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राहत इंदौरी: लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना!

राहत इंदौरी: लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना!

राहत इंदौरी नहीं रहे। अब वह बुलंद आवाज़ खामोश हो गयी है। कोरोना की महामारी ने हमसे हमारे समय का एक बहुत तेज़तर्रार, सक्रिय रचनाकार छीन लिया।

लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में

यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है

जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे

किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है

सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में

किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है

राहत इंदौरी के ये शेर पिछले कुछ बरसों में देश के हालात से नाराज़ आम आदमी का बयान बन गए थे। वो विवादास्पद क़ानून सीएए के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन का मंच हो, छात्रों का प्रतिरोध हो, धरना हो, प्रदर्शन हो, हर मंच पर ये शेर एक जोशीला माहौल बना देते थे। हर मुशायरे में जहाँ राहत इंदौरी मौजूद रहते थे, लोग ख़ुद उनकी आवाज़ में इन्हें सुनने की फरमाइश करते थे, इसरार करते थे और उनकी बुलंद आवाज़ और  बेख़ौफ़, बेबाक अंदाज़ में सुन लेने के बाद तालियों की गड़गड़ाहट देर तक माहौल में गूंजती रहती थी। अब वह बुलंद आवाज़ खामोश हो गयी है। कोरोना की महामारी ने हमसे हमारे समय का एक बहुत तेज़तर्रार, सक्रिय रचनाकार छीन लिया जो अपने शब्दों के ज़रिये सत्ता और व्यवस्था को चुनौती देने की हिम्मत और बाकमाल  हुनर रखता था।

जिसे हम गंगा जमुनी तहज़ीब कहते हैं, राहत इंदौरी उसके नुमाइंदे थे, पैरोकार थे, झंडाबरदार थे। राहत इंदौरी साहब का अचानक हमारे बीच से गुज़र जाना उस तहज़ीब का बहुत बड़ा नुक़सान है।

राहत इंदौरी के नाम से शोहरत पाने से पहले उनका नाम राहत कुरैशी था। 1 जनवरी 1950 को इंदौर में जन्मे राहत इंदौरी रफ़तुल्लाह क़ुरैशी और मक़बूल उन्निसा बेगम की चौथी संतान थे। राहत इंदौरी ने उर्दू में एमए करने के बाद पीएचडी की थी। उन्होंने इंदौर यूनिवर्सिटी में सोलह वर्षों तक उर्दू का अध्यापन भी किया। दिलचस्प बात यह है कि शायरी की दुनिया में मशहूर होने से पहले राहत इंदौरी पेंटर भी रहे। उन्होंने लगभग पचास हिंदी फ़िल्मों के लिए गाने भी लिखे जो बहुत लोकप्रिय हुए और ख़ूब गुनगुनाये जाते हैं। पिछले क़रीब चालीस -पैंतालीस बरसों से राहत इंदौरी देश-विदेश में मुशायरों की शान बने हुए थे।

राहत इंदौरी की लिखावट में और उनकी अदायगी में एक ख़ास तरह की मर्दानगी थी, सत्ता और व्यवस्था की आँख में आँख मिलाकर उसे चुनौती देने का माद्दा और हिम्मत थी। उनकी यह ख़ूबी, उनके व्यवस्था विरोधी तेवर और मज़लूमों के हक़ में उनकी शायरी उन्हें उनके समकालीन तमाम मंचीय शायरों की भीड़ से अलग करती थी। युवाओं के बीच तो उनकी लोकप्रियता कमाल की थी। उनको पढ़ते-सुनते हुए दुष्यंत कुमार और पाकिस्तानी शायर हबीब जालिब की याद आती थी।  यह महज संयोग नहीं है कि दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के बाद राहत इंदौरी के तमाम शेर और ग़ज़लें जनता के प्रतिरोध की आवाज़ बनीं।

सत्ता के झूठ, उसके पाखंड को बेनकाब करते हुए राहत इंदौरी अपने शेरों के ज़रिये जिस तरह झन्नाटेदार तमाचा जड़ते हैं, वह अंदाज़, वह तेवर समकालीन शायरी में दुर्लभ हैं।

झूठों ने झूठों से कहा है सच बोलो 

सरकारी एलान हुआ है सच बोलो

भारत-पाकिस्तान की सीमाओं पर तनाव की घटनाओं पर उनकी दो लाइनों में जो चुभती हुई चुटकी है, वह दोनों तरफ़ की सियासत की पोल खोल देती है -

सरहदों पर बहुत तनाव है क्या,

कुछ पता तो करो चुनाव है क्या

हर सच्चा और बड़ा रचनाकार अपने समय से मुठभेड़ करता है। राहत इंदौरी के तीखे तेवर और आग उगलने वाला अंदाज़ सिर्फ़ हुक्मरानों के लिए नहीं थे। उन्होंने अपनी शायरी में आम आदमी को भी हालात से लड़ने के लिए ललकारा-

साथ चलना है तो तलवार उठा मेरी तरह

मुझसे बुज़दिल की हिमायत नहीं होने वाली

राहत इंदौरी की शायरी ज़िन्दगी के तमाम उतार-चढ़ाव, अलग-अलग रंगों की एक बहुत बेबाक दास्तान कहती है।

