'मानस' को प्रज्ञा से जानो, प्रलाप से नहीं...
तीन दशक पहले एक गीत आया था, ‘ठहरे हुए पानी में कंकड ना मार सांवरे मन में हलचल सी मच जाएगी'। इसने हलचल भी मचाया था। रामचरित मानस व रचयिता तुलसीदास को लेकर भाजपा सांसद संघमित्रा के पिता व समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्या ने भी राजनीतिक पोखर में ऐसा कंकड मारा है कि हलचल मच गई है। संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान ने तो प्याले में तूफान खड़ा कर दिया है।
डा अरुण प्रकाश ने कहा कि यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यह विद्वत्ता का आपद काल है। जहां विद्वत-विमर्श की प्रेरणा राजनीति से उठने लगी है। ऐसी परिस्थिति बनी है कि कुछ भी कहने को अब किसी मेरिट की आवश्यकता नहीं रही है। न ही ग्रंथों के अध्ययन, अनुशीलन व अभ्यास की आवश्यकता रही है। बल्कि, जिसके पास भीड़ है वह किसी भी विषय पर कुछ भी कह कर उसे मनवा सकता है। यह ऐसा वक्रजड़ युग है कि सीधी बातों को भी जब तक टेढ़ा करके ना कहा जाए उसे कोई समझने वाला नहीं।
विद्वत विषयों पर नेताओं की सहज आपत्ति बताती है कि जिसने भी यह कहा है कि मूढ़ों में गजब का आत्मविश्वास होता है, उसने ठीक ही कहा है। हालांकि, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ग्रंथों व प्रशस्त मान बिंदुओं पर आपत्ति करने वाले अज्ञानी ही नहीं कुटिल कामना के स्वामी भी होते हैं। उन्हें अज्ञानी कहने का अर्थ यह नहीं है कि वे सत्य से अनभिज्ञ हैं। बल्कि वह क्षणिक पदार्थवादी प्राप्तियां के लिए सत्य का भी विरूपण करने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए अज्ञानी हैं।
खैर, इन सब बातों का उन पर कोई असर होने वाला नहीं है। मैं ऐसी प्रकृति के लोगों को प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ न कहने का पक्षधर हूं। क्योंकि यह सब निरर्थक है। क्या ही, आपद कर्म हो कि विद्वान ऐसे लोगों को सफाई देते फिरें। वह भी ऐसे ग्रंथ के लिए जिसकी कथा उत्तर भारत के जन-जन ने जीवन में असंख्य बार सुनी है। उसपर कुछ कहने को शेष रह नहीं रह गया है। श्रीरामचरितमानस पर सब कुछ सब तरह से कहा जा चुका है। यदि उन्हें कुछ सीखना होता तो वह कहीं से भी उसे सीख सकते थे, जबकि ऐसा नहीं हुआ। अब वह हमारी प्रतिक्रिया से भला क्या सीखेंगे!
