श्रद्धांजलि: राही मासूम रज़ा क्यों कहते थे- मैं गंगा का बेटा हूँ
डॉक्टर राही मासूम रज़ा फिरकापरस्ती, जातिवाद, सामंतशाही और वर्गीय विभाजन के ख़िलाफ़ निरंतर चली प्रतिबद्ध कलम के एक अति महत्वपूर्ण युग का नाम है। इसी कलम ने मुसलिम अंतर्मन की गहरी तहें बेहद सूक्ष्मता से खोलता कालजयी उपन्यास 'आधा गाँव' लिखा तो दूरदर्शन की दशा-दिशा में क्रांतिकारी बदलाव का सबब बना धारावाहिक 'महाभारत'। 'आधा गाँव' यथार्थ की खुरदरी ज़मीन पर टिकी कृति है तो 'महाभारत' मनोजगत के अबूझ रहस्यों की शानदार प्रस्तुति।
'आधा गाँव' मुसलिम मन के रेशे-रेशे से गुज़रे बगैर संभव नहीं था तो 'महाभारत' हिंदू लोकाचार के एक-एक पहलू की पड़ताल के बगैर। 'हिंदुस्तानियत' का सच्चा पैरोकार ही यह कर सकता था। राही मासूम रज़ा यक़ीनन ख़ुद को गंगा-जमुनी तहजीब का बेटा मानते-समझते-कहते थे। उपमहाद्वीप की साहित्यिक-सांस्कृतिक शख्सियतों में उन सरीखा दूसरा कोई नहीं हुआ। वह अनूठे-अकेले थे।
उनका जन्म एक अगस्त 1927 को गाजीपुर के गंगोली गाँव में हुआ था। वहाँ की आबोहवा ने उनकी रगों में हिंदुस्तानी तहजीब, लहू की मानिंद भर दी जो वक़्त के साथ-साथ गाढ़ी और गहरी होती गई। वह रिवायती ज़मींदार खानदान के फ़रज़ंद थे लेकिन मिज़ाज बचपन से ही समतावादी पाया। जवानी के दिनों में रज़ा वामपंथी हो गए।
एक बार कम्युनिस्ट पार्टी ने तय किया कि गाजीपुर नगरपालिका के अध्यक्ष पद के लिए कॉमरेड पब्बर राम को खड़ा किया जाए। पब्बर राम एक भूमिहीन मज़दूर थे। राही और उनके बड़े भाई मूनिस रज़ा दोनों कॉमरेड पब्बर राम का प्रचार करने लगे। उधर, कांग्रेस ने रज़ा के पिता बशीर हसन आबिदी को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। दोनों भाई विचारधारात्मक धरातल पर खड़े रहे और अपने अब्बा को समझाया कि वह यह चुनाव न लड़ें। अब्बा हुजूर का तर्क था कि मैं 1930 से कांग्रेसी हूँ। पार्टी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूँगा। राही मासूम रज़ा का जवाब था, ‘हमारी भी मजबूरी है कि हम आप के ख़िलाफ़ पब्बर राम को चुनाव लड़वाएँगे।’ राही घर से सामान उठाकर पार्टी ऑफ़िस चले गए। जब चुनाव के नतीजे आए तो सब यह जानकर स्तब्ध रह गए कि एक भूमिहीन मज़दूर ने ज़िले के सबसे मशहूर वकील को भारी बहुमत से हरा दिया था। यह घटना उनकी वैचारिक दृढ़ता की एक मिसाल है।
'महाभारत' का लेखन एक अन्य बड़ी मिसाल है। बीआर चोपड़ा ने उन्हें इसकी पटकथा-संवाद की गुज़ारिश की। व्यस्तता की वजह से रज़ा साहब ने इनकार कर दिया। उनके अभिन्न मित्र चोपड़ा मान बैठे थे कि वह इस प्रोजेक्ट के लिए अंततः उन्हें राज़ी कर लेंगे। संवाददाता सम्मेलन में बीआर चोपड़ा ने ज़ोर-शोर से घोषणा कर दी कि 'महाभारत' का लेखन कार्य राही मासूम रज़ा करेंगे। इस घोषणा के साथ ही हंगामा हो गया।
'महाभारत' का लेखन कार्य राही मासूम रज़ा के करने की जानकारी मिलने पर कट्टर हिंदूवादी संगठन सक्रिय हो गए। चोपड़ा के पास ख़तों का ढेर लग गया जिनमें एक इबारत समान रूप से लिखी गई थी कि, 'क्या सारे हिंदू मर गए हैं जो आप एक मुसलमान से महाभारत लिखवाने जा रहे हैं।'
चोपड़ा साहब ने तमाम ख़त राही के पास भेज दिए। यह वाक़या राही मासूम रज़ा के अलीगढ़ विश्वविद्यालय के दिनों के गहरे दोस्त डॉ. कुंवर पाल सिंह ने बयाँ करते हुए लिखा है,
“रज़ा भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बहुत बड़े अध्येता थे। अगले दिन उन्होंने चोपड़ा साहब को फ़ोन किया, 'महाभारत' अब मैं ही लिखूँगा। मैं गंगा का बेटा हूँ। मुझसे ज़्यादा हिंदुस्तान की संस्कृति और सभ्यता को कौन जानता है”
