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अकाली दल आज पंजाब में कहाँ खड़ा है?

अकाली दल आज पंजाब में कहाँ खड़ा है?

2022 के विधानसभा चुनाव में अकाली दल को शर्मनाक हार का मुँह देखना पड़ा था। अकाली दल 117 सदस्यों की विधानसभा में केवल 3 सीट ही जीत सका था। 2017 के विधानसभा चुनाव में हार से शुरू हुआ ये सिलसिला अब कितना लंबा चलेगा?

पंजाब के लोकसभा चुनाव के नतीजों से साफ़ हो गया है कि शिरोमणि अकाली दल ने पंजाब में अपना आधार खो दिया है। 13 सीटों पर चुनाव लड़ रहे अकाली दल के 10  सीटों पर उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई है। अकाली दल केवल एक सीट पर जीत दर्ज कर सकी व 11 सीटों पर चौथे स्थान पर रही। संगरूर की सीट पर अकाली दल 5वें स्थान पर पहुंच गई।

एक समय शिरोमणि अकाली दल एक बड़ी क्षेत्रीय राजनीतिक ताक़त के रूप में अपना अस्तित्व राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर रखता रहा जिसको कभी भी अनदेखा नहीं किय जा सका था। लेकिन सुखबीर सिंह बादल के नेतृत्व में आज जो हालत शिरोमणि अकाली दल की हो गई है वो अपने आप में बड़े सवाल सुखबीर सिंह बदल की राजनीतिक समझ, दूरदृष्टि और नीतियों पर खड़े करती है।

सुखबीर सिंह बदाल द्वारा पिछले कुछ महीनों से पूरे पंजाब में की गई की 'पंजाब बचाओ यात्रा' दरअसल परिवार बचाओ यात्रा ही साबित हुई है। केवल बठिंडा की सीट पर सुखबीर बादल की धर्मपत्नी बीबी हरसिमरत कौर कड़े मुक़ाबले में बमुश्किल जीत सकी हैं। हरसिमरत कौर अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी आम आदमी पार्टी के गुरमीत सिंह खुड्डियां से 49656 वोटों से जीती हैं। ये बीबी हरसिमरत कौर की चौथी जीत लोकसभा चुनावों में है। सुखबीर सिंह बादल ने अबकी बार लोकसभा चुनाव ही नहीं लड़ा। अकाली दल को इस सीट पर 32.7% वोट प्राप्त हुए जबकि आम आदमी पार्टी को 28.4% व कांग्रेस को 17.5% वोट मिले। अन्य सभी सीटों पर अकाली दल को मिले वोट से साफ़ जाहिर हो गया है कि अब अकाली दल से पंजाब में उसका परंपरागत मतदाता भी घोर निराशा में विमुख हो गया है। 2019 में शिरोमणि अकाली दल ने जहाँ 2019 के लोकसभा चुनाव में 27.45% मत हासिल किये थे वो अब घटकर केवल 13. 24% पर आ गए हैं। 

शिरोमणि अकाली दल की ऐसी हार के पीछे मुख्य कारकों में सुखबीर  सिंह बादल की नीतियों को जिम्मेदार माना जाता है। किसान आंदोलन के समय सुखबीर सिंह बादल की भूमिका पर अकाली दल के कट्टर समर्थक मतदाताओं ने गंभीर सवाल खड़े किये थे। 2022 के विधानसभा चुनाव में अकाली दल को शर्मनाक हार का मुँह देखना पड़ा था। अकाली दल 117 सदस्यों की विधानसभा में केवल 3 सीट ही जीत सका था। 2017 के विधानसभा चुनाव में हार से शुरू हुआ ये सिलसिला अब कितना लंबा चलेगा कहना मुश्किल है। 

2002 के विधान सभा चुनावों में हार की समीक्षा करने के लिए 13  सदस्यीय एक समिति अकाली दल द्वारा बलविन्दर सिंह भुंदर की अगुवाई में बनाई गयी थी। इसकी पड़ताल में सामने आये बिंदुओं पर काम करने के लिए इक़बाल सिंह झुन्डा को जिमेदारी दी गई थी ताकि अकाली दल को आनेवाले समय में आवश्यक सुधार करके और  संगठित किया जा सके। 

इक़बाल सिंह झुन्डा को अकाली दल ने अब लोकसभा चुनाव में संगरूर से अपना प्रत्याशी बनाया था लेकिन वो केवल 6.5% वोट ले कर 5वें स्थान पर रहे। फिरोजपुर से चुनाव लड़े नरदेव सिंह बॉबी मान और अमृतसर से अनिल जोशी ही अपनी जमानत बचा पाए।

