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संसद को क्यों बनाया जा रहा धार्मिक नारे लगाने का अखाड़ा?

संसद को क्यों बनाया जा रहा धार्मिक नारे लगाने का अखाड़ा?

संसद में धार्मिक नारे लगाकर दूसरे दलों के नेताओं को चिढ़ाने की कोशिश किया जाना बेहद ग़लत है। देश में इससे पहले कभी ऐसा नहीं देखा गया था।

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को 2019 के लोकसभा चुनाव में मिली प्रचंड जीत के बाद संसद में आए नेताओं में उत्साह स्वाभाविक है। लोकसभा में साध्वी प्रज्ञा भी पहुँची हैं, जिन्होंने महात्मा गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त करार दिया था। उनके अलावा तमाम ऐसे सांसद हैं, जो विवादास्पद बयानों के सरताज रहे हैं। 2019 की लोकसभा कई मायनों में नई है, जो कई ख़तरनाक संकेत भी देने लगी है। देश के स्वतंत्र होने के बाद यह पहला मौक़ा है जब बड़े पैमाने पर संसद में धार्मिक नारे लगे हैं और सत्ता पक्ष के सांसद विपक्षी सांसदों को धार्मिक नारे लगाकर चिढ़ाते नज़र आए हैं।

संसद का सत्र शुरू होने के पहले दिन ही इन सांसदों की चाल, चरित्र और चेहरा सामने आ गया है। संसद का नज़ारा बदल चुका है। बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी महामानव और सबसे बड़े क़द के नेता बन चुके हैं। किसी जनसभा में बैठी जनता की तरह सांसदों ने संसद में मोदी-मोदी के नारे लगाए और सदन मोदीमय हो गया।

आइए, पहले बात करते हैं, मोदी-मोदी के नारे की। भारत का लोकतंत्र तीन प्रमुख खंबों पर टिका है - विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। तीनों का स्वतंत्र अस्तित्व माना गया है। विधायिका का आशय लोकसभा और राज्यसभा से है। लोकसभा और विधानसभा में जहाँ जनता अपने जनप्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है, वहीं राज्यसभा में ज़्यादातर सांसद राज्यों की विधानसभाओं के सदस्य चुनकर भेजते हैं।

लोकसभा और राज्यसभा के सांसद देश का क़ानून बनाने पर सदन में चर्चा करते हैं। विधायिका को इतने व्यापक अधिकार दिए गए हैं कि यह बहुमत से फ़ैसला करके देश के संविधान में उल्लिखित किसी भी क़ानून को पलट सकती है।

इसी विधायिका में से कार्यपालिका का शीर्ष नेतृत्व चुना जाता है। लोकसभा के लिए चुने गए सांसद अपना नेता चुनते हैं, जिसे राष्ट्रपति प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त करते हैं। जिस दल का बहुमत होता है, सामान्यतया उसी दल का नेता चुना जाता है। कई बार ऐसी स्थिति आती है कि किसी दल का बहुमत नहीं है तो तमाम दलों के सांसद मिलकर अपना नेता चुन लेते हैं और वह व्यक्ति प्रधानमंत्री बन जाता है। प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों का चयन करता है, जो ताक़तवर नौकरशाही के साथ सरकार चलाते हैं। वहीं, न्यायपालिका इन दोनों स्तंभों से अलग है। उसके सदस्यों के चयन की अपनी प्रक्रिया है, जिसका उल्लेख संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में किया गया है।

लोकसभा सांसद प्रधानमंत्री को चुनते हैं। लेकिन अब लोकसभा बौनी नज़र आ रही है। उसमें मोदी-मोदी के नारे गूंज रहे हैं। यह नारे सुनकर कहीं से ऐसा नहीं लग रहा है कि अब लोकसभा इतनी ताक़तवर रह गई है कि वह मोदी यानी कार्यपालिका के किसी अध्यादेश, किसी फ़ैसले या उसकी किसी गलत नीति पर चर्चा करके उसे पलट सके।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में भी निर्विवाद रूप से नेहरू न केवल भारत बल्कि विश्व के बड़े नेताओं में से एक थे। लेकिन कहीं ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि सांसदों ने संसद में नेहरू-नेहरू के नारे लगाए हों। यह स्थिति इंदिरा गाँधी के दौर में भी थी, जब कांग्रेस के नेता देवकांत बरुआ ने कहा था, ‘इंदिरा इज इंडिया’। बरुआ असम के कवि, स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में 3 बार जेल जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र थे।

