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पूर्वांचल की 27 सीटों पर गठबंधन का सामना कैसे करेगी बीजेपी?

पूर्वांचल की 27 सीटों पर गठबंधन का सामना कैसे करेगी बीजेपी?

पूर्वांचल की कम से कम 16 सीटों पर गठबंधन को 2014 में जो कुल वोट मिले थे वे बीजेपी को मिले वोटों से काफ़ी ज़्यादा थे। ग्यारह सीटों पर बीजेपी आगे थी। तो क्या बीजेपी की मुश्किल नहीं बढ़ेगी?

2014 में जब नरेंद्र मोदी की बयार चल रही थी तब भारतीय जनता पार्टी ने सारी जातिगत गणित को ग़लत साबित करते हुए उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल की 27 सीटों में से 26 जीत ली थीं। इन सभी सीटों पर चुनाव छठे और सातवें चरण में होगा।

इस अप्रत्याशित परिणाम के दो मुख्य कारण थे। पहला तो यह कि यादवों को छोड़ कर सभी अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों ने बीजेपी के पक्ष में वोट दिया था। इनमें निषाद, मौर्या, पटेल, राजभर, कुशवाहा सभी शामिल थे। दूसरा, जाटवों के अलावा दलित वर्ग ने भी बीजेपी को जिताने में अपना योगदान दिया था।

एक और बड़ा कारण था कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का अलग-अलग चुनाव लड़ना।

2019 का चुनावी समर कई मायनों में अलग है। इस बार नरेंद्र मोदी भले अपने नाम पर वोट माँग रहे हों, लेकिन पहले जैसी लहर नहीं नज़र आ रही है। इस बार मोदी के आलोचक सोशल मीडिया पर बढ़-चढ़ कर उनके ख़िलाफ़ मुखर हो रहे हैं। ऐसा 2014 में नज़र नहीं आ रहा था।

बसपा-सपा और राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन ने बीजेपी की राह और मुश्किल कर दी है, विशेषकर, 12 मई और 19 को पूर्वांचल में होने वाले चुनावों में। ये क्षेत्र हैं जहाँ गठबंधन ने जातीय समीकरण अपने पक्ष में कर लिया है। रही-सही कसर प्रदेश सरकार में मंत्री ओम प्रकाश राजभर ने पूरी कर दी।

राजभर बीजेपी के लिए चुनौती

राजभर, जो पिछड़ी जाति से दलित वर्ग में शामिल होना चाहते हैं, पूर्वांचल की आबादी का 20 प्रतिशत हैं। ओम प्रकाश राजभर का यह कहना कि उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया है और उनकी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी 40 सीटों पर अलग से चुनाव लड़ रही है, बीजेपी के लिए पूर्वांचल में बड़ी चुनौती खड़ी कर रहा है। इतना ही नहीं, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी तीन- महाराजगंज, बाँसगाँव और संत कबीरनगर- लोक सभा सीटों पर गठबंधन की मदद करेगी। माना जाता है कि पिछले साल गोरखपुर संसदीय सीट के लिए हुए उपचुनाव में सपा-बसपा के अनौपचारिक गठबंधन ने बीजेपी को शिकस्त दी थी। उस वक़्त सपा-बसपा ने निषाद पार्टी के प्रवीण कुमार निषाद को गोरखपुर से टिकट दिया था और वह जीते भी थे। इस बार निषाद पार्टी के मुखिया डॉक्टर संजय निषाद ने आरोप लगाया कि गठबंधन ने उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया और वह बीजेपी के पाले में चले गए। लेकिन गठबंधन की तरफ़ से इस बार राम भुवल निषाद को टिकट दिया गया है जो यह सुनिश्चित करेगा कि पूरे के पूरे 14 प्रतिशत निषाद वोट बीजेपी को ना मिलें।

दूसरी तरफ़ कांग्रेस ने ओबीसी वोट बैंक को साधने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करोड़ों के घोटाले के आरोपी, उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री, बाबु सिंह कुशवाहा की जन अधिकार पार्टी के साथ समझौता किया है। 2014 में बाबु सिंह कुशवाहा की पत्नी सुकन्या दूसरे स्थान पर थीं। वैसे तो वह जन अधिकार पार्टी 2017 में विधानसभा चुनाव भी लड़ी थी और नगण्य वोट मिले थे लेकिन इस बार कांग्रेस का साथ पाकर उसकी उम्मीदें बढ़ी हुई हैं। कांग्रेस ने जन अधिकार पार्टी को झाँसी, चंदौली, एटा, बस्ती और गाज़ीपुर लोकसभा सीटें दी हैं।

इन छोटे-बड़े जातीय समूहों से बीजेपी को जो समर्थन 2014 में मिला था वह इस बार नहीं मिल रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में यदि देखें तो पूर्वांचल की कम से कम 16 सीटों पर गठबंधन को 2014 में जो कुल वोट मिले थे वे बीजेपी को मिले वोटों से काफ़ी ज़्यादा थे। ग्यारह सीटों पर बीजेपी आगे थी।

अब जबकि सपा-बसपा एकजुट हो कर चुनाव लड़ रहे हैं और यादवों के अलावा कई अन्य पिछड़ी जातियाँ गठबंधन के पक्ष या बीजेपी के विरोध में हैं तो परिणाम का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल नहीं लगता है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि चुनाव में सब गणितीय समीकरण की तरह ही सीधा और सरल हो।

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