राहुल गाँधी की निर्भयता में पाँच पीढ़ियों का तप शामिल है!
अंग्रेज़ी हुकूमत एक आदमी से डरती थी/ कि वह हुकूमत से नहीं डरता/ अडानी हुकूमत एक आदमी से डरती है/ कि वह हुकूमत से नहीं डरता/ जो हुकूमत से नहीं डरत/ उनके नाम के आगे गाँधी क्यों लगा होता है?
ये गोरखपुर में रहने वाले वरिष्ठ हिंदी कवि देवेंद्र आर्य की ताज़ा कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं जो मोदी सरकार और राहुल गाँधी के बीच जारी जंग को एक ऐतिहासिक संदर्भ दे रही हैं। देवेंद्र आर्य याद दिला रहे हैं कि “चोरों का सरनेम मोदी क्यों है?” जैसा सवाल उठाकर संसद की सदस्यता खोने वाले राहुल गाँधी की निर्भयता के पीछे उनका ‘गाँधी’ सरनेम भी है जो हुकूमत से कभी न डरने की मुनादी है। यह देखना वाक़ई दिलचस्प है कि जिस दौर में हुक़ूमत हर विरोधी को किसी न किसी दाँव से डराने के खेल में आदी हो चली है, एक शख़्स उसकी आँख में आँख डाल कर सवाल कर रहा है।
दुनिया ने देखा है कि सूरत की अदालत से मिली तीस दिन की मोहलत के बावजूद किस तेज़ी से राहुल गाँधी की लोकसभा से सदस्यता ख़ारिज की गयी और अब उन्हें फ़ौरन से पेश्तर अपना सरकारी बंगला खाली करने का नोटिस भी थमा दिया गया है। यह सब उस शख्स के साथ किया जा रहा है जिसकी पाँच पीढ़ियों ने देश की सेवा की। जेल गये। शहीद हुए। आज़ादी के पहले अपने निजी आवास को खुलेआम आज़ादी की लड़ाई का केंद्र बना दिया और फिर उसे राष्ट्र को समर्पित कर दिया। राहुल गाँधी के साथ हो रही इन हरकतों ने सत्ता को थोड़ा और बौना साबित कर दिया है।
भारत ही नहीं, दुनिया का इतिहास व्यक्तिगत वीरता की कहानियो से भरा पड़ा है। ऐसे-ऐसे नाम हैं जिनके कारनामे सुनकर आज भी लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन अक्सर देखा गया है कि ऐसे महावीरों की अगली पीढ़ी हथियार डाल देती है। उन मूल्यों से विलग हो जाती है जिसके लिए उनके पुरखे याद किये जाते हैं। इस कसौटी पर गाँधी परिवार एक अपवाद नज़र आता है जिसकी पाँच पीढ़ियाँ आज़ादी और लोकतंत्र के मूल्यों के लिए जीती-मरती रही हैं। राजघाट पर प्रधानमंत्री को कायर बताते हुए प्रियंका गाँधी ने अगर ललकारते हुए कहा था कि उनके परिवार ने लोकतंत्र को अपने लहू से सींचा है तो यह कोई जुमला नहीं ऐतिहासिक हक़ीक़त है।
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मोदी सरकार के सामने तनकर खड़े नज़र आ रहे राहुल गाँधी की ऊर्जा में पाँच पीढ़ियों का तप शामिल है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि यह लड़ाई दो परिवारों की लड़ाई है। एक तरफ़ आरएसएस के सपनों को पूरा करने मे जुटा नागपुर परिवार (नागपुर आरएसएस का मुख्यालय है) और दूसरी तरफ़ स्वतंत्रता आंदोलन के संकल्पों का झडा उठाये गाँधी परिवार।
‘नागपुर परिवार’ जब कांग्रेस मुक्त भारत की बात करता है तो वास्तव में वह ‘गाँधी परिवार मुक्त राजनीति’ की कल्पना करता है। क्योंकि उसे पता है कि उसकी राह में यही सबसे बड़ी बाधा है जिसे न वह डरा सकता है और न झुका सकता है। तमाम तिकड़मों के ज़रिये चुनाव में हराने में वह बात नहीं है जो डराने या झुकाने में है। नागपुर परिवार की बदक़िस्मती ये है कि आज़ादी की लड़ाई में कूदते समय इलाहाबाद के ‘स्वराज भवन’ में इस परिवार ने जो जो संकल्प लिये थे, उससे वह डिगने को बिलकुल तैयार नहीं है जबकि नागपुर परिवार ने सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने के लिए कलाबाज़ी खाने का इतिहास रचा है। जिस राष्ट्रीय आंदोलन, तिरंगे और संविधान का उसने विरोध किया था, आज उसी का स्वयंभू नायक बनने का दिखावा करना पड़ रहा है। दिल में चाहे जो हो।
