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धर्म प्रेम व धर्मांधता में अंतर ज़रूरी

धर्म प्रेम व धर्मांधता में अंतर ज़रूरी

धार्मिक आधार पर नफरत और लिंचिंग जैसे मामले क्यों आते हैं? क्या यह किसी भी रूप में धर्म प्रेम हो सकता है? क्या यह धर्मांधता नहीं है?

सभी धर्मों व विश्वास के मानने वाले वैसे तो अपने परिवार द्वारा संस्कारित व पैतृक विरासत में प्राप्त होने वाले अपने अपने धर्मों-विश्वासों-परंपराओं व रीति रिवाजों का ही अनुसरण करते हैं व उसी धर्म को ही सर्वश्रेष्ठ बताते हैं। सभी कहते हैं कि उन्हीं का धर्म, विश्वास व पंथ मानवता, दया, करुणा, परोपकार, प्रेम, सहृदयता, सेवा व सत्कार जैसे अनेकानेक गुणों का मार्ग दिखाता है। और निश्चित रूप से प्रत्येक धर्मों में अनेकानेक ऐसे धर्मगुरु भी हुए हैं और अब भी हैं जो धर्म की अच्छाइयों को प्रचारित प्रसारित कर एक अच्छा, मानवतावादी, सज्जन व धर्मभीरु धर्मावलंबी तैयार भी करते हैं।

किसी भी धर्म के लोग जब अपने अपने धर्म की विशेषतायें बयान करते हैं उस समय वे अपने ही धर्म गुरुओं अथवा पंथ के महापुरुषों के जीवन से जुड़े प्रायः ऐसे उदाहरण पेश करते हैं जिनमें मानवता व सदगुणों के दर्शन होते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि राम-बुद्ध-ईसा-मोहम्मद-नानक-महावीर आदि विभिन्न धर्मों से संबंधित इन या इन जैसे अनेक महापुरुषों ने धरती पर अपने अपने काल व समय में अपनी जीवन शैली, अपनी वाणी तथा अपने विचारों व कारगुज़ारियों से ऐसा प्रभाव छोड़ा जो आज उनके अनुयाइयों द्वारा अपनाये जाने वाले धर्मों-पंथों व विश्वासों के रूप में दिखाई भी दे रहा है।

परन्तु बड़े अफ़सोस की बात यह है कि इन्हीं धर्मों व पंथों में स्वयं को 'धार्मिक' ही नहीं बल्कि 'अति धार्मिक' बताने वाला एक ऐसा बड़ा वर्ग भी अपने पैर पसार चुका है जो 'धर्म के मर्म' का प्रचार प्रसार करने व इसके सबसे बड़े व महत्वपूर्ण यानी मानवतावादी पक्ष को प्रचारित करने व इसका सम्मान करने के बजाये इसमें धर्मान्धता, कट्टरवाद व अतिवाद जैसे अमानवीय पक्षों को शह दे रहा है। 

विश्व में मानवता व विश्व बंधुत्व का वातावरण बनाने के लिये जिन धर्मों-विश्वासों को एक दूसरे का पूरक व सहयोगी होना चाहिये, धर्म के ठेकेदारों ने उन्हीं धर्मों में एक दूसरे से श्रेष्ठ बताने जैसी प्रतिस्पर्धा पैदा कर दी है। एक दूसरे धर्मों की परंपराओं, रीति रिवाजों व मान्यताओं को ग़लत बताने, यहाँ तक कि उन्हें बुरा भला कहने व अपमानित करने तक की गोया होड़ लग चुकी है। और यही धर्मान्धता जब अपने उत्कर्ष पर पहुँचती है तो एक धर्म के व्यक्ति को किसी दूसरे धर्म के इंसान की जान-माल का दुश्मन बनते देर नहीं लगती।

धर्मान्धता, अतिवाद व कट्टरता की आग कहीं 'मॉब लिंचिंग' की राह हमवार करती है तो कहीं एक दूसरे के धर्मस्थलों पर हमले कराती है। कहीं किसी धर्म के आराध्य महापुरुषों की मूर्तियों व प्रतिमाओं को तोड़ कर या उनके धर्म ग्रंथों को जलाकर अतिवादी लोग अपने 'कट्टर धार्मिक' होने का सुबूत देते हैं।

सवाल यह है कि वास्तविक धर्म है क्या? वह जिसका मार्ग हमारे अर्थात विभिन्न धर्मों के महापुरुषों ने दिखाया या वह जिसका कुत्सित व भयावह रूप हमें जगह जगह आज दिखाई दे रहा है?

