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राहुल गांधी के धान रोपने के मायने!

राहुल गांधी के धान रोपने के मायने!

राहुल गांधी की धान रोपने की तस्वीरें सोशल मीडिया पर क्यों वायरल है और लोग इस पर टिप्पणियाँ क्यों कर रहे हैं? क्या राहुल गांधी की छवि बदली है या लोगों का उनके प्रति नज़रिया बदला है?

सोशल मीडिया इस समय राहुल गाँधी के धान रोपने की तस्वीरों से भरा पड़ा है। हरियाणा के सोनीपत के एक गाँव में किसानों के साथ धान रोपते राहुल गाँधी की ये तस्वीरें सावनी घटाओं और रिमझिम फुहारों के बीच किसी ताज़ा बयार का अहसास कराती हुई तैर रही हैं। इसी के साथ राहुल गाँधी के प्रति प्यार का एक ज्वार भी देखा जा रहा है जो युवाओं से लेकर बुज़ुर्गों तक पर एक सा तारी है। महिलाएँ, ख़ासतौर पर लड़कियाँ खुलकर राहुल के प्रति अपने ‘आभासी प्रेम’ का खुला इज़हार कर रही हैं तो अरसे से कांग्रेस के विरोध में रहे लोग, जिनमें सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर वरिष्ठ पत्रकार तक शामिल हैं, राहुल को देश की एकमात्र उम्मीद बता रहे हैं। कुछ लोग तो उनमें गाँधी और जे.पी. की छवि भी देख रहे हैं जिसकी राजनीति के केंद्र में सत्ता नहीं देश है।

तो क्या राहुल ने इधर कुछ ऐसा किया है जो वे पहले नहीं करते थे? ‘नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान’ खोलने से लेकर प्रतिबद्धता के केंद्र में किसान को लाने की उनकी मुहिम क्या पहले नहीं थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि राहुल वही हैं, बस उन्हें देखने का नज़रिया बदला है? हालात ने नज़र पर पड़ी धुंध को हटाया तो असल राहुल को पहचाना जा रहा है?

एक दशक पहले की ओर लौटिए। 2011 में केंद्र में मोदी नहीं, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार चल रही थी। यानी राहुल गाँधी की ‘अपनी’ सरकार। दिल्ली की सीमा से सटे ग्रेटर नोएडा के भट्टा पारसौल मे किसानों ने भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ा हुआ था। इस आंदोलन में पुलिस की गोली से कुछ किसानों की शहादत भी हुई थी। राहुल इस आंदोलन में पूरी गंभीरता से शामिल हुए कि केंद्र को 2013 में यूपीए सरकार को नया भूमि अधिग्रहण क़ानून लाना पड़ा। 1894 का औपनिवेशिक भूमि अधिग्रहण कानून बदला गया। किसानों की ज़मीन के बदले शहरी क्षेत्र में बाज़ार मूल्य से दो गुना और ग्रामीण क्षेत्र में चार गुना क़ीमत दी गयी।

कुछ ‘समझदारों’ ने इस आंदोलन को कांग्रेस की ‘उदारीकरण’ की नीति के ख़िलाफ़ बताया था। यह भी कि इसका लाभ पाने वाला किसान समुदाय परंपरागत रूप से कांग्रेस का वोटर नहीं रहा था। साथ ही, इस आंदोलन के निशाने पर मुख्यमंत्री मायावती थीं जिसकी वजह से दलित वर्ग भी कांग्रेस से नाराज़ हो सकता था। खासतौर पर जब वह आमतौर पर इतनी ज़मीन का मालिक नहीं था कि मुआवज़े का लाभार्थी बन पाता। लेकिन राहुल गाँधी ने इस गुणा-गणित पर दिमाग़ लगाने के बजाय किसानों के हित को सर्वोपरि माना। नये क़ानून का फ़ायदा पूरे देश के किसानों को हुआ और कई इलाकों में इसकी वजह से किसानों में अभूतपूर्व सम्पन्नता देखी गयी।

ऐसा ही मसला ‘ नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान’ का है। जब देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण राजनीतिक लाभ का सिद्ध फ़ॉर्मूला माना जा रहा हो तो राहुल गाँधी सबको गले लगाने वाले राजनेता बतौर खड़े हैं। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान उनकी यह छवि मुखर होकर सामने आयी और हाल में उनका मणिपुर पहुँचकर, बिना किसी राजनीतिक बयानबाज़ी के पीड़ितों के ज़ख्म पर मरहम लगाने की कोशिश करना उस छवि को नयी चमक दे गया। लेकिन करुणा या प्रेम की यह भाषा राहुल गाँधी ने हाल-फिलहाल अख़्तियार नहीं की है।

