अटल से जुड़कर राहुल ने वैचारिक धरातल मजबूत किया है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गले लगाकर जितनी सुर्खियां राहुल गांधी ने बटोरी थीं और उस घटना को जितने लोग याद रखते हैं, उससे कहीं अधिक सुर्खियां राहुल ने ‘वसुधैव अटल’ जाकर बटोरी है और इस घटना को भुलाए नहीं भुलाया जा सकेगा। इसकी एक स्पष्ट वजह है कि संसद में मोदी से गले लगने में विचारों से समझौता वाला भाव नहीं था।
नरेंद्र मोदी की प्रतिक्रिया से उक्त वक्त तब स्पष्ट हुई जब उन्होंने गले लगने को ‘गले पड़ना’ और गले लगने के लिए कुर्सी से उठने के आग्रह को ‘जनता की दी हुई कुर्सी से उठने को कहना’ बताया। मगर, क्या अब अटल बिहारी वाजपेयी की समाधिस्थल जाकर राहुल गांधी अपने सिद्धांतों से समझौता कर रहे हैं- यह बड़ा विमर्श है।
बीजेपी के दो ही प्रधानमंत्री अब तक हुए हैं। अटल तीन बार पीएम बने तो मोदी दो बार। एक ने दूसरे को मुख्यमंत्री बनाया, तो दूसरे ने उन्हें ‘भारत रत्न’ दिलाया। मगर, बात यहीं खत्म नहीं होती। यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि एक के कारण दूसरे के प्रधानमंत्रित्व काल का अंत हो गया। न सिर्फ नरेंद्र मोदी वजह बने वाजपेयी के सत्ता से बाहर होने की, बल्कि उनके राजनीतिक करियर के अंत का कारण भी वही बने।
2004 का चुनाव हारने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि अगर उन्होंने गुजरात दंगे के बाद सही समय पर सही कार्रवाई की होती तो परिणाम कुछ और होते। इसका मतलब यह है कि यूपीए की सरकार बनने और दोबारा दोहराए जाने के पीछे वजह स्वयं नरेंद्र मोदी रहे।
बात अधूरी रह जाएगी अगर लालकृष्ण आडवाणी का नाम न लिया जाए जो नरेंद्र मोदी की मुख्यमंत्री वाली कुर्सी गुजरात दंगे के बाद अटल से लड़ाई लड़ते हुए बचा रहे थे। लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक करियर के अंत की वजह भी नरेंद्र मोदी बने। आडवाणी को अगर भारत रत्न जैसा पारितोषिक प्राप्त नहीं हुआ तो इसकी वजह उनका अटल बिहारी वाजपेयी की प्रकृति से अलग सीधे मोदी से नाराज़ होने वाला स्वभाव कारण माना जा सकता है। राष्ट्रपति पद के लिए भी उनके नाम चर्चा में आते-जाते रहे लेकिन वे चर्चा से ऊपर नहीं उठ पाए।
मोदी युग में अटल से दूर हुई है बीजेपी
स्वतंत्रता के बाद संविधान और लोकतंत्र में आस्था से हमेशा अटल बिहारी वाजपेयी ने खुद को और अपनी पार्टी को जोड़े रखा। बाबरी विध्वंस की घटना पर दुख जताना इसका उदाहरण है। चीन, पाकिस्तान, इजराइल-फिलीस्तीन मुद्दा हो या फिर अमेरिकी वर्चस्व के विरोध की परंपरागत नेहरू नीति, कभी अटल और उनके नेतृत्व वाली पार्टी ने खुद को इससे अलग नहीं किया। पंडित नेहरू की पीठ पर चीन ने छुरा घोंपा था तो अटल की पीठ पर पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ और प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ दोनों ने। फिर भी शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का सिद्धांत बना रहा।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार नेहरू-अटल नीति के उलट अमेरिका परस्त हो चुकी है। चीन को तिब्बत देने और बदले में सिक्किम के रास्ते व्यापारिक मार्ग खोलने वाली नीति से उलट अब चीन से तकरार बढ़ा है। हालांकि इसके अब तक उल्टे नतीजे ही मिले हैं। रूस अब पहले जैसा मित्र नहीं रहा। फिलीस्तीन की जगह इजराइल ने ली है।