तब भी, जो लोग गोस्वामी तुलसीदास जी पर आक्षेप लगा रहे हैं और मानस की चौपाइयों पर आपत्ति जताकर तुलसीदास जी की निंदा कर रहे हैं, उन्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि तुलसीदास आप्तपुरुष हैं और उन्होंने द्रष्टा की तरह साक्षी भाव से ग्रंथ की रचना की है। उन्होंने इसका संकेत करते हुए कहा है कि यह भगवान शिव ने अपने मन में रच रखा था और अवसर आने पर उन्होंने पार्वती जी से कहा। शिव की उस रचना को साक्षी होकर के तुलसीदास जी सुन रहे हैं और लिख रहे हैं।
रामचरितमानस तुलसीदास का विचार नहीं है, वह एक द्रष्टा की दृष्टि है जो कि साक्षी भाव से बिना उसमें शामिल हुए और बिना प्रतिभागी हुए लिखा गया है। तुलसीदास के आप्तपुरुष रूप में स्वीकृति संपूर्ण विद्वत व संत समाज में है और इसके साथ ही उनके द्रष्टा वाली स्थिति को सबसे सम्मान मिला है। उदाहरण के लिए, रामचरितमानस में राजा प्रताप भानु का उल्लेख है जिसका शापित वंश नष्ट होकर रावण के कुल के रूप में उत्पन्न हुआ। जबकि बाल्मीकि जी ने ऐसे किसी राजा का उल्लेख नहीं किया है। चूंकि विद्वानों में तुलसीदास जी को आप्तपुरुष के रूप में स्वीकृति व सम्मान दिया है इसलिए मानस के इस कथानक को समादर मिला।
श्रीरामचरितमानस पर उठ रही आपत्तियों के बीच सबसे हास्यास्पद पक्ष, कथित तौर पर गोस्वामी जी के व श्रीरामचरितमानस के समर्थकों की सफाई है। कोई यह कह कर बचाव कर रहा है कि उक्त चौपाई समुद्र की अभिव्यक्ति है। कोई चौपाई में प्रयुक्त शब्दों का रूपांतरण कर दे रहा है, तो कोई कथित तौर पर आपत्तिजनक शब्द के मनमाने अर्थ दे रहा है। जबकि, द्रष्टा की अभिव्यक्ति सहमति-असहमति से परे होती है। यह सब तर्क देने की आवश्यकता ही नहीं है। बचाव में मनमाने अर्थ व तर्क देने से भविष्य में नई भ्रांतियां उठेंगी।
समीक्षा प्रज्ञा से होती है, प्रलाप से नहीं। मानस को प्रज्ञा से ही जाना जा सकता है। मनुष्य आज तक अपने मन को नहीं जान पाया है, जबकि श्रीरामचरितमानस मन की सर्वोच्च प्राप्ति की अभिव्यक्ति है। उसे बुद्धिवादी व पदार्थवादी चिंतन से नहीं समझा जा सकता है। अलबत्ता राजनीतिक बयानों से यदि किसी के भोले मन में संदेह उठा हो तो उसे संकेत किया जा सकता है।
जिस चौपाई पर आपत्ति की जा रही है उसमें ‘ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी को सकल 'ताड़ना' का अधिकारी कहा गया है। आपत्ति यहीं ताड़ना के अर्थ को लेकर है। मैं इसपर सीधे कुछ कहने के बजाय संकेत कर रहा हूं। एक दोहा है-, ‘चरण धरत चिंता करत, चितवत चारों ओर/ सुबरन को खोजत फिरत, कवि व्यभिचारी चोर।’ अब यहां चोर के लिए तो ठीक है कि वह प्रत्येक पग के साथ सजग होकर चारों ओर देखता है और फिर स्वर्ण की तलाश में आगे बढ़ता है। लेकिन क्या कवि व व्यभिचारी के लिए चरण और सुबरन के यही अर्थ लिए जा सकते हैं? बल्कि, कवि के चरण का अर्थ हुआ पद का हिस्सा। वह एक पद रखता है, फिर सोचता और सुबरन यानि अच्छे वर्णों को खोजता है। व्यभिचारी के संदर्भ में सुबरन का अर्थ अच्छा वर होता है।
संकेत यह है कि मानस की उक्त चौपाई में ताड़ना का अर्थ वहां उल्लिखित अवयवों के लिए भिन्न होगा। ध्यान देने वाली बात यह है कि ताड़ना के पहले सकल शब्द का प्रयोग हुआ है। सकल, सम्यकता व संपूर्णता के लिए प्रयुक्त होता है। विचार करना चाहिए कि ताड़ना यदि सिर्फ हिंसा के अर्थ में है, हिंसा सम्यक कैसे हो सकती है? दूसरी बात, दंड भोगने वाले का नहीं, देने वाले का अधिकार है। पाने वाले के लिए तो वह नियति होती है।
मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि यह सब कोई सफाई नहीं है, बस संकेत है उनके लिए जिनके मन में संदेह है और जो जिज्ञासु भी हैं। यह सब बातें उनके लिए नहीं हैं, जो अपनी धारणा के बोझ से दबे हैं और वह उस भार से तनिक बाहर नहीं देख सकते।