‘इंदिरा इज इंडिया’ के नारे के बावजूद कहीं यह उल्लेख नहीं आया कि इंदिरा गाँधी के सदन में घुसते ही इंदिरा-इंदिरा के नारे लगने लगे हों। 1984 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत पाने वाले राजीव गाँधी के पक्ष में भी संसद में राजीव-राजीव के नारे लगाने का उल्लेख नहीं मिलता है। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यह उन्माद दिख रहा है। 

मोदी के सामने बीजेपी या आरएसएस में कोई इस क़द का नेता भी नहीं है जो यह कह सके कि व्यक्ति पूजा करके संसद की गरिमा कम न की जाए। और संभवतः मोदी भी इस नारे को या तो इंज्वाय कर रहे हैं, या ख़ुद ही यह नारे सदन में लगवा रहे हैं, जिससे वह संसद से ऊपर नज़र आएँ।

मोदी के सामने अब बीजेपी या आरएसएस में कोई इस क़द का नेता भी नहीं है जो यह कह सके कि व्यक्ति पूजा करके संसद की गरिमा कम न की जाए। और संभवतः मोदी भी इस नारे को या तो इंज्वाय कर रहे हैं, या ख़ुद ही यह नारे सदन में लगवा रहे हैं, जिससे वह देश की संसद से ऊपर नज़र आएँ।

इससे भी ख़तरनाक यह है कि भारत में धार्मिक लड़ाई की शुरुआत संसद में हो गई है। ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष और हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी जब शपथ लेने पहुँचे तो बीजेपी के सांसदों ने सदन में ‘जय श्री राम’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाने शुरू कर दिए। इसके जवाब में शपथ लेने के बाद ओवैसी ने भी सदन में जय भीम, जय मीम, नारा-ए- तकबीर अल्लाह हु अकबर और जय हिंद के नारे लगाए। ओवैसी ने यह भी याद दिलाया कि काश, आप लोगों को बिहार में बुखार से मारे गए बच्चों की मौत भी याद आ जाती।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ ओवैसी को चिढ़ाने के लिए ही ‘जय श्री राम’ के नारे लगाए जा रहे थे। मालेगाँव बम विस्फोट और आरएसएस के एक कार्यकर्ता की हत्या में आरोपी रह चुकीं सांसद साध्वी प्रज्ञा जब सदन में पहुँचीं तो सांसदों ने उनके स्वागत में ‘जय श्री राम’ के नारे लगाए।

बंगाल में तो ‘जय श्री राम’ शब्द राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को चिढ़ाने का शब्द बन गया है। उसके बाद यह संसद में भी पहुँच गया है। तृणमूल कांग्रेस के सांसद जब सदन में शपथ ले रहे थे तो बीजेपी के सांसद ‘जय श्री राम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगा रहे थे। तृणमूल सांसदों ने भी जवाबी कार्रवाई करते हुए ‘जय श्री राम’ का मुँहतोड़ जवाब ‘जय दुर्गा’ और ‘जय हिंद’ के नारे के साथ दिया।

18 जून 2019 (मंगलवार) का दिन सदन में धार्मिक तकरीरों और धार्मिक नारों से सांसदों को चिढ़ाने को लेकर इतिहास में दर्ज हो चुका है। अभी भारत में संविधान को माना जा रहा है, इसलिए प्रोटेम स्पीकर को दर्जनों बार शपथ के अतिरिक्त कोई और बात रिकॉर्ड में न डालने की बात दुहरानी पड़ी। हालाँकि अगर भारत इसी राह पर आगे बढ़ता है तो संविधान में बदलाव कर सदन में धार्मिक नारे लगाने या धार्मिक नारे के माध्यम से दूसरे धर्म या दूसरे दल से जुड़े नेताओं को चिढ़ाने का नियम भी बनाया जा सकता है।

दुनिया में बहुत से ऐसे देश हैं, जो धार्मिक आधार पर चल रहे हैं। इनमें पाकिस्तान, ईरान सहित कई नाम गिनाए जा सकते हैं। सोमालिया, सूडान, इजरायल जैसे देशों में धार्मिक आधार पर लगातार लड़ाईयाँ लड़ी जा रही हैं। भारत 18 जून 2019 की ऐतिहासिक तारीख के बाद अब किस दिशा में बढ़ता है, यह देखना बाक़ी है।

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