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दिलीप कुमार: वे कौंधती हुई आँखें, वह लरजती हुई आवाज़

दिलीप कुमार: वे कौंधती हुई आँखें, वह लरजती हुई आवाज़

अगर 'मुग़ल-ए-आज़म' में अकबर की भूमिका अदा कर रहे पृथ्वीराज कपूर की जलती हुई आँखों के मुक़ाबले सलीम बने दिलीप कुमार की कौंधती हुई निगाहें नहीं होतीं तो शायद फ़िल्म का जादू कुछ बुझ जाता।

वह एक बाग़ी शहजादा था जिसने अपनी मोहब्बत के लिए मुल्क की सल्तनत छोड़ दी थी और हिंदुस्तान के सबसे ताक़तवर बादशाह से टकराने की हिम्मत दिखाई थी। अगर 'मुग़ल-ए-आज़म' में अकबर की भूमिका अदा कर रहे पृथ्वीराज कपूर की जलती हुई आँखों के मुक़ाबले सलीम बने दिलीप कुमार की कौंधती हुई निगाहें नहीं होतीं तो शायद फ़िल्म का जादू कुछ बुझ जाता- इन्हीं निगाहों ने अनारकली यानी मधुबाला की सहमी हुई आँखों को वह राहत, तसल्ली और ताक़त दी जिसके बूते उसने कहा था- ‘यह कनीज हिंदुस्तान के बादशाह को अपने क़त्ल का जुर्म माफ़ करती है।’

अगर जीवन का मर्म समझें तो 100 साल को छूती उम्र में दिलीप कुमार का जाना शोक का विषय नहीं है। उन्होंने एक भरा-पूरा जीवन जिया। उनका जिस्म लगभग एक सदी का बोझ उठाते काफ़ी थक चुका था और उनकी रूह ने भी कटता-छंटता बदलता हिंदुस्तान देखा था। वे यूसुफ़ ख़ान से दिलीप कुमार बने और नए-नए आज़ाद हुए हिंदुस्तान की कल्पना पर छा गए। बँटवारे के बाद निर्देशक के. आसिफ़ जिस फ़िल्म को अगले बारह-तेरह बरस तक बहुत जतन से, तराश-तराश कर- बनाते रहे, वह दरअसल एक तरह से उस मध्यकालीन हिंदुस्तान की मिली-जुली संस्कृति का तहज़ीबी स्मारक भी थी जिसे बँटवारे ने सबसे ज़्यादा तोड़ा था।

लेकिन दिलीप कुमार ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के काफ़ी पहले बन चुके थे। पचास के दशक में आज़ाद हिंदुस्तान जिन नायकों की कहानियों में अपने सपने देखता रहा, उनमें भोले-भाले राज कपूर रहे, शहरी छैले देवानंद रहे, लेकिन सबसे ज़्यादा दिलीप कुमार रहे जिनकी अलग-अलग फ़िल्मों के नायकों के भीतर गाँवों से शहरों में आते हुए विस्थापन की खरोंच भी थी, मशीन से मुक़ाबले का जज़्बा भी था, अपने अंतर्द्वंद्व को पहचानने और उससे उबरने की तमीज़ भी थी और चालाकी और भोलेपन के बीच आने-जाने का सलीका भी था। 'नया दौर' में वह गाँव में आई बस के मुक़ाबले में अपना तांगा खड़ा करते हैं और गांव वालों की साझा मेहनत से एक नई सड़क बना डालते हैं। यह एक समाजवादी सपना था जिसके बीज उस दौर की कई फ़िल्मों में मिलते- और सबसे ज़्यादा दिलीप कुमार में खिलते- हैं।

दिलचस्प यह है कि तरह-तरह की भूमिकाएँ करने के बावजूद- जिनमें कुछ खिलंदड़ी भी थीं और नाच-गाने से भरपूर भी- दिलीप कुमार को ट्रैजेडी किंग की संज्ञा दी गई। यह शायद ‘देवदास’ जैसी फ़िल्मों का असर था जिसमें चंद्रमुखी और पारो के द्वंद्व में झूलता, लगभग मदहोशी में अपनी प्रेमिकाओं को पुकारता देवदास सबको याद रह गया। सच यह भी है कि उपन्यास के तौर पर देवदास शरतचंद्र का कमज़ोर उपन्यास है, लेकिन वह अपने प्रेम त्रिकोण की वजह से फ़िल्मकारों को खींचता रहा है। 

मगर जब विमल मित्र ने यह देवदास बनाई और दिलीप कुमार को नायक बनाया तो इस जोड़ी ने बताया कि एक साधारण सी कहानी के बीच एक दीवाने से किरदार को जैसे एक ट्रैजिक नायक में बदला जा सकता है।

