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क्या दुनिया में शीत युद्ध की वापसी होगी?

क्या दुनिया में शीत युद्ध की वापसी होगी?

कोरोना महामारी से निबट लेने के बाद दुनिया में देशों के बीच रिश्तों के समीकरण कैसे बनेगें, इसकी एक झलक तोक्यो में 6 अक्टूबर को चार देशों- अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत के विदेश मंत्रियों की दूसरी साझा बैठक से मिली है।

कोरोना महामारी से निबट लेने के बाद दुनिया में देशों के बीच रिश्तों के समीकरण कैसे बनेगें, इसकी एक झलक तोक्यो में 6 अक्टूबर को चार देशों- अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत के विदेश मंत्रियों की दूसरी साझा बैठक से मिली है। 'क्वाड' यानी 'क्वाड्रीलेटरल ग्रुप' या चर्तुपक्षीय समूह के झंडा तले चारों देशों के विदेश मंत्रियों का एक साल बाद दूसरी बार  इकट्ठा होना इस बात का सूचक है कि वे दुनिया भर में चीन की दादागिरी और छोटे देशों को बेवकूफ बनाकर उन्हें अपने जाल में फँसा लेने की चाल के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं। वे चीन की चतुर रणनीति को नाकाम करना चाहते हैं। 

चीन बनाम क्वाड

साफ है कि आने वाले दिनों में चीन बनाम बाकी जनतांत्रिक दुनिया का एक नया समीकरण बन सकता है। इसमें एक ओर चीन होगा और उसके साथ रूस, पाकिस्तान, ईरान, तुर्की, उत्तर कोरिया, वेनेजुएला के अलावा कुछ और छोटे देश हो सकते हैं। दूसरी ओर, क्वाड के साथ यूरोपीय देशों के अलावा कनाडा, दक्षिण कोरिया, इस्राइल, दक्षिण पूर्व एशिया, खाड़ी और लातिन अमेरिका के कुछ देश हो सकते हैं।

 रूस बनाम अमेरिका

इस तरह दुनिया फिर दो खेमों में बंटती हुई दिखती है ,जैसे कि शीत युद्ध के दौरान दुनिया दो खेमे में बंटी हुई थी। लेकिन तब रिश्तों के समीकरण वैचारिक आधार पर बने थे,

रूस की अगुवाई वाली साम्यवादी व्यवस्था के तहत पूर्वी यूरोप, एशिया औऱ अफ्रीका के कुछ देश शामिल थे। भारत भी तब हालांकि निर्गुट समूह में था, लेकिन रूसी खेमे में ही माना जाता था। अमेरिकी अगुवाई वाले पूंजीवादी व्यवस्था वाले गुट में पश्चिम यूरोप, दक्षिण पूर्व एशिया, लातिन अमेरिका आदि के देश शामिल थे।

साझा अभ्यास तक सीमित

कोविड महामारी के बाद चीन बनाम क्वाड का समीकरण वैचारिक आधार पर नहीं है। यह सहयोग समान और साझा सामरिक और आर्थिक हितों की रक्षा के लिये होगा। शीत युद्ध के दिनों में दोनों खेमों के पास अपनी एकजुट सैन्य ताक़त थी, जबकि मौजूदा दौर में चीन की सैन्य ताक़त के आगे क्वाड के देश केवल साझा सैन्य अभ्यासों का प्रदर्शन कर चीन को संदेश देने की कोशिश करते हैं। लेकिन जब साझा कार्रवाई की ज़रूरत होती है तो सभी देशों को अपनी ताक़त के बल पर चीन से मुक़ाबला करना होता है।

क्वाड की तोक्यो बैठक के बाद जिस तरह चारों देशों ने अपना अलग बयान जारी कर क्वाड में पेश अपने नजरिये की स्वतंत्र तौर पर जानकारी दी है, वह इस बात का भी सूचक है कि चारों देश अभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाए हैं कि सामूहिक तौर पर चीन को कडे संदेश दें।

चारों देशों के विदेश मंत्रियों ने अपने बयानों में चीन की ओर इशारा कर चीन की दादागिरी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है। लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने खुल कर जिन कडे शब्दों में चीन की खिंचाई की है, वैसे ही लहजे का इस्तेमाल करने से बाकी तीन देश बचे हैं। 

भारत ने बरती सावधानी

भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इशारों में ही कहा है कि 'हम नियम आधारित अंतराष्ट्रीय व्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय सागरीय इलाक़ों में क़ानून सम्मत  खुली आवाजाही, प्रादेशिक एकता और सम्प्रभुता का सम्मान और विवादों का शांतिपूर्ण हल चाहते हैं।'