1920-21 में असहयोग आंदोलन के साथ ही इलाहाबाद के नामी और बेहद समृद्ध वकील मोतीलाल नेहरू का परिवार महात्मा गाँधी के मिशन के साथ जुड़ गया था। यह जुड़ाव कुछ इस क़दर था कि परिवार ने अपना सबकुछ दाँव पर लगा दिया। न सिर्फ पुरुष बल्कि महिलाएँ भी लाठियाँ खाती रहीं और जेल जाती रहीं। 1930 में नमक आंदोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू की माँ स्वरूपरानी नेहरू के सर पर लाठियाँ बरसी थीं और ऐसी चोट लगी कि मृत्यु तक ठीक नहीं हो सकीं। परिवार के घर आनंद भवन का बड़ा हिस्सा कांग्रेस का मुख्यालय बतौर 1930 में ही दे दिया गया जो स्वराज भवन कहलाया। मोतीलाल नेहरू के निधन के बाद इसे पूरी तरह कांग्रेस के हवाले कर दिया गया। पं.नेहरू के माँ-पिता ही नहीं, पत्नी कमला नेहरू, बहनें कृष्णा हठी सिंह और विजय लक्ष्मी पंडित और उनके जीवन साथी भी स्वतंत्रता सेनानी थे। बेटी इंदिरा गाँधी और दामाद फ़ीरोज़ गाँधी भी इस लड़ाई के सिपाही बने।
यह ग़ौर करने की बात है कि 1925 में अपने गठन के बाद आरएसएस ने अंग्रेज़ों से सहयोग की नीति अपनाई। कभी आज़ादी की माँग का दिखावा तक नहीं किया। आज वंदे मातरम को देशभक्ति की कसौटी बताने वाले आरएसएस के तब के नेता और कार्यकर्ता ‘वंदे मातरम्’ का नारा लगाने की हिम्मत नहीं रखते थे। जबकि उसी समय नेहरू का स्वराज भवन न सिर्फ़ कांग्रेस का मुख्यालय बल्कि क्रांतिकारियों का भी आश्रय स्थल था। वहाँ ‘वंदे मातरम्’ का खुला नारा लगता था।
जब नेहरू परिवार आज़ादी की लड़ाई में कूदा था तब किसी प्रतिसाद की उम्मीद नहीं थी। कोई नहीं कह सकता था कि आज़ादी मिलने पर इस परिवार से तीन सदस्य प्रधानमंत्री बनेंगे। आज बड़ी आसानी से इस परिवार पर वंशवाद का आरोप लगता है, लेकिन अगर इतिहास देखें तो यह सत्ता का नहीं संघर्ष और शहादत का वंशवाद लगता है। नेहरू जी नौ साल से ज़्यादा दिनों तक जेल में रहे और बाद में बतौर पहले प्रधानमंत्री उन्होंने आधुनिक भारत की नींव डालने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वंशवाद की तोहमत जड़ने वाले यह भूल जाते हैं कि पं.नेहरू के बाद इंदिरा गाँधी नहीं लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे। इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री उनके निधन के बाद कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने चुना था।
इसी तरह राजीव गाँधी की ताजपोशी भी इंदिरा गाँधी ने नहीं की थी बल्कि उनकी शहादत के बाद कांग्रेस ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाया था। और राजीव गाँधी की शहादत के बाद तो सोनिया गाँधी ने सत्ता के प्रति कोई मोह न दिखाते हुए राजनीति से ही किनारा कर लिया था। पार्टी के दबाव से कई साल बाद सक्रिय हुईं सोनिया गाँधी ने जब 2004 में चमत्कारिक जीत दिलायी तो भी वे प्रधानमंत्री नहीं बनीं और न 2009 में जीत के बाद राहुल गाँधी ने ही कोई दावा किया जबकि ये दोनों अवसर ऐसे थे जब एक बार फिर नेहरू-गाँधी परिवार का व्यक्ति प्रधानमंत्री बन सकता था।
सच्चाई ये है कि 34 बरस से नेहरू-गाँधी परिवार का कोई शख़्स किसी संवैधानिक पद पर नहीं है और अब तो पार्टी अध्यक्ष भी नहीं है। फिर भी ‘नागपुर परिवार’ उसे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है तो वजह इसकी वैचारिक प्रतिबद्धता ही है। संविधान सभा ने जिन संकल्पों को भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दर्ज किया है उसे कमज़ोर करना आरएसएस का सपना है। पर राजनीति की समझ रखने वाले हर व्यक्ति को पता है कि ऐसी हर कोशिश के ख़िलाफ़ यह परिवार अंतिम दम तक लड़ेगा। यही नहीं, आरएसएस की इन कोशिशों के ख़िलाफ़ एक अखिल भारतीय प्रतिवाद रचने की क्षमता भी इसी परिवार में है, चाहे उसके पास कोई पद हो या न हो।
1970 में प्रधानमंत्री बतौर इंदिरा गाँधी ने ‘आनंद भवन’ को राष्ट्र को समर्पित कर दिया था जो आज़ादी की लड़ाई का जीता-जागता स्मारक है। वहाँ का संग्रहालय उन भीषण दिनों की याद सहेजे हुए हैं। राहुल गाँधी को घर खाली करने की नोटिस देने वाले नहीं जानते कि ऐसा करके वे राहुल गाँधी के लिए एक बहुत बड़े घर का दरवाज़ा खोल रहे हैं। यह घर जनता के दिलों में है जहाँ राहुल गाँधी अपने संकल्पों और निर्भयता की वजह से दिनों-दिन घर करते जा रहे हैं। मोदी-अडानी के रिश्ते और याराना पूँजीवाद के ज़रिये देश की संपत्ति की खुली लूट से जुड़े सवाल राहुल गाँधी के सवाल अब जन-जन के सवाल बन रहे हैं।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े है)