रवाई के लिए अमेरिकी अड्डों की इजाज़त नहीं दे सकते।’
इमरान ख़ान का कहना है पाकिस्तान हर उस ताक़त का विरोध करेगा जो अफ़ग़ानिस्तान पर सैनिक क़ब्ज़ा करने की कोशिश करेगी। उनका इशारा है कि वे नहीं चाहते कि तालिबान 1996 की तरह सैनिक अभियान चला कर सत्ता हासिल करें। वे चाहेंगे कि मामला सुलह समझौते के द्वारा निपटाया जाए। उनका कहना है कि लड़ाई-झगड़े से गृहयुद्ध छिड़ेगा जिसका नुक़सान शरणार्थियों और आतंकवाद के रूप में पाकिस्तान को ही भुगतना पड़ेगा। वे यह आश्वासन देते भी नज़र आए कि न तो अफ़ग़ानिस्तान के भीतर आतंकवाद को पनाह देने दी जाएगी और न ही पड़ोसी देश पनाह देंगे।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन यह अच्छी तरह समझते हैं कि पाकिस्तान की समर नीति इमरान ख़ान की इन अच्छी-अच्छी बातों के एकदम उलट रही है। पाकिस्तान ने आतंकवादियों को पनाह दी है और उनका सामरिक अस्त्रों की तरह प्रयोग किया है। अफ़ग़ानिस्तान के लिए वह तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान और हक़्क़ानी गुट को और भारत के लिए जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तोएबा और हिज्ब-उल-मुजाहिदीन जैसे आतंकवादी गुटों को पनाह देता और उनका प्रयोग करता आया है। बाइडन यह भी जानते हैं कि छापामारों के ख़िलाफ़ लड़ाई तब तक नहीं जीती जा सकती जब तक छापामारों को कहीं पनाह मिलती रहे। तालिबान और अल क़ायदा को पाकिस्तान में पनाह मिलती रही इसलिए अमेरिका उन्हें पूरी तरह नहीं हरा पाया।
इमरान ख़ान का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद के ख़िलाफ़ अमेरिका का साथ देने के कारण उसे तहरीक-ए-तालिबान और हक्कानी गुट जैसे आतंकवादी गुटों का निशाना बनना पड़ा है। अमेरिका ने केवल 23 अरब डॉलर की सहायता दी लेकिन आतंकवाद की वजह से पाकिस्तान का 150 अरब डॉलर का नुक़सान हुआ और 70 हज़ार से ज़्यादा लोगों की जानें गईं। दिलचस्प बात यह है कि इस लेख में इमरान ख़ान यह बताना भूल गए कि 1989 में सोवियत सेना के अफ़ग़ानिस्तान से निकल जाने के बाद पाकिस्तान ने देश में कट्टरपंथी मदरसों का जाल बिछा कर तालिबान को क्यों तैयार किया।
दिलचस्प बात यह है कि इमरान ख़ान ने ओसामा बिन लादेन के ख़ात्मे के लिए अमेरिकी कार्रवाई पर पिछले साल राष्ट्रीय एसेंबली में हुई एक बहस के दौरान ओसामा बिन लादेन को शहीद कहा था। अफ़ग़ानिस्तान के एक चैनल ने इस हफ़्ते पाकिस्तान के विदेशमंत्री शाह महमूद क़ुरैशी से इमरान ख़ान के बयान पर सफ़ाई माँगी तो वे ओसामा बिन लादेन को शहीद कहने की बात का खंडन करने के बजाय जवाब को टाल गए और भारत के अफ़ग़ानिस्तान में फैलते प्रभाव की निंदा करने लगे। इमरान ख़ान से जब अमेरिकी चैनल ने चीन के वीगर मुसलमानों की दशा पर सवाल किया तो वे उसे टाल कर कश्मीर में भारत की ज़्यादतियों पर बरसने लगे।
ये सब बातें दर्शाती हैं कि अफ़ग़ानिस्तान को लेकर इमरान ख़ान जो बातें कर रहे हैं वे ‘हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और’ से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। वे तालिबान को फिर से सत्ता में लाने की बिसात बिछा चुके हैं। दोहा में दिखावे के लिए बातें चल रही हैं। इमरान ख़ान तालिबान को बातचीत की मेज़ पर लाने का श्रेय ले चुके हैं और अब अफ़ग़ानिस्तान में शांति-सुलह का दूत होने का दिखावा कर रहे हैं।
ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि लोग अशरफ़ गनी की अफ़ग़ान सरकार को सोवियत संघ की वापसी के बाद बनी नजीबुल्लाह सरकार की तरह विदेशी महाशक्ति की कठपुतली के रूप में देखते हैं। तालिबान की बढ़ती सेना को इसका लाभ मिल रहा है।
तालिबान को सत्ता हाथों में आती दिख रही है। पाकिस्तान को लंबे अरसे के बाद अपनी आतंकवादी हथियार से छद्मयुद्ध करने की नीति की जीत होती दिखाई दे रही है। समस्या अशरफ़ की अफ़ग़ान सरकार और उसका समर्थन करने वाले अमेरिका और भारत के सामने है। अमेरिका और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए के सामने ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने की समस्या खड़ी हो गई है। पाकिस्तान अमेरिकी अड्डे रखने से मना कर रहा है और अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी पड़ोसी मध्य एशियाई देशों, ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान और किरग़िज़िस्तान में रूस और चीन अमेरिकी अड्डे नहीं बनने देंगे। समुद्री जहाज़ से ड्रोन और टोही विमान भेज कर जासूसी करना महँगा और जोख़िम से भरा काम होगा।