अकाली दल से चुनाव में अपनी जमानत न बचा पाने वालों में खडूर साहेब से विरसा सिंह वल्टोहा हैं जिनको 8.7 % वोट प्राप्त हुए। सुखबीर बादल ने अपने पारिवारिक सदस्य आदेश प्रताप सिंह, जो पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों के बेटे हैं, के सुझाव के विरुद्ध विरसा सिंह वल्टोहा को प्रत्याशी बनाया था। इसके चलते काफी नाराज़गी के बाद एन वक़्त पर सुखबीर बादल ने आदेश प्रताप सिंह को पार्टी से ही निकल दिया था। जालंधर की सीट पर कांग्रेस से चुनाव से पहले दल बदल कर आये मोहिन्दर सिंह के पी को चुनाव में उतारा था उनको 6.89% ही वोट मिल सके। पार्टी के प्रवक्ता और अकाली दल के एक बड़े चेहरे दलजीत सिंह चीमा माझा की गुरदासपुर सीट पर चुनाव लड़े और 7.95 % ही वोट ले सके। लुधियाना के उम्मीदवार रणजीत सिंह ढिल्लों 8.27 % और होशियारपुर से सोहन सिंह ठंडल 9.73 % तक ही रह गए। खालसा पंथ की स्थापना के स्थान आनंदपुर साहिब की सीट पर पूर्व सांसद  प्रेम सिंह चंदूमाजरा कोई करिश्मा नहीं कर सके और 11.01 % वोटों पर ही सिमट गए।

सिख इतिहास में फतेहगढ़ साहेब का बहुत अहम् स्थान है। अकाली दल के उम्मीदवार विक्रमजीत सिंह खालसा वहां 13.13% मत अपने पक्ष में ला सके। पटियाला से अकाली प्रत्याशी एन के शर्मा को 13.44% मत मिले। फरीदकोट से राजविंदर सिंह धर्मकोट 13.68% वोट हासिल कर सके।

भारत की राजनीति में सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के बाद अकाली दल की साख कभी इतनी फीकी नहीं पड़ी जितनी आज के दौर में है। दुनिया भर में सिख समुदाय में अकाली दल के प्रति विशेष सम्मान व विश्वास की भावना हमेशा बहुत गहरी रही है। एक लम्बी विरासत पार्टी की बड़े अकाली जत्थेदारों ने हमेशा से पूरी शिद्दत से बनाई है।  मास्टर तारा सिंह, गोपाल सिंह कौमी से ले कर जगदेव सिंह तलवंडी, हरचंद सिंह लोंगोवाल, सुरजीत सिंह बरनाला, गुरचरण सिंह टोहड़ा, प्रकाश सिंह बादल और अब सुखबीर सिंह बादल तक आते आते पार्टी अपने अस्तित्व के लिए पंजाब में ही खुद को ढूंढ़ने को विवश हो गयी है।

सुखबीर सिंह बादल के 2008 में पार्टी प्रधान बनाये जाने के बाद अधिकतर वो बड़े बादल अपने पिता की छाया में कार्य करते दिखाई देते रहे। बाद के समय में स्वतंत्र कार्यशैली और लिए फैसलों की आंच से पार्टी की छवि कमजोर हुई है। किसान आंदोलन, इसमें एक बहुत बड़ा कारण रहा। हालांकि अकाली दल सिखों के हकों के लिए शुरू से ही मोर्चे पर रहा और उसकी भूमिका हर मोर्चा में महत्वपूर्ण रही और उसका सीधा और मजबूत लाभ अकाली दल को मिलता रहा लेकिन किसान आंदोलन के दौरान अकाली दल के विरोधाभास के कारण वह सीमित हो कर रह गया। उससे पहले पंजाब में अकाली दल की सरकार के रहते 2014 में हुए श्री गुरु ग्रन्थ साहेब की बेअदबी के मामले बहबल कलां कांड में भी अकाली दल की भूमिका ने गहरी चोट अकाली दल के नेतृत्व के साथ साथ पार्टी को पहुंचाई। डेरा सच्चा सौदा के मुखिया द्वारा गुरु गोबिंद सिंह का रूप धारण कर आयोजित अमृत प्रसाद वितरण की घटना के दोषी को अकाल तख्त से माफीनामा दिलवाना भी अकाली दल की छवि को धूमिल कर गया जिसमे साफ तौर पर सिख समुदाय के विश्वास को गहरी ठेस लगी। सुखबीर सिंह बादल की सत्ता की लालसा और महत्वाकांक्षा ने अकाली दल में लोगों के विश्वास को एक हद तक कमजोर कर दिया।  

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