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राहुल की सभा में क्यों नहीं आए निरुपम-देवड़ा?

राहुल की सभा में क्यों नहीं आए निरुपम-देवड़ा?

दो लोकसभा चुनाव में हार से पस्त कांग्रेस के नेता संभलने के बजाय गुटबाज़ी में उलझे हुए हैं। महाराष्ट्र में तो हालात बेहद ख़राब हैं।

राजीव गाँधी जब 1989 में चुनाव हार गए थे तो  उसके बाद एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि उनकी नज़र में उनके कार्यकाल की दो सबसे बड़ी ग़लतियां क्या थीं। राजीव गाँधी ने जो जवाब दिया वह अप्रत्याशित था। राजीव ने कहा कि पहली गलती शरद पवार की पार्टी कांग्रेस (एस) का कांग्रेस में विलय करना और दूसरी जम्मू-कश्मीर में फ़ारुक़ अब्दुल्ला के साथ सरकार बनाना। राजीव गाँधी ने दोनों बातों का स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि कांग्रेस और कांग्रेस (एस) महाराष्ट्र की सबसे बड़ी राजनैतिक ताक़तें थीं। जब दोनों मिल गईं तो विपक्ष की जगह ख़ाली हो गई और इस शून्य को भरने के क्रम में बीजेपी और शिवसेना मज़बूत हो गईं जो तब तक महाराष्ट्र में हाशिये की ताक़तें थीं। 

इसी तरह जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ़्रेंस के मिल जाने से विपक्ष ही नहीं रहा और और इस ख़ाली जगह को उग्र अलगाववादियों ने हथिया लिया। लेकिन राजीव गाँधी की इस सीख से कांग्रेस के नेताओं ने कुछ सीखा हो, यह नज़र नहीं आता? 

हाशिये पर पहुंचीं कांग्रेस-एनसीपी

पिछले दो लोकसभा चुनावों और एक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का महाराष्ट्र में प्रदर्शन सबसे निम्न स्तर का रहा है। भारतीय जनता पार्टी, उसकी सहयोगी शिवसेना और अन्य छोटे दलों ने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को हाशिये पर पहुंचा दिया। लेकिन विगत पांच साल में भी ये दोनों पार्टियां विपक्ष के स्थान को भर नहीं पायीं। 

कांग्रेस-एनसीपी की तरफ़ से महाराष्ट्र सरकार के ख़िलाफ़ कोई बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा किया गया। इन दोनों विपक्षी दलों से ज़्यादा आक्रामक विपक्ष की भूमिका शिवसेना ने निभायी और पांच साल सत्ता में साथ रहते हुए उसने सरकार की नीतियों की आलोचना की।

ऐसा लगता है कि राजीव गाँधी के उस जवाब से ज़्यादा सीख शिवसेना-बीजेपी के नेताओं ने ली तथा सत्ता और विपक्ष दोनों ही भूमिका में ख़ुद ही खड़े होकर कांग्रेस-एनसीपी को राजनीति के हाशिये पर धकेल दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस-एनसीपी का जनता से रिश्ता टूटता चला गया और नतीजा यह निकला कि चुनाव से पूर्व दल-बदल की भगदड़ मच गयी। ज़मीन से कट चुके नेता जीत के लिए बीजेपी- शिवसेना के संगठन पर भरोसा कर पाला बदलने लगे। 

मुंबई प्रदेश कांग्रेस में गुटबाज़ी

लोकसभा चुनावों के बाद मची भगदड़ के बाद एनसीपी के प्रमुख शरद पवार ने तो पार्टी को नए सिरे से खड़ी करने की कोशिशें तेज कर दीं लेकिन कांग्रेस में जो नेता बचे रहे, वे संगठन को मजबूत करने के बजाय गुटबाज़ी में व्यस्त हो गए। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मुंबई प्रदेश कांग्रेस का है, जहां संजय निरुपम-मिलिंद देवड़ा के बीच गुटबाज़ी पार्टी प्लेटफ़ॉर्म से उठकर सोशल मीडिया पर छा गई है। इसी गुटबाज़ी का एक बड़ा चेहरा उस समय सामने आया जब पार्टी से लोकसभा का चुनाव लड़ चुकीं फ़िल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर ने पार्टी छोड़ दी। 

मुंबई प्रदेश कांग्रेस की गुटबाज़ी के लिए कहीं ना कहीं कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व भी जिम्मेदार है। देवड़ा और निरुपम दोनों ही राहुल गाँधी के करीबी हैं और दोनों बिना झुके चुनावों के ऐन मौक़े पर संगठन को मजबूत करने के बजाय उसे कमजोर कर रहे हैं।

विधानसभा चुनावों में टिकट बंटवारे के दौरान बात नहीं सुने जाने पर संजय निरुपम फिर एक बार गुटबाजी की लड़ाई को सोशल मीडिया पर घसीट लाये। फिर भी कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा इस मामले में कितना दख़ल दिया गया है, यह इस बात से ही पता चलता है कि रविवार को राहुल गाँधी ने मुंबई में दो चुनावी सभाओं को सम्बोधित किया लेकिन एक में भी निरुपम और देवड़ा नजर नहीं आये। 

संजय निरुपम ने तो महाराष्ट्र प्रभारी मल्लिकार्जुन खड़गे पर ही आरोपों की झड़ी लगा दी थी और कहा था कि खड़गे के होते हुए कांग्रेस को हराने के लिए किसी और दल की ज़रूरत ही नहीं है। साथ ही निरुपम ने एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा किया है जिससे कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी प्रभावित हो सकता है। कांग्रेस ने महाराष्ट्र के चुनावों पर निगरानी रखने के लिए समन्वयक के रूप में ज्योतिरादित्य सिंधिया को नामित किया था लेकिन सिंधिया मध्य प्रदेश में ही गुटबाज़ी में उलझे पड़े हैं। 

निरुपम ने हरियाणा और अपना उदाहरण देते हुए कहा था कि हाईकमान उन नेताओं को ज़्यादा निशाने पर ले रहा है जो राहुल गाँधी के करीबी रहे। इस सवाल से निरुपम ने राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी की अलग-अलग कांग्रेस का बीज बोने की कोशिश की है। यदि इस आरोप में कुछ सत्यता है तो फिर कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर एक नए द्वंद्व का सामना करना पड़ेगा। लेकिन महाराष्ट्र से कांग्रेस को जो सबक लेने की ज़रूरत है वह विपक्ष के रिक्त स्थान को भरने की है। संख्या बल के हिसाब से भले ही पार्टी लोकसभा में विपक्ष के नेता का आधिकारिक पद हासिल करने में विफल रही हो लेकिन जनता के बीच उतरकर उसे विपक्ष की तरफ़ खड़ा तो होना ही पड़ेगा।     

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