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शर्म-निरपेक्ष राजनीति के सहारे जारी है 'कांग्रेस-मुक्त भारत’ अभियान

शर्म-निरपेक्ष राजनीति के सहारे जारी है 'कांग्रेस-मुक्त भारत’ अभियान

कोरोना के चलते देश-दुनिया के बाज़ारों में अभूतपूर्व मंदी है लेकिन भारत की राजनीतिक मंडी में जनप्रतिनिधियों की ख़रीद-फ़रोख़्त का क़ारोबार अबाध गति से जारी है। 

कोरोना के चलते देश-दुनिया के बाज़ारों में अभूतपूर्व मंदी है लेकिन भारत की राजनीतिक मंडी में जनप्रतिनिधियों की ख़रीद-फ़रोख़्त का क़ारोबार अबाध गति से जारी है। विधायकों की क़ीमतों में ज़बर्दस्त उछाल देखने को मिल रहा है। कोरोना काल में ही चार महीने पहले मध्य प्रदेश से शुरू हुआ कांग्रेस विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त का खेल गुजरात होते हुए अब राजस्थान पहुँच गया है। 

चूँकि सरकार कोरोना नियंत्रण को अपनी प्राथमिकता सूची में नीचे धकेल चुकी है, इसलिए जनता भी अब संक्रमण के बढ़ते मामलों और उससे होने वाली मौतों के आँकड़ों को शेयर बाज़ार के सूचकांक के उतार-चढ़ाव की तरह देखने की अभ्यस्त हो रही है। 

केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी की प्राथमिकता अब विपक्ष शासित राज्य सरकारों को अस्थिर करना, राज्यसभा में किसी भी तरह अपना बहुमत कायम करना और कुछ ही महीनों बाद बिहार तथा बंगाल विधानसभा चुनाव तथा मध्य प्रदेश और गुजरात में विधानसभाओं की कई सीटों के उपचुनाव की तैयारी करना है। इन सभी उपक्रमों का लक्ष्य एक ही है- कांग्रेस या कि विपक्ष मुक्त भारत। बीजेपी का यह कोई दबा-छुपा लक्ष्य नहीं है। इसका एलान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छह साल पूर्व अपने पहले कार्यकाल के शुरुआती दौर में ही कर दिया था और इसको अंजाम देने का ज़िम्मा संभाला था पार्टी अध्यक्ष के रूप में अमित शाह ने। उन्होंने पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद एक नहीं, कई बार सार्वजनिक तौर पर कहा कि हम देश के राजनीतिक नक्शे से कांग्रेस का नामोनिशान मिटा देंगे।

ऐसा नहीं है कि विपक्षी दलों की सरकारों को दलबदल के ज़रिए गिराने या उन्हें किसी न किसी बहाने बर्खास्त करने का अनैतिक और असंवैधानिक काम कांग्रेस के जमाने में नहीं हुआ हो। कांग्रेस के शासनकाल में भी यह खेल ख़ूब खेला गया। लेकिन बीजेपी अपने लक्ष्य को हासिल करने के सिलसिले में जो हथकंडे अपना रही है और जिस तरह तमाम संस्थाओं और एजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है, उससे कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व के पूर्वजों द्वारा अपनाए गए सभी तौर तरीक़ों की 'चमक’ फीकी पड़ गई है।

इस समय बीजेपी के निशाने पर राजस्थान की कांग्रेस सरकार है। वहाँ कांग्रेस के 24 विधायकों ने बीजेपी पर राज्य सरकार को अस्थिर करने की साज़िश रचने का आरोप लगाया है।

विधानसभा में कांग्रेस के मुख्य सचेतक महेश जोशी ने इस सिलसिले में स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप और एंटी करप्शन ब्यूरो के प्रमुख को एक शिकायत दी है जिसमें कहा गया है कि बीजेपी मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात और महाराष्ट्र की तरह मध्य प्रदेश में भी विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करने की कोशिश कर रही है। जोशी ने शिकायत में लिखा है कि कांग्रेस के और सरकार को समर्थन दे रहे निर्दलीय विधायकों को बीजेपी पैसे का लालच दे रही है। यह शिकायत बीजेपी के दो नेताओं के बीच हुई बातचीत के आधार पर दर्ज की गई है। इस शिकायत के आधार पर स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप और राजस्थान पुलिस ने एफ़आईआर दर्ज कर ली है। इस सिलसिले में बीजेपी के दोनों नेताओं को पूछताछ के लिए हिरासत में लिया गया है।

