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छत्तीसगढ़ में लुढ़क गए चाउर वाले बाबा

छत्तीसगढ़ में लुढ़क गए चाउर वाले बाबा

छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने जनता के मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय मुफ़्त चीजें बाँटने पर ध्यान दिया। इसके अलावा पार्टी की भावनात्मक मुद्दों के सहारे जीतने की कोशिश भी फ़ेल हो गई।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह आदिवासियों और ग़रीब लोगों के बीच चाउर वाले बाबा के नाम से मशहूर हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही रमन सिंह अत्यंत ग़रीब लोगाें और आदिवासियों को दो रुपये किलो के हिसाब से चावल देते आ रहे हैं। BJP ने सस्ता राशन को चुनाव जीतने का अचूक हथियार मान लिया था। इसलिए सरकार का पूरा ध्यान मुफ़्त चीज़ें बाँटने पर केंद्रित हो गया था। 2018 के नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि मुफ़्त और सस्ती चीज़ों का बँटवारा करके बहुत लंबे समय तक सत्ता में नहीं रहा जा सकता है।

रोज़गार, नक्सलवाद पर फ़ेल रही सरकार

रमन सिंह की सरकार रोज़गार और नक्सलवाद से निपटने के मुद्दे पर असफल साबित हुई है। 2003 में जब पहली बार BJP सत्ता में आई थी तब छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी समस्याओं में एक नक्सलवाद भी था। ज़मीनी तौर पर देखा जाए तो नक्सलवाद यहाँ के आदिवासियों की घोर ग़रीबी और जंगल आधारित उद्योगों में आदिवासियों के शोषण से उपजा था। रमन सरकार ने इन दोनों मोर्चों पर कोई ठोस काम नहीं किया। छत्तीसगढ़ के जंगलों का एक मुख्य उत्पाद तेंदू पत्ता आज भी उद्योगपतियों और बिचौलियों के हाथ में है।उम्मीद की जा रही थी कि तेंदू पत्ता तोड़ने वाले स्थानीय आदिवासियों का शोषण रोकने और उनकी आमदनी बढ़ाने की दिशा में सरकार ठोस क़दम उठाएगी। लेकिन रमन सरकार इस मुद्दे पर फिसड्डी साबित हुई है। सस्ता चावल और कुछ अन्य राशन देकर उन्हें चुप रखने की कोशिश ज़रूर की गई। युवा आदिवासी इससे संतुष्ट नहीं हुए तब बंदूक के बल पर उनकी आवाज़ दबाई जाती रही।

नहीं मिली फ़सल की सही क़ीमत

देश के अन्य हिस्सों की तरह छत्तीसगढ़ के किसानों को भी उनकी फ़सल का लाभकारी मूल्य नहीं मिला। इसके चलते किसानों की नाराज़गी अंदर ही अंदर ज्वालामुखी की तरह सुलगती रही। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौर में ग्रामीण रोज़गार के लिए जितने भी काम शुरू हुए थे वो सब पिछले साढ़े चार सालों से ढीली-ढाली अवस्था में हैं। ग्रामीण मज़दूर और ग़रीब किसान रोज़गार योजनाओं में से जो कमाई कर पाते थे वो भी बंद हो गया है।

गाय और राम का मुद्दा फ़ेल

ऐसा नहीं है कि बीजेपी को अपनी असफलताओं का एहसास नहीं है, है, लेकिन विकास की योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करने की जगह से पार्टी नेतृत्व गाय और राम को सुलगाता रहता है। विधानसभा चुनावों से पहले गोरक्षा और राम मंदिर को सबसे बड़ा भावनात्मक चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की गई है। नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि भावनात्मक मुद्दे तभी चलते हैं जब पेट भरा हाे। गाय और राम का मुद्दा छत्तीसगढ़ में नकार दिया गया।  

बीजेपी से नाराज़ हैं लोग

पिछले 15 सालों में छत्तीसगढ़ में बीजेपी का संगठन निश्चित तौर पर मज़बूत हुआ है जबकि कांग्रेस संगठन के तौर पर कमज़ोर हुई है। कांग्रेस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी पार्टी से अलग होकर अपनी नई पार्टी के साथ चुनाव मैदान में आए। बहुजन समाज पार्टी और कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन करके अजीत जोगी चुनाव मैदान में उतरे  तो राजनीतिक पंडितों ने उन्हें कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती बताया। इसके बावजूद कांग्रेस का शानदार प्रदर्शन साबित करता है कि छत्तीसगढ़ के लोग बीजेपी की सरकार और उनकी नीतियों से वाक़ई नाराज़ हैं।

चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में आम जनता के मूड को समझा नहीं गया, इसलिए कई चैनल और अख़बार रमन सिंह और बीजेपी को ही अजेय बताते रहे। मीडिया में रमन सिंह का डंका बज रहा था पर ख़ामोश मतदाता अपना मन बना चुका था। छत्तीसगढ़ के नतीजे साफ़ संकेत देते हैं कि बीजेपी के लिए गाय और राम जैसे भावनात्मक मुद्दों के सहारे चुनावी जीत मुश्किल होती जाएगी। जिन राज्यों में उनकी सरकार है वहाँ विकास के आधार पर उसे परखा जाएगा। इन चुनावों का असर 2019 के लोक सभा चुनावों पर भी निश्चित तौर पर पड़ेगा। देश में जुमलाबाज़ी ज़्यादा समय तक नहीं चल सकती।

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