स्पष्ट है कि अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर जाने से राहुल गांधी ने नीतिगत आधार पर नेहरू नीति को अटल युग के साथ जोड़ा है और आगे भी इसकी जरूरत पर जोर दिया है। घरेलू मोर्चे पर सबको साथ लेकर चलने का नजरिया अटल बिहारी वाजपेयी के पास था और इसका उदाहरण एनडीए है जिसमें दर्जनों छोटे-बड़े दल शामिल रहे थे। आज एनडीए अपना महत्व और अर्थ खो चुका है। कश्मीर में आज बीजेपी का कोई साथी नहीं है जबकि बीजेपी-पीडीपी की सरकार जो बनी थी उसकी वजह अटल युग का अतीत ही रहा था। राहुल गांधी सिर्फ नेहरू-अटल नीति का विस्तार देते नजर आ रहे हैं।
कांग्रेस के लिए वक्त की राजनीतिक जरूरत हैं अटल
अटल बिहारी वाजपेयी ने पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी सबकी समय-समय पर खुली प्रशंसा की है। जब राहुल गांधी अटल बिहारी वाजपेयी से खुद को जोड़ते हैं तो वो प्रशंसाएं जीवित हो जाती हैं। इसका महत्व आज के दौर में इसलिए है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्ववाली सरकार और बीजेपी लगातार नेहरू-गांधी परिवार को कलंकित करने में जुटी हैं। एक प्रश्न यह भी उठता है कि जब अटल बिहारी वाजपेयी के गांधी-नेहरू परिवार के लिए उनके नजरिए को वैचारिक समझौता नहीं माना गया तो आज अटल की स्मृतियों से खुद को जोड़ना या उनका सम्मान करना ऐसा क्यों समझा जाना चाहिए?
आजादी के बाद के इतिहास ने यही साबित किया है कि वामपंथी या दक्षिणपंथी वैचारिकी के आधार पर जनता लोकतांत्रिक तरीके से लामबंद कभी नहीं हुई है। जनता सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखती है। चूकि कांग्रेस की नीति वाम और दक्षिण से न बहुत दूरी और न बहुत नजदीकी या कहे कि ना नफरत और ना बहुत प्यार वाली रही है, इसलिए कांग्रेस सबसे लंबे समय तक राज कर पायी है। वर्तमान मोदी सरकार की घोषित नीति भी ‘सबका साथ, सबका विकास’ है। इस नारे में जिस हद तक ईमानदारी का अभाव है उसी हद तक विपक्ष के लिए उम्मीद भी है।
राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के जरिए सियासत का फलक बड़ा किया है। वे सिर्फ अटल बिहारी वाजपेयी के समाधिस्थल पर नहीं जाते, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से लेकर सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों के समाधिस्थल तक जाते हैं। इनमें चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम भी हैं। वर्तमान राजनीति में कांग्रेस जिस जनाधार वर्ग से दूर हुई है उसमें इन नेताओँ की बहुत बड़ी पकड़ रही थी। राहुल की कोशिश उस पकड़ को दोबारा पाने की भी है। इस कदम का हिन्दी पट्टी और खासतौर से उत्तर प्रदेश की सियासत पर बड़ा असर दिख सकता है।
राहुल गांधी ने वैचारिक आधार को छोड़ा है ऐसा मान लेना कतई उचित नहीं है। बल्कि, उन्होंने अपने वैचारिक आधार को जमीनी धरातल पर विस्तार देने की एक सराहनीय कोशिश की है। इस कोशिश के बाद बीजेपी बौखला गयी है। उसे अटल की प्रशंसा में जुटे कांग्रेसजनों से निपटने का तरीका नज़र नहीं आ रहा है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी के इस कदम को इसी वजह से मास्टर स्ट्रोक के तौर पर कहा जा रहा है।