तो राही मासूम रज़ा ने 'महाभारत' का टीवी संस्करण ऐसा लिखा कि उसके संवाद घर-घर बेइंतहा मकबूल हो गए। भाषा का ऐसा सौंदर्य लिए हुए और इतनी रवानगी से सराबोर लेखन शायद 'महाभारत' के बाद किसी अन्य हिंदी टीवी सीरियल का नहीं हुआ। उनके गहरे दोस्त और ख़ुद सिद्धहस्त पटकथा-संवाद लेखक कमलेश्वर ने कहा था कि राही मासूम रज़ा ने जिस शिद्दत से डूब कर 'महाभारत' का संवाद लिखा, वह अचंभित करता है।
सांप्रदायिक कठमुल्लापन उनकी नफ़रत तथा चीढ़ का सबसे बड़ा सबब था।
आपातकाल का विरोध किया
वह अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के शुरुआती दिनों में जब उर्दू में शायरी करते थे तब से ही वह प्रगतिशील लेखक खेमों से जुड़ गए थे। गहरी वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद वह आँखें खोलकर चलने-देखने वाले वामपंथी थे। 1975 के बर्बर आपातकाल का उन्होंने हर स्तर पर विरोध किया। 1984 की सिख विरोधी हिंसा और बाबरी मसजिद-राम जन्मभूमि विवाद के राजनैतिक/सामाजिक कुप्रभावों ने उन्हें लगातार बेचैन रखा। इस विवाद पर उन्होंने लिखा था, ‘मैंने यह कहा था और अब भी कहता हूँ कि बाबरी मसजिद और राम जन्मभूमि मंदिर दोनों को गिरा कर उसकी जगह एक राम-बाबरी पार्क बना देना चाहिए।’
राही मासूम रज़ा का कहना था, ‘धर्म का राष्ट्रीयता और संस्कृति से कोई विशेष संबंध नहीं है। पाकिस्तान का निर्माण मिथ्या चेतना के आधार पर हुआ है और जिस भवन की बुनियाद टेढ़ी होगी वह बहुत दिन तक नहीं चलेगा।’
उपन्यास 'आधा गाँव' में इस ओर साफ़ संकेत हैं कि पाकिस्तान बहुत दिनों तक एक नहीं रहेगा। यही हुआ। भाषाई आधार पर 1971 में पाकिस्तान टूटा और बांग्लादेश बना।
‘आधा गाँव' (रचनाकाल: 1966) को विश्व स्तर के निकट की कालजयी रचना माना जाता है। इसके बाद उन्होंने अपना दूसरा बहुचर्चित उपन्यास 'टोपी शुक्ला' लिखा। दोनों उपन्यास पहले-पहल फारसी लिपि में लिखे गए थे। बाद में उनका हिंदी लिप्यांतरण किया गया। बेशुमार संस्करणों में प्रकाशित 'आधा गाँव' के बाद उन्होंने अपने तमाम उपन्यास (टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूंद, दिल एक सादा कागज, सीन 75, असंतोष के दिन और कटरा बी आर्जू) मुंबई (तब बंबई) जाकर लिखे।
बतौर शायर-कवि भी उनकी ख़ासी ख्याति थी। 'हम तो हैं परदेस में ...देस में निकला होगा चांद' जैसी उनकी कई मशहूर नज़्में और गीत हैं। हिंदुस्तानियत रिवायत में पूरी तरह रचे-बसे डॉक्टर राही मासूम रज़ा गल्प हिंदी में लिखते थे और शायरी-कविता उर्दू में। अपनी लिखी फ़िल्मों में वह हिंदी-उर्दू अल्फाज का माकूल इस्तेमाल करते थे।
उनकी एक नज़्म से उनके व्यक्तित्व का एक ख़ास अक्स दरपेश होता है:
'मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
क़त्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुँह पर फेंको
और उस योगी से कह दो-महादेव
अब इस गंगा को वापस ले लो/
यह ज़लील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गरम लहू बनकर दौड़ रही है...'।
राही मासूम रज़ा कहा करते थे,
“
मैं तीन माँओं का बेटा हूँ। नफ़ीसा बेग़म, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और गंगा। नफ़ीसा मर चुकी हैं। अब साफ़ याद नहीं आतीं। बाक़ी दोनों माँएँ ज़िंदा हैं और याद भी हैं।
राही मासूम रज़ा
उनकी एक अन्य नज़्म की पंक्तियाँ हैं:
'मेरा फ़ोन तो मर गया यारों
मुझे ले जाकर गाजीपुर की गंगा की गोदी में सुला देना
अगर शायद वतन से दूर मौत आए
को मेरी यह वसीयत है
अगर उस शहर में छोटी सी एक नदी भी बहती हो
तुम मुझको
उसकी गोद में सुला कर
उससे कह देना
की गंगा का बेटा आज से तेरे हवाले है...'।
हिंदुस्तानियत रिवायत का यह महान प्रतीक पुरुष 15 मार्च 1992 को जिस्मानी तौर पर अलविदा हो गया।