अशरफ़ गनी की सरकार के लिए अमेरिकी ख़ुफ़िया मदद के बिना तालिबान से टक्कर लेना मुश्किल होगा। उसके पास हवाई ताक़त है लेकिन वह तो सोवियत सेना के पास भी थी जो मुजाहिदीन की बढ़त नहीं रोक सकी थी। अमेरिकी ख़ुफ़िया तंत्र की मौजूदगी में ही पिछले डेढ़ महीने के दौरान तालिबान ने लगभग सारे बड़े शहरों को घेर लिया है, दो उत्तरी सूबे छीन लिए हैं और सौ के लगभग ज़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया है। सैंकड़ों अफ़ग़ान सैनिक या तो भाग खड़े हुए हैं या मारे गए हैं। सेना के अमेरिकी हथियार, ट्रक और गोला-बारूद भी तालिबान लड़ाकों के हाथ लगता जा रहा है।
तेज़ी से बदलते सामरिक समीकरण को देखकर भारत ने भी तालिबान से दूरी रखने की अपनी नीति को छोड़ कर बातचीत का सिलसिला शुरू कर दिया है। क़तर के एक विशेष दूत मुतलक़-बिन माजिद अल क़हतानी ने एक वेब सम्मेलन में बताया कि भारतीय दल ने दोहा में तालिबान के साथ गुपचुप वार्ताएँ की हैं। अल क़हतानी के कथन की पुष्टि इस बात से भी होती है कि विदेशमंत्री जयशंकर इसी महीने कुवैत और केन्या जाते समय दोहा रुके थे और वहाँ तालिबान-अफ़ग़ान वार्ताओं के अमेरिकी संयोजक ज़ाल्मे ख़लीजाद से मिले थे।
भारत अमेरिका के बाद अफ़ग़ानिस्तान को सबसे बड़ी सहायता देने वाली क्षेत्रीय शक्ति है। भारत का निवेश 2 अरब डॉलर से ऊपर जा चुका है। इसलिए भारत को अपने निवेश के साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान में चल रही परियोजनाओं और उनमें काम करने वाले लोगों के भविष्य की भी चिंता है। सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि अमेरिका के जाने के बाद यदि तालिबान सरकार ही लौट कर आ जाती है तो अफ़ग़ानिस्तान में बने भारत के प्रभाव का क्या होगा? भारत चाहेगा कि तालिबान की कट्टरपंथी नीतियों के कारण फिर से वह आतंकवाद का अखाड़ा न बने और पाकिस्तान फिर से उसे भारत में आतंक फैलाने वाले गुटों की पनाहगाह न बना ले।
इसके लिए ज़रूरी है कि भारत तालिबान के साथ सीधे संबन्ध बनाए। हालाँकि भारत को इसकी तैयारी कुछ साल पहले से शुरू करनी चाहिए थी। फिर भी देर आयद दुरुस्त आयद। तालिबान जानते हैं कि भारत इसके हक़ में नहीं था कि अमेरिका तालिबान के साथ कोई समझौता करे। पर तालिबान को इस बात का भी एहसास है कि सरकार बनाने के बाद उन्हें आर्थिक मदद की ज़रूरत होगी और भारत पश्चिमी देशों और दाता संगठनों से मदद दिलाने वाले पुल का काम कर सकता है। पाकिस्तान ख़ुद बदनाम है इसलिए यह भूमिका अदा नहीं कर सकता। अमेरिका भी चाहता है कि भारत यह भूमिका अदा करे। रूस भी इसमें भारत का साथ देगा।
लेकिन चीन भारत की इस भूमिका की सबसे बड़ी रुकावट बन सकता है और पाकिस्तान पूरी कोशिश करेगा कि चीन यह काम करे। भारत की तुलना में काफ़ी मालदार होने के बावजूद चीन अभी तक अफ़ग़ानिस्तान में दान और निवेश के मामले में भारत से पीछे रहा है। लेकिन यह सूरत बदलने में देर नहीं लगेगी। चीन को अपने शियजियांग प्रांत के वीगर मुसलमानों में कट्टरपंथ फैलने की चिंता है। तालिबान सरकार से यह गारंटी मिलने के बदले में चीन कुछ भी करने के लिए तैयार होगा। इससे भारत को हाशिए पर रखने का पाकिस्तान का लक्ष्य भी पूरा होगा। चीन के साथ दान-प्रतियोगिता में तो भारत नहीं जीत सकता। लेकिन बरसों के काम से बनी अपनी साख और अफ़ग़ान लोगों के विश्वास के ज़रिए अपने निवेश और प्रभाव को बचाने की चेष्टा कर सकता है। तालिबान भी पूरी तरह पाकिस्तान पर निर्भर रहने के बजाय भारत को वैकल्पिक दोस्त बनाना चाहेंगे।
अभी यह सब अटकलबाज़ी है। लेकिन सितंबर तक और सितंबर में अमेरिका और नैटो देशों के लौट जाने के बाद हालात तेज़ी से बदल सकते हैं। अभी तक भारत तालिबान विरोधी दोस्तम और मसूद के उत्तरी मोर्चे के साथ संपर्क में रहा है। लेकिन उत्तरी सूबों में भी तालिबान के तेज़ी से फैलते क़ब्ज़े को देखते हुए अब लगता है कि तालिबान अपने बल-बूते पर नहीं तो अगली सरकार में सबसे ताक़तवर धड़ा तो ज़रूर बनेंगे। इसलिए उनके साथ सीधे संबन्ध बनाए बिना अफ़ग़ानिस्तान में काम नहीं चल पाएगा। अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के साथ रिश्ते बनाए बिना आतंकवाद और पाकिस्तान के इरादों पर अंकुश नहीं रखा जा सकेगा। देखना यह होगा कि तालिबान कैसी सरकार बनाते हैं और भारत को अपनी प्राथमिकताओं में कहाँ रखते हैं।