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आरबीआई के पैसे से मंदी रुकेगी या 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था बनेगी?

आरबीआई के पैसे से मंदी रुकेगी या 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था बनेगी?

अभी तक सरकार ने फ़ाइव ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का राग अलापना छोड़ा नहीं है लेकिन जिस रफ़्तार से आरबीआई से पैसे लेने सहित आर्थिक फ़ैसले हो रहे हैं उनसे साफ़ लग रहा है कि सरकार मंदी के डर से परेशान है।

अभी तक सरकार ने दुनिया में सबसे तेज़ विकास दर और फ़ाइव ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का राग अलापना छोड़ा नहीं है लेकिन जिस रफ़्तार में आर्थिक फ़ैसले हो रहे हैं उनसे साफ़ लग रहा है कि सरकार मंदी के डर से परेशान है। कायदे से यह अच्छी बात होनी चाहिए, लेकिन फ़ैसलों की दिशा और चरित्र से लगता है कि सरकार इस अवसर का इस्तेमाल भी अमीरों और विदेश से हमारी अर्थव्यवस्था के सूत्र संचालित करने वालों के लाभ के लिए ही काम कर रही है। अभी भी अर्थव्यवस्था में जान लौटाने या हमारी ज़रूरतों के हिसाब से फ़ैसले लेने की बात दिखाई नहीं देती। संभव है जल्द ही कुछ और क़दमों की घोषणा हो पर बीते शुक्रवार को वित्त मंत्री द्वारा घोषित 3 क़दमों, रिज़र्व बैंक से 1.76 लाख करोड़ (यह रक़म आश्चर्यजनक रूप से कथित टू-जी घोटाले के नुक़सान के क़रीब जाती है) और फिर कैबिनेट द्वारा कोयला से लेकर अनेक क्षेत्रों में निवेश के द्वार खोलने तक से संकेत साफ़ हैं।

सरकार इस अवसर का उपयोग भी अपने अघोषित एजेंडे को चलाने में ही कर रही है जिसका नतीजा अमीर-ग़रीब के बढ़ते फासले के साथ ही यह मंदी भी है जिसमें अर्थव्यवस्था का हर क्षेत्र पस्त है और बेरोज़गारी अपने चरम पर है। निर्मला सीतारमण ने जिन क़दमों की घोषणा की उसके एक हिस्से को तो हम छोटे व्यापारियों को जीएसटी से हुई परेशानी से कुछ राहत और परेशानी वाले एक-दो क्षेत्र के उद्यमियों को लाभ देने वाला कह सकते हैं, लेकिन रिज़र्व बैंक से इतनी बड़ी रक़म लेने का अभी कोई ख़ास मतलब नहीं लगता। जब अर्थव्यवस्था डाँवाडोल हो तो केंद्रीय बैंक और मौद्रिक व्यवस्था को मज़बूत रहना और दिखना चाहिए। लेकिन जो ख़बरें आ रही हैं उनसे तो साफ़ लगता है कि जालान कमेटी के अंदर भी सरकारी प्रतिनिधि आख़िरी वक़्त तक क़रीब पचपन हजार करोड़ रुपए और देने की माँग कर रहे थे। 

ज़ाहिर है सरकार बेचैन है। और हम जब इस तथ्य पर ग़ौर करते हैं कि पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल (जिन्हें यही सरकार बहुत धूमधाम से लाई थी) और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य इसी सवाल पर अपना पद छोड़कर आए थे और गवर्नर रघुराम राजन से सरकार के टकराव की यह एक वजह थी। इस बार नोटबंदी वाले वित्त सचिव को गवर्नर बनवा कर सरकार ने अपनी चला ली। इस बारे में ख़ास उल्लेख ज़रूरी है कि जब बजट पेश हुआ था तो उसमें रिजर्व बैंक से 93 हज़ार करोड़ ही आने का अनुमान रखा गया था। ऐसे में सरकारी प्रतिनिधि राजीव कुमार द्वारा सवा दो लाख करोड़ रुपए माँगने का तर्क समझना मुश्किल है। 

रिज़र्व बैंक की ‘कमाई’ से पैसे लेना कोई पाप नहीं है। पहले की सरकारें भी ऐसा करती रही हैं- बल्कि रिज़र्व बैंक ख़ुद पैसे देता है। पर इतनी रक़म और इस तरह की वसूली पहली बार हुई है।

हम जानते हैं कि रिज़र्व बैंक पर अपनी मुद्रा को मज़बूत रखने और उस पर आनेवाली विपत्तियों का मुक़ाबला करने की ज़िम्मेदारी है। उसे अर्थव्यवस्था नहीं चलानी होती है। यह सरकार का काम है। सो अपनी विफलताओं और अर्थव्यवस्था की कमज़ोरी का भार रिज़र्व बैंक पर डालना ग़लत है, ख़ासकर मंदी और चीन-अमेरिका टकराव जैसे मुश्किल दौर में। अगर एक बार ज़्यादा बड़ा लोचा हुआ तो पूरी अर्थव्यवस्था धराशायी हो जाएगी। जब उसे मज़बूत रहना चाहिए तो अपनी ही सरकार उससे जबरन लगभग सवा लाख करोड़ ले रही है- पचास हज़ार करोड़ की देनदारी तो थी ही। मामला सिर्फ़ इसी एक मामले में बजट प्रावधान को भुलाने का नहीं है। जब निर्मला सीतारमण ने 33 क़दमों की घोषणा की तो उसमें भी पचास दिन से भी कम पहले पेश किए अपने बजट की ही ऐसी-तैसी की गई थी। तब अगर उनको मंदी की आहट नहीं सुनाई दे रही थी तो उनको अपनी योग्यता पर विचार करना चाहिए। पर ज़्यादा डरावनी चीज है सरकार द्वारा आमदनी और ख़र्च के सामान्य कायदों की परवाह न करना। 

चिंता की बात

बजट में ही सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का हिस्सा बेचकर एक लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा की रक़म (एक लाख तीन हज़ार करोड़) जुटाने का प्रावधान है। इसमें अगर तेल के दाम गिरने और उस पर कर बढ़ाकर की जा रही वसूली (जो पिछले काफ़ी समय से चल रही है) के पौने दो लाख करोड़ रुपए की रक़म जोड़ ली जाए तो सरकार की आर्थिक सोच और बदहाली दोनों साफ़ दिखेगी- यह सारी रक़म साढ़े पाँच लाख करोड़ रुपए से ऊपर चली जाती है। ऐसे में सरकार जब बड़ी-बड़ी रक़म लेती है और ऊँची-ऊँची घोषणा (जैसे प्रधानमंत्री ने लाल क़िले से इंफ्रास्ट्रक्चर पर एक लाख करोड़ रुपए ख़र्च करने की घोषणा की) और कोई टाइम लाइन या कार्यक्रम घोषित नहीं करती तो विपक्ष और रिज़र्व बैंक के पूर्व पदाधिकारियों की आशंकाओं को बल मिलता ही है। आख़िर घर का गहना भी बिके और खेत न ख़रीदा जाए, बेटी की शादी अच्छे घर में न हो, इलाज पर या बच्चों की अच्छी पढ़ाई पर ख़र्च न हो तो उस घर को बिगड़ा ही मानते हैं। गहना बिके और मौज-मस्ती तथा चमक-दमक पर ख़र्च हो तो घर बर्बाद ही होगा। और बर्बादी रोकने के नाम पर यह सब तो ज़्यादा चिंता की बात है।

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