किसी ने सोचा भी न था कि नए “राहुल गाँधी” या वह राहुल गाँधी जो “भारत पद-यात्रा” के बाद एक नए अवतार में हैं, भाजपा के मर्मस्थल पर इतना करारा प्रहार करेंगे जिसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे “योद्धा” भी झेल नहीं पायेंगे। चुनाव परिणाम और तज्जनित संसदीय केमिस्ट्री में बदलाव ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को ही नहीं स्पीकर को भी सकते में डाल दिया है। अब संसद में पिछली संसद जैसी सत्ता-पक्ष की मनमानी का जवाब उससे ज्यादा समेकित ऊँचे स्वर में विपक्ष दे रहा है।
एक सदन के सभापति तो “चेयर का अपमान किया जा रहा है” का आरोप लगा कर बाहर चले गए। कुछ ही महीने पहले यही दोनों सदन थे, यही सभापति और स्पीकर थे जब कम संख्या में और बंटे विपक्ष को बिल पास करने के दौरान बाहर निकाल दिया जाता था। सदन में बाएं हाथ से हिकारत के भाव में विपक्ष के सदस्यों को “चुप बैठ-ओओओ” की डांट अब पीठासीन अधिकारी देते भी हैं तो पचासों विपक्षी एमपी “पहले उनको चुप कराओ“ के काउंटर से उनकी निष्ठा पर प्रश्न-चिन्ह लगाते हैं। धीरे-धीरे विपक्ष को संसद में “स्पेस” मिलने लगा है।
लेकिन जो बात मोदी को नागवार गुजर रही है वह है राहुल का उनकी छद्म-नीति को क्रूड लेकिन व्यंग्यात्मक भाव में उजागर करना। राहुल द्वारा “मोदी जी बायोलॉजिकल नहीं हैं; इनकी तो भगवान से डायरेक्ट बात होती है” का जुमला बगैर चेहरे पर हंसी लाये संसद में कहना सामने बैठे मोदी की ओछी राजनीति की कई परतें एक साथ खोलता है। चुनाव के पहले मोदी की कोशिश थी कि आदतन राजा में “ईश्वरीय अंश” देखने वाली जनता उन्हें भी देवत्व का दर्जा दे कर बेरोजगारी, महंगाई और सांप्रदायिकता को भगवान का प्रसाद मान कर वोट दे। इसी स्कीम के तहत 2014 के चुनाव में “गंगा ने बुलाया है” को दस साल बाद 2024 के चुनाव में “गंगा माँ ने मुझे गोद लिया है” से पुख्ता करने की नाकाम कोशिश मोदी ने की। लेकिन मोदी भूल गए कि राजतंत्र से प्रजातंत्र में इतना फर्क तो है ही कि जनता देवत्व की सत्यता को भी तौलती है। बेटा बेरोजगार हो या उसकी लगी रोजी छूट गयी हो तो मोदी के “स्वर्णिम भरात” की तोतारटंत से उसे गुस्सा आने लगता है।
सत्य से बड़ा कोई “इन्फ्लुएंसर” (प्रभावक) नहीं होता। लेकिन यह स्वयं दिक्-, काल-सापेक्ष होता है। इसीलिए किसका, कब का, कितनों का और कैसा सत्य राजनीतिक दलों को मौका देता है कि वे जनता को अपने वाले सत्य से प्रभावित करें। आरएसएस के अनुषांगिक संगठन वीएचपी ने “मुस्लिम तुष्टिकरण” का आरोप लगाते हुए वर्ष 1984 में हिन्दुओं के सबसे आराध्य “राम” के मंदिर का आन्दोलन शुरू किया जिसे भाजपा ने 1989 के पालनपुर घोषणापत्र में अंगीकार किया।
मोदी काल की सत्ता में तमाम सफल उपक्रमों में मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 हटाना, तीन तलाक ख़त्म करना खास रहा। राज्य के स्तर पर गवर्नेंस को चुनिन्दा घटनाओं में एक्स्ट्रा-जुडिशल “बुलडोज़र न्याय” तक ले जाना भी इसी का हिस्सा है। ताज़ा मामले में मुसलमानों के मुद्दों पर राज्य की दखलंदाजी के तहत संसद में पेश वक्फ कानून के प्रावधान में बोर्ड में हिन्दुओं का होना अघोषित हिन्दू राष्ट्र की दिशा में अहम् कदम है।
बैकवर्ड-दलित राजनीति में “एडवांटेज विपक्ष”
पालनपुर घोषणा की काट के रूप में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर वीपी सिंह ने भाजपा का “हिन्दुत्त्व मार्च” रोक दिया। नतीजतन 80 प्रतिशत हिन्दू वाले देश में बैकवर्ड-फॉरवर्ड का एक शाश्वत दुराव फिर परवान चढ़ा। सामाजिक न्याय के नाम पर जातिवादी दल उभरे। लेकिन जातिवाद भाजपा के नए आक्रामक हिन्दुत्त्व को कमजोर नहीं कर सका। मोदी काल की भाजपा लगातार मजबूत होती गयी।
फिर अचानक बिहार में लालू (तेजस्वी यादव)-नीतीश के शासकीय तत्वावधान में हुई जाति-आधारित गणना और उससे उभरे “संख्या के मुताबिक आरक्षण” की मांग ने पूरे देश की आबादी में 73 प्रतिशत हिस्सा रखने वाले दलित, पिछड़े, मुसलमान में एक नयी चाहत भर दी।
ऐसे समय में राहुल-अनुप्राणित कांग्रेस ने एक राष्ट्रीय दल के रूप में इस मुद्दे को लपक लिया। इस वर्ग को भी “नए” और “जीवट वाले” राहुल गाँधी पर भरोसा जगा। यह अलग बात है कि किसी ने नहीं देखा कि देश में कुल रोजगार का मात्र 2.8 प्रतिशत ही सरकारी नौकरी है यानी ऊंट के मुंह में जीरा। अब राहुल गाँधी जब जब इनके लिए “जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी” का नारा संसद में, सड़क पर, मोची के यहाँ जूते सिलते हुए या किसान का ट्रैक्टर चलाते हुए बुलंद कर रहे हैं, भाजपा के लिए इसकी काट करना मुश्किल हो रहा है।
उधर मोदी का “ईश्वरत्व” का मुलम्मा लगभग राहुल दिन में-तीन-बार की दर से उतार रहे हैं और वह भी अपने क्रूड और अनपोलिश्ड स्टाइल में जो पार्ट-मिमिक्री-और-पार्ट-कटाक्ष के फॉर्मेट में होता है। शायद यही मोदी के “दीदी-ओ-दीदी” के ड्रामेटिक्स का सही और मैचिंग “काट” है।
(एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं।)