मिसाल के तौर पर गत 3 दिसंबर 2021 (शुक्रवार) को पाकिस्तान के सियालकोट में एक फ़ैक्ट्री के मज़दूरों ने अपने ही एक प्रबंधक को पहले तो दौड़ा दौड़ा कर ख़ूब पीटा, बाद में जब पीटने के दौरान उसकी मौत हो गई तो उसे भीड़ ने बीच सड़क पर ही जला दिया। कल्पना कीजिये वह कितना भयावह व वीभत्स दृश्य रहा होगा।

प्रियांथा कुमारा नामक यह मैनेजर श्रीलंकाई नागरिक था। प्रियांथा ने कुछ ही समय पूर्व सियालकोट में पाकिस्तान की टी-20 टीम के लिये सामग्री बनाने वाली इस फ़ैक्ट्री में निर्यात प्रबंधक के रूप में अपना पद भार संभाला था। उसी फ़ैक्ट्री में काम करने वाले मलिक अदनान ने अपनी जान पर खेल कर प्रियांथा को उन वहशियों से बचाने का पूरा प्रयास किया। इसके लिये मलिक अदनान को पाकिस्तान के गणतंत्र दिवस यानी 23 मार्च 2022  को प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के हाथों 'तमग़ा-ए-शुजात' से नवाज़ा जाएगा। तमग़ा-ए-शुजात पाकिस्तान में दिया जाने वाला चौथा सबसे बड़ा बहादुरी सम्मान है।

दिल दहलाने वाली इस घटना के बाद पाकिस्तान में प्रगतिशील सोच रखने वाले अनेक बुद्धिजीवियों, नेताओं, अधिकारियों व फ़िल्मी व सामाजिक लोगों द्वारा इस घिनौने कृत्य की निंदा भी की गयी। पाकिस्तान में इससे पहले भी इस तरह की घटनायें घटती रही हैं। कभी ईश निंदा के नाम पर तो कभी धार्मिक व वर्ग आधारित वैमनस्य के चलते।

स्वयं को इसलाम का 'रक्षक' समझने की ग़लतफ़हमी पालने वालों से यहां एक सवाल यह है कि यदि आज पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद जीवित होते तो क्या वह इस दुष्कृत्य को जायज़ ठहराते?

क्या वे स्वयं ऐसा आदेश इस भीड़ को देते की पीटो, ख़ूब पीटो और ज़िंदा जला दो? इस सवाल का उत्तर जानने के लिये मुहम्मद साहब के जीवन का सबसे प्रसिद्ध प्रसंग ही काफ़ी है।

मुहम्मद साहब जब प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व नमाज़ पढ़ने मसजिद में जाते थे तो एक यहूदी बुज़ुर्ग महिला जो एक ऊँचे टीले पर रहती थी और मुहम्मद साहब से चिढ़ती थी, वह मुहम्मद साहब के ऊपर कूड़ा फेंका करती थी। लंबे समय तक यह सिलसिला चला। न स्वयं मुहम्मद साहब ने उसे टोका न ही उनके अनुयाइयों ने उस बूढ़ी औरत से कुछ कहा। एक दिन जब टीले के ऊपर से कूड़ा नहीं आया तो मुहम्मद साहब उसी जगह रुक गये। बुज़ुर्ग महिला के बारे में पता किया तो पता चला कि वह बीमार है। वे टीले पर चढ़ कर उसके घर गये। वह बीमार अवस्था में मुहम्मद साहब को अपने पास देखकर घबरायी। वह मुआफ़ी मांगने लगी परन्तु मुहम्मद साहब ने उसके सिर के पास बैठ उसे शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की दुआयें दीं। बाद में मुहम्मद साहब के इस मानवतापूर्ण आचरण को देख उस यहूदी बुज़ुर्ग महिला ने इसलाम धर्म स्वीकार कर लिया।

इतना ही नहीं, जिस क़ुरआन शरीफ़ के झूठे सच्चे अपमान के आरोप के नाम पर इंसानों की जान लेने और दंगे फ़साद फैलाने का काम यही 'धर्म के स्वयंभू ठेकेदार' करते हैं, उसी क़ुरआन में तो यह लिखा है कि यदि तुमने किसी एक बेगुनाह का क़त्ल किया तो गोया तुमने पूरी मानवता का क़त्ल कर दिया। क़ुरआन शरीफ़ की यह आयत क्या इन जाहिलों ने नहीं पढ़ी है?

दुर्भाग्यवश हमारे देश में भी विभिन्न धर्मों में इसी मानसिकता के अतिवादी लोग मौजूद हैं। यहां भी कभी किसी धर्म विशेष के अकेले व्यक्ति को स्वयं को 'धार्मिक' बताने वाली अतिवादी भीड़ कभी पीट पीट कर मार देती है तो कभी ज़िंदा जला देती है। कभी किसी का हाथ काट दिया जाता है तो कभी किसी के धर्मस्थल व धर्मग्रन्थ को क्षति पहुँचाई जाती है। इस तरह के दुष्कृत्यों की धर्म प्रेमियों से तो उम्मीद नहीं की जा सकती। अतः धर्म प्रेम व धर्मांधता में अंतर करना ज़रूरी है।

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