अँधेरे चारों तरफ़ सांय-सांय करने लगे

चिराग़ हाथ उठाकर दुआएँ करने लगे

तरक़्क़ी कर गए बीमारियों के सौदागर

ये सब मरीज़ हैं जो अब दवाएँ करने लगे

लहूलोहान पड़ा था ज़मीं पे इक सूरज

परिन्दे अपने परों से हवाएँ करने लगे

ज़मीं पे आ गए आँखों से टूट कर आँसू

बुरी ख़बर है फ़रिश्ते ख़ताएँ करने लगे

झुलस रहे हैं यहाँ छाँव बाँटने वाले

वो धूप है कि शजर इलतिजाएँ करने लगे

अजीब रंग था मजलिस का, ख़ूब महफ़िल थी

सफ़ेदपोश उठे कांय-कांय करने लगे

एक अच्छा रचनाकार जो लिखता है, वह बुनियादी तौर पर अपने लिए लिखता है, अपनी राय लिखता है लेकिन उसका सच और उसकी बातों की गहराई जब एक आम आदमी को अपनी बात लगने लगती है तो उसे सामूहिकता, सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता प्रदान करती है।

बदलते दौर में रिश्तों के बीच आये फर्क के दर्द को उन्होंने बहुत ख़ूबसूरती के साथ एक शेर में इस तरह ज़ाहिर किया है कि वो दो भाइयों के बीच का क़िस्सा भी लगता है और दो कौमों के बीच की बात भी और समाज से सहिष्णुता, भाईचारे और सब्र की अपील भी -

मेरी ख्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे 

मेरे भाई मेरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले

राहत शायरी में अपने पुरखे मीर को याद करते हैं और तब के हालत और आज की मजलिस को जोड़ देते हैं -

मीर जैसा था दो सदी पहले

हाल अब भी वही है मजलिस का

एक ग़ज़ल की भाषा देखिये। क्या इस सूफियाना मिज़ाज़ में कहीं उर्दू की पीएचडी वाले या मुशायरों में रंग ज़माने वाले राहत साहब नज़र आते हैं 

तू शब्दों का दास रे जोगी

तेरा कहाँ विश्वास रे जोगी

इक दिन विष का प्याला पी जा

फिर न लगेगी प्यास रे जोगी

ये साँसों का बन्दी जीवन

किसको आया रास रे जोगी

विधवा हो गई सारी नगरी

कौन चला वनवास रे जोगी

पुर आई थी मन की नदिया

बह गए सब एहसास रे जोगी

इक पल के सुख की क्या क़ीमत

दुख है बारह मास रे जोगी

बस्ती पीछा कब छोड़ेगी

लाख धरे सन्यास रे जोगी

राहत इंदौरी की शायरी में बगावत के तेवर तो थे ही, रुमानियत भी भरपूर थी।

ना त-आरूफ़ ना त-अल्लुक है मगर दिल अक्सर

नाम सुनता है तुम्हारा तो उछल पड़ता है

उसकी याद आई है साँसों ज़रा धीरे चलो

धड़कनों से भी इबादत में खलल पड़ता है

प्रेम और रहस्यवाद का यह मिलाजुला रंग देखिए -

किसने दस्तक दी है दिल पर कौन है 

आप तो अंदर हैं, बाहर कौन है

बहुत से लोगों को शायद यह मालूम न हो कि हाल के दिनों में अपनी आग उगलती शायरी के लिए बेहद लोकप्रिय होने वाले राहत इंदौरी ने  फ़िल्मों में ‘नींद चुराई मेरी किसने ओ सनम, तूने’ जैसे रोमांटिक गाने लिखे हैं। उन्हें दर्शकों, श्रोताओं से रिश्ता जोड़ने का तरीक़ा आता था।  मुशायरों में भी राहत इंदौरी तीखी सियासी शायरी के साथ-साथ युवाओं से रूमानी बातें भी ख़ूब करते थे। यह उनके हरदिल अज़ीज़ होने की एक बड़ी वजह थी। उनकी इश्किया शायरी पर कॉलेज के लड़के लड़कियों को मुशायरों में झूम-झूम जाते हमने देखा है।

उसकी कत्थई आँखों में हैं जंतर-मंतर सब

चाक़ू-वाक़ू, छुरियाँ-वुरियाँ, ख़ंजर-वंजर सब

जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे-रूठे हैं

चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब

मुझसे बिछड़ कर वह भी कहाँ अब पहले जैसी है

फीके पड़ गए कपड़े-वपड़े, ज़ेवर-वेवर सब

जैसा मौजूदा दौर है, उसमें राहत जैसे शायर को जीते जी तो हाल-फिलहाल राहत नहीं मिली। अपने सत्ता विरोधी तेवरों की वजह से वो दक्षिणपंथी राजनीति और उसके समर्थकों के निशाने पर रहे। साम्प्रदायिक सियासत के ख़िलाफ़ लगातार आवाज़ बुलंद करने वाली शायरी के लिए सोशल मीडिया पर उनके बारे में दुष्प्रचार अभियान चलाये गए। तमतमाए राहत इंदौरी ने अपने आलोचकों को अपने ही अंदाज़ में जवाब दिया - 

मैं मर जाऊँ तो मेरी इक अलग पहचान लिख देना,

लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना!

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चरागों को उछाला जा रहा है

हवा पे रोब डाला जा रहा है

जनाज़े पर मेरे लिख देना यारों

मुहब्बत करने वाला जा रहा है

राहत इंदौरी अपनी अलग पहचान कायम कर गए हैं जो अद्वितीय है। वो आज की ग़ज़ल का कभी न भुलाया जा सकने वाला स्वर हैं और अपने तेवरों के लिए हमेशा याद किये जायेंगे।

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