पिछले महीने राज्यसभा चुनाव के पहले भी बीजेपी की ओर से राजस्थान में एक अतिरिक्त सीट जीतने के मक़सद से इसी तरह कांग्रेस विधायक दल में तोड़फोड़ की कोशिश की गई थी जो कि नाकाम रही थी। 

उस समय कांग्रेस ने निर्दलीयों सहित अपने सभी विधायकों को बीजेपी से बचाने के लिए जयपुर के एक रिसॉर्ट में ठहराया था। तब भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आरोप लगाया था कि बीजेपी ने कांग्रेस और निर्दलीय विधायकों को 25-25 करोड़ रुपए का ऑफ़र दिया है।

मध्य प्रदेश में 22 विधायकों ने पाला बदला

हालाँकि उस समय बीजेपी राजस्थान में तो कांग्रेस के किसी विधायक को नहीं तोड़ पाई थी लेकिन मध्य प्रदेश और गुजरात में वह बड़े पैमाने पर दलबदल कराने में सफल हो गई थी। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के 22 विधायक इस्तीफ़ा देकर बीजेपी में शामिल हो गए थे जिसकी वजह से कांग्रेस को न सिर्फ़ राज्यसभा की एक सीट का नुक़सान हुआ था बल्कि उसकी 15 महीने पुरानी सरकार भी गिर गई थी। इसी तरह का खेल गुजरात में भी दोहराया गया था। वहाँ भी राज्यसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के आठ विधायक कांग्रेस से इस्तीफ़ा देकर बीजेपी में शामिल हो गए थे जिसकी वजह से बीजेपी राज्यसभा की एक अतिरिक्त सीट जीतने में सफल हो गई थी। ऐसी ही कोशिश झारखंड में भी की गई थी, लेकिन वहाँ सफलता नहीं मिली थी। 

मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान की घटनाएँ तो अभी हाल की हैं। इससे पहले बीते छह सालों के दौरान उत्तराखंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, गोवा, महाराष्ट्र और कर्नाटक में भी बड़े पैमाने पर कांग्रेस के विधायकों से दल बदल करा कर सरकारें गिराने-बनाने का खेल खेला जा चुका है।

हालाँकि महाराष्ट्र में तो बाज़ी दो दिन में ही पलट गई और बीजेपी के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को इस्तीफ़ा देना पड़ा। ऐसी ही कोशिश सिक्किम में भी की गई थी लेकिन नाकाम रही। फिर भी वहाँ विधानसभा के चुनाव में खाता न खुल पाने के बावजूद 32 सदस्यीय विधानसभा में सिक्किम डेमोक्रेटिक फ़्रंट के 15 में से 10 दस विधायकों से दलबदल कराकर विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल की हैसियत तो बीजेपी ने हासिल कर ही ली।

इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उस धमकी का उल्लेख करना भी लाजिमी होगा जो पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल की एक चुनावी रैली के मंच से उन्होंने ममता बनर्जी को दी थी। उन्होंने कहा था, 'ममता दीदी, कान खोल कर सुन लो, आपके 40 विधायक मेरे संपर्क में हैं।’

विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त के ज़रिए जहाँ राज्यों में सरकारें बनाने-गिराने का खेल खेला गया, वहीं राज्यसभा में पहले सबसे बड़ी पार्टी बनने के लिए और फिर बहुमत के नज़दीक पहुँचने के लिए विपक्षी दलों के सांसदों से भी इस्तीफ़ा करा कर दल बदल कराया गया और फिर उन्हें उपचुनाव में बीजेपी के टिकट पर राज्यसभा में भेजा गया। इस सिलसिले में कांग्रेस ही नहीं बल्कि समाजवादी पार्टी, तेलुगू देशम पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल के सांसदों को भी तोड़ा गया।

कहने की आवश्यकता नहीं कि मोदी-शाह की जोड़ी ने सत्ता में आने के बाद कांग्रेस मुक्त भारत बनाने का जो एलान किया था, उस दिशा में उन्होंने बड़े मनोयोग से काम भी किया है। 

