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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अब नई मुसीबत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अब नई मुसीबत

अख़बार ‘ल मोंद’ में हुआ रहस्योद्घाटन नरेंद्र मोदी की छवि को धूल-धूसरित कर रहा है। इसके बाद राहुल गाँधी ने रफ़ाल सौदे में गड़बड़ी को लेकर मोदी पर हमला तेज़ कर दिया है।

इधर, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए रुस और यूएई के सर्वोच्च सम्मानों की घोषणा हो रही है और उधर पेरिस के प्रसिद्ध अख़बार ‘ल मोंद’ में हुआ रहस्योद्घाटन मोदी की छवि को धूल-धूसरित कर रहा है। चुनाव के दौरान इन ख़बरों के आने का विशेष महत्व है। भारत के किसी भी प्रधानमंत्री को विदेशों के इतने और बड़े सम्मान पहले कभी नहीं मिले लेकिन यह भी सच है कि 30 हज़ार करोड़ रुपये जितने बड़े घोटाले से आज तक किसी भी प्रधानमंत्री का नाम नहीं जुड़ा। 

फ़्रांसीसी सरकार या वहाँ के किसी अख़बार ने यह दावा नहीं किया है कि मोदी ने रफ़ाल सौदे में अरबों रुपये खाए हैं लेकिन कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गाँधी उन्हें ‘चोर-चोर’ कहने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि अनिल अंबानी को बिचौलिया बनाकर रफ़ाल को दिया जाने वाला सरकारी पैसा वापस मोदी को मिल जाएगा, जिसका इस्तेमाल बीजेपी के लिए होगा। जब अंबानी को बिचैलिया बनाने से सरकार को इतना फायदा होगा तो वह अंबानी को फायदा क्यों नहीं पहुँचाना चाहेगी? 

अंबानी की टेलिकाॅम कंपनी ‘रिलायंस एटलांटिक फ़्लैग फ़्रांस’ पर फ़्रांसीसी सरकार ने 1100 करोड़ रुपये का टैक्स कई वर्षों से ठोक रखा था। लेकिन अप्रैल 2015 में जैसे ही रफ़ाल सौदा हुआ, उसके छह माह के अंदर ही फ़्रांसीसी सरकार ने सिर्फ़ 56 करोड़ रुपये में मामला निपटा दिया। क्यों निपटा दिया, इसे आसानी से समझा जा सकता है।

अब फ़्रांसीसी सरकार और भारत सरकार ने कहा है कि यह शुद्ध संयोग है और इसका रफ़ाल सौदे से कुछ लेना-देना नहीं है। उनका यह मानना ठीक हो सकता है। यदि यह ठीक है तो इसे तीन साल पहले ही उजागर क्यों नहीं कर दिया गया? ऐसा उस समय करते तो शायद रफ़ाल सौदे की दलाली भी उसी समय उजागर हो जाती। लेकिन अब राहुल गाँधी ने आरोप लगाया है कि इस मामले में नरेंद्र मोदी ने फ़्रांस और अंबानी के बीच दलाली की है। सारा मामला अब सर्वोच्च न्यायालय के अधीन है। यदि 23 मई के पहले अदालत ने कोई उलटी राय जाहिर कर दी तो मोदी के लिए मुसीबत का नया पहाड़ टूट पड़ सकता है। 

वैसे, 2019 के चुनाव में आम मतदाता पर इस मामले का कितना असर है, कुछ कहना मुश्किल है। ऐसा लगता है कि इस चुनाव में स्थानीय, प्रांतीय और जातिवादी मुद्दों का असर कहीं ज़्यादा रहेगा।

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