इसके बरसों बाद अपनी बहुत सारी भव्यता के बावजूद संजय लीला भंसाली और शाहरुख खान की जोड़ी देवदास में वह कमाल पैदा नहीं कर सकी जो दिलीप कुमार करके चले गए थे। 

दरअसल, दिलीप कुमार ने अभिनय का एक अंदाज़ विकसित किया था। वे राज कपूर और देवानंद की तरह मैनरिज़्म वाले कलाकार नहीं थे, लेकिन वह अपनी आँखों और अपनी आवाज़ से एक असर पैदा करते थे। वह किरदार में खो जाते, लेकिन किरदार भी दिलीप कुमार में बस जाता। वह हमेशा दिलीप कुमार बने रहते, लेकिन साथ ही साथ सलीम भी, देवदास भी और फ़िल्म ‘आदमी’ का वह अपाहिज किरदार भी जो अपनी ईर्ष्या में अपने दोस्त को जान से मार डालने की सोचता है, लेकिन अंततः वापस लौटता है। बरसों बाद शाहरुख ख़ान ने ‘अंजाम’ में एक जुनूनी भूमिका करते हुए बताया कि उनके दौर के नायकों को इंसानियत नाम का यह कीड़ा कम काटता है।

 - Satya Hindi

बहरहाल, अभिनय की यह वह शैली थी जिसे दिलीप कुमार के बाद बहुत सारे अभिनेताओं ने आज़माना चाहा, लेकिन ठीक से बस अमिताभ बच्चन और शाहरुख ख़ान ही उतार पाए। किरदार और सितारे के बीच का वह लगभग असंभव सा संतुलन- जिसे दिलीप कुमार ने संभव किया था- साधना आसान भी नहीं था। फ़िल्म ‘शक्ति’ में जब वह अमिताभ के सामने खड़े होते हैं तो उनकी भेदती हुई आँखें जैसे अमिताभ के अभिनय का इम्तिहान ले रही होती हैं। अमिताभ ने कहीं कहा भी कि वे दिलीप कुमार के सामने ‘नर्वस’ हो जाते थे। यह बात फ़िल्म में भी दिखती है कि अमिताभ राखी के साथ के दृश्यों में जितने सहज और प्रभावी हैं, दिलीप कुमार के साथ के दृश्यों में कुछ कम से रह जाते हैं- जैसे उनके भीतर का कुछ अंश सूख गया हो।

दिलीप कुमार की कामयाब फ़िल्मों की सूची बहुत बड़ी है। जिस ‘ज्वार भाटा’ के साथ उन्होंने शुरुआत की, वह अगले दो दशकों तक हिंदी के सिनेमा-संसार में छाया रहा और बाद के वर्षों में भी अपना रंग दिखाता रहा। बहुत मामूली और फ़ॉर्मूला फ़िल्मों को भी उन्होंने अपनी मौजूदगी से कुछ अलग बना दिया। अस्सी के शुरुआत में बनी फिल्म ‘क्रांति’ में उनका अंदाज़ सबको याद रह गया। 

 

बेशक, कई तूफ़ान सबकी ज़िंदगी में आते हैं और दिलीप कुमार की ज़िंदगी में भी आए। लेकिन अक्सर उनकी शख़्सियत इन तूफ़ानों से बड़ी निकली। उन्हें पाकिस्तान ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ जैसा सम्मान दिया।

उन दिनों पाकिस्तान-विरोध को अपनी राजनीति का मूल तत्व बनाने वाली शिवसेना ने कहा कि दिलीप कुमार पाकिस्तान चले जाएँ, लेकिन दिलीप कुमार हिंदुस्तान में ही नहीं, मुंबई में ही रहे। सबको मालूम था कि जिस मुल्क में दिलीप कुमार के लिए जगह नहीं होगी, वह कोई और मुल्क होगा, हिंदुस्तान नहीं।

यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि दिलीप कुमार के निधन ने जैसे इस देश को एक दिन ठहर कर शोक मनाने को मजबूर कर दिया। यह शोक दिलीप कुमार के जाने का नहीं है, उस समृद्ध परंपरा के आख़िरी पाये के ढह जाने का है जिसने हमें हंसना-गाना, बोलना, मोहब्बत करना, रूठना, टूटना और फिर से बनना सिखाया, हमें इंसानियत भी सिखाई और नागरिकता भी। लेकिन इस पाये के तले एक परंपरा है, एक विरासत है जो बनी रहेगी, बची रहेगी।

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