अमेरिकी विदेश मंत्री ने साफ शब्दों में चीन का नाम लेकर आलोचना की और कहा कि यह काफी अहम है कि हम अपने लोगों और साझेदारों को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के दोहन, शोषण और भ्रष्टाचार से बचाएं।

उन्होंने लद्दाख में चीनी अतिक्रमण, ताइवान, पूर्वी और दक्षिण चीन सागर, मेकोंग आदि  में चीन की दादागिरी पर सीधा हमला किया।

बदली हुई है स्थिति

अमेरिका के पास सैनिक और आर्थिक ताक़त है, इसलिये वह इन शब्दों का इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन बाकी तीन देश अभी भी चीन को सीधी चुनौती देने से बच रहे हैं। शीतयुद्ध के दिनों में दोनों खेमे की अपने- अपने इलाक़े में तूती बोलती थी और वे अपनी सैनिक और आर्थिक ताक़त के बल पर अपने खेमे के देशों को सामरिक सुरक्षा छतरी प्रदान करते थे।

आज यदि दुनिया चीन बनाम क्वाड समूह में बंटेगी तो क्या क्वाड के देश उसी तरह अपने साझेदार देशों को वित्तीय और सैनिक मदद और सुरक्षा गारंटी देंगे जैसे कि शीतयुद्ध के दिनों में दोनों खेमों के नेता करते थे

शीतयुद्ध के दिनों का समीकरण सोवियत संघ बनाम अमेरिका से बदल कर कोविड बाद की विश्व व्यवस्था में क्वाड बनाम चीन में बदलता लगता है।

चीन का ख़ौफ़

शीतयुद्ध के दिनों में सोवियत संघ या अमेरिका जब दहाड़ते थे तब दुनिया सम्पूर्ण परमाणु विनाश के डर से कांपती थी। लेकिन आज चीन तो अपनी दादागिरी दिखाकर अपने समुद्री और ज़मीनी इलाकों का एकतरफा विस्तार करने में कामयाब होता लगता है। क्वाड की ओर से इसके ख़िलाफ़ दो टूक शब्दों में कोई साझा बयान जारी नहीं किया जाना इस बात का संकेत है कि चारों देशों के मन में चीन का ख़ौफ़ इतना है।

काग़ज़ का शेर

साफ है कि क्वाड एक कागजी शेर की तरह दिखता है, जो केवल इशारों में बयान तो जारी कर सकता है, चीन की दादागिरी को ख़त्म करने के लिये एकजुट होकर कोई सीधी कार्रवाई करने की चेतावनी देने से हिचक रहा है। अन्यथा क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि दक्षिण चीन सागर में जिन अंतरराष्ट्रीय सागरीय इलाक़ों में चीन ने डंके की चोट पर कृत्रिम द्वीप बना कर सेना तैनात करने के अलावा मिसाइलें लगा ली हैं, उसे चुनौती देने के लिये चारों देश मिलकर कहते कि चीन उन कृत्रिम द्वीपों को तुरंत छोड़े, वरना उसे इसके नतीजे भुगतने होंगे।

लेकिन चारों देशों ने  केवल यही बयान जारी कर संतोष कर लिया कि वे हिंद- प्रशांत इलाक़े में खुली आवाजाही को सुनिश्चित करने के लिये सभी देशों से अंतरराष्ट्रीय समुद्री क़ानूनों का पालन करने पर ज़ोर देंगे।

सहमा हुआ है चीन

पिछले साल सितम्बर के अंत में न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महाधिवेशन के दौरान चार देशों भारत, आस्ट्रेलिया, अमेरिका और जापान के विदेश मंत्रियों की पहली साझा बैठक क्वाड यानी चतुर्पक्षीय समूह के नाम से हुई थी, तब चीन के ख़िलाफ़ दुनिया में उतना उग्र माहौल नहीं था जितना आज है। छह अक्टूबर को तोक्यो में क्वाड्रीलेटरल ग्रुप क्वाड के नाम से साझेदार देशों के चारों विदेश मंत्रियों की साझा बैठक स्वतंत्र तौर पर हुई तो चीन जरूर इससे सहम गया है। 

लेकिन चीन के विस्तारवादी और आक्रामक रवैये के खिलाफ क्वाड एकजुट होकर खुल कर आज भी बोलने को तैयार नहीं दिखता। लेकिन इसके बयानों और जिस पृष्ठभूमि में क्वाड की बैठक हुई है, उससे चीन काफी चिढा हुआ है। चीन के प्रवक्ता ने इसे 'गिरोह' की संज्ञा दी है।

देखना यह होगा कि चीन की विस्तारवादी समर नीति के ख़िलाफ़ इस गिरोह से चीन कितना डरता है। क्वाड के बावजूद यदि चीन अपनी हरकतें नहीं रोक रहा है  तो साफ है कि वह यह समझता है कि क्वाड एक कागजी शेर है जो केवल दहाड सकता है।

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