पाँच साल पहले 2018 का वाक़या याद कीजिए जब राहुल गाँधी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। जिस देश में ‘जाके बैरी चैन से सोये, ताके जीवन को धिक्कार’ वीरता का मुहावरा हो, वहाँ राहुल गाँधी ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि उन्होंने अपने पिता राजीव गाँधी के हत्यारों को माफ़ कर दिया है। सिंगापुर में आईआईएम के पूर्व छात्रों की एक सभा में राहुल गाँधी ने कहा “वे पिता की हत्या से बहुत आहत थे। कई सालों तक परेशान रहे। इस घटना ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया था, लेकिन अब उन्होंने अपने पिता के हत्यारों को ‘पूरी तरह माफ़’ कर दिया है।”

राहुल गाँधी ने आगे जो कहा वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को भीतर तक भिगोने के लिए काफ़ी था। उन्होंने कहा था, 

जब मैंने टीवी पर प्रभाकरण का शव देखा तो मेरे मन में दो भावनाएँ आयीं-एक तो यह कि इस आदमी को इस तरह अपमानित क्यों कर रहे हैं?...और दूसरा यह कि मुझे उनके बच्चों को लेकर बहुत बुरा लगा। मैं अच्छी तरह समझता था कि पिता को खोने का क्या मतलब होता है।


राहुल गांँधी, कांग्रेस नेता

प्रभाकरण लिट्टे का मुखिया था जिसने 1991 में राजीव गाँधी की हत्या की साज़िश रची थी। यह भी याद रखना चाहिए कि सोनिया गाँधी के हस्तक्षेप से राजीव गाँधी की हत्या मे शामिल नलिनि की मौत की सज़ा उम्रक़ैद में बदली थी और प्रियंका गाँधी खुद उससे मिलने गयी थीं। प्रियंका ने तब कहा था, “नलिनि से मिलना उस हिंसा और नुक़सान से शांति पाने का मेरा तरीक़ा था जो मैंने अनुभव किया है।”

ऐसे में जब कोई राहुल की ‘मुहब्बत की दुकान’ पर राजनीतिक स्वार्थ का बोर्ड टाँगने की कोशिश करता है, तो इतिहास की नज़र में हास्यास्पद होता है। भारत जोड़ो यात्रा के आख़िरी चरण में जब आतंकी हमले को डर दिखाकर श्रीनगर जाने से रोका गया था तो राहुल ने यह कहकर सबकी बोलती बंद कर दी थी कि ‘वे अपनी टीशर्ट लाल करवाने को तैयार हैं।’ ये कोई फ़िल्मी डायलॉग नहीं था। राहुल गाँधी अपने ऊपर मँडराते ख़तरे को अच्छी तरह जानते हैं। वही क्यों, उनकी दादी इंदिरा गाँधी और पिता भी जानते थे कि उनकी हत्या हो सकती है। फिर भी अपने संकल्प से डिगे नहीं। देश के लिए शहीद हो गये।

राहुल गाँधी का मानवीय व्यवहार और सहज अंदाज़, ‘आप्टिक्स’ के खेल में माहिर पीएम मोदी को कड़ी चुनौती पेश कर रहा है। सोशल मीडिया में राहुल गाँधी की वायरल होती तस्वीरें और भाषण इसके गवाह हैं। सबसे बड़ी बात, राहुल गाँधी ने भारतीय राजनीति में बड़ी शिद्दत से महसूस की जा रही ‘स्टेट्समैन’ की कमी को पूरा किया है। मोौजूदा समय इस लिहाज़ से ब़ड़ा विपन्न है। कोई समय़ था जब ग्लोब के किसी हिस्से में गाँधी की विरासत को थामे पं. नेहरू थे तो किसी हिस्से में नेल्सन मंडेला। कहीं मार्टिन लूथर किंग थे तो कहीं डेसमंड टुटु। लेकिन अब न्याय के पक्ष में नि:स्वार्थ भाव से खड़े होने वालों का जैसे टोटा ही हो गया है। अपने स्वार्थ में किसी व्यक्ति, समुदाय या देश को भी मटियामेट कर देने को क़ामयाब होने की पहचान बताया जा रहा है।

राहुल गाँधी अपनी करुणा और नि:स्वार्थ भावना से विश्व नेताओं की उसी लुप्तप्राय प्रजाति में शामिल हैं। वे न पार्टी में किसी पद पर हैं और न संसद के ही सदस्य रह गये हैं, लेकिन देश की आशाओं के केंद्र बनते जा रहे हैं। राहुल गाँधी की मौजूदगी का महत्व समझना हो तो आँख बंद करके भारतीय राजनीति के आकाश में उनकी अनुपस्थिति की कल्पना कीजिए। सिर्फ़ नफ़रत के शोले और स्वार्थ के गोले बरसते दिखेंगे, जिसके नीचे भारत माता सिसक रही होगी।

(लेखक कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए हैं।)

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