उन्हें स्वाधीनता संग्राम के धर्मनिरपेक्षता जैसे संवैधानिक मूल्य से भले ही नफ़रत हो और वे जब-तब उसकी खिल्ली उड़ाते हों, मगर शर्म-निरपेक्षता से उन्हें कतई परहेज नहीं है। उनके सारे प्रयासों को देखकर यह भी कहा जा सकता है कि वे 'एक देश-एक पार्टी’ के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहे हैं।

यह विडंबना ही है कि देश की संसदीय राजनीति में व्याप्त दलबदल की बीमारी पर नियंत्रण पाने के लिए कांग्रेस की सरकार ने ही 1985 में दलबदल निरोधक क़ानून संसद से पारित कराया था लेकिन वह क़ानून तिल-तिल कर मरता जा रहा है और दलबदल के खेल का सबसे ज़्यादा शिकार कांग्रेस ही हो रही है।

बहरहाल, इस सिलसिले में कांग्रेस से सवाल पूछा जाना लाजिमी है कि आमतौर पर आख़िर उसके ही विधायक यहाँ-वहाँ बड़ी संख्या में क्यों टूटते या बिकते हैं कांग्रेस के विधायक सिर्फ़ उन्हीं राज्यों में नहीं टूट रहे हैं जहाँ पार्टी विपक्ष में है बल्कि जिन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में है वहाँ भी उसके विधेयक बिकने के लिए तैयार हैं। इस स्थिति की आख़िर क्या वजह है 

पिछली सदी के आख़िरी दशक में गुजरात में शंकर सिंह वाघेला की बग़ावत के चलते अपने विधायकों को रिसॉर्ट में ले जाकर छुपाने की जो शुरुआत बीजेपी ने की थी, वह फ़ॉर्मूला आज कांग्रेस को आए दिन किसी न किसी राज्य में आजमाना पड़ रहा है।

यह नहीं कहा जा सकता कि बीजेपी इस समय केंद्र की सत्ता पर काबिज है और मोदी-शाह के ख़ौफ़ की वजह से किसी की हिम्मत नहीं हो रही है कि वह बीजेपी के विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करे या किसी राज्य में बीजेपी विधायकों का कोई समूह अपनी पार्टी से बग़ावत करने की सोचे। ज़्यादा पीछे की बात न करें तो जब पार्टी पर मोदी-शाह की कमान नहीं थी और केंद्र में दस साल तक कांग्रेस की सरकार थी तब भी एकाध छोटे-मोटे अपवाद को छोड़ दें तो कोई मिसाल नहीं मिलती कि बीजेपी ने कभी शिकायत की हो कि उसके विधायकों या सांसदों को खरीदने की कोशिश की जा रही है।

कांग्रेस और बीजेपी के बीच यह फर्क बताता है कि गाँधी परिवार का नेतृत्व भले ही कांग्रेस की एकता का आधार हो मगर अब उस सर्वस्वीकार्य नेतृत्व की भी पार्टी पर पकड़ पहले जैसी नहीं रह गई है। ऐसे में अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अगर कांग्रेस का नेतृत्व गाँधी परिवार से इतर किसी और नेता के हाथ में आ जाए तो पार्टी की स्थिति क्या होगी

कुछ सवाल ऐसे हैं जिनसे कांग्रेस भी मुँह नहीं मोड़ सकती।

अहम सवाल है कि क्या कांग्रेस नेतृत्व ने अपने सांसदों, विधायकों और आम कार्यकर्ताओं को वैचारिक प्रशिक्षण देने के लिए कभी कोई कार्यक्रम चलाया

क्या पार्टी में ऐसी कोई व्यवस्था बनाई गई है जिसके तहत पार्टी के विधायकों और सांसदों का अपने शीर्ष नेतृत्व से सतत संपर्क बना रहे और वे अपनी कोई शिकायत या सुझाव पार्टी नेतृत्व को दे सकें

इन सवालों के जवाब तलाशने के साथ ही कांग्रेस को अपने यहाँ प्रत्याशी चयन की प्रकिया पर भी पुनर्विचार करना चाहिए।

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