पंजाब: गांधी की तसवीर की अनुपस्थिति के मायने!
कभी-कभी अनुपस्थिति उपस्थिति से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। यह भाग्य सबका नहीं कि वह न हो तो उसकी खोज होने लगे। भारत में एक के साथ है। वह गायब हो तो भी हाजिर रहता है।
जैसे गाँधी। एक बार फिर चर्चा में हैं। इस बार अनुपस्थिति के कारण। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के कमरे में उनके पीछे भगत सिंह और बाबा साहब आंबेडकर की तसवीरों को देखकर एक अनुपस्थित छवि की खोज की जा रही है। वह गाँधी की छवि है। 'आप' के समर्थक भी, जो इसे एक गाँधीवादी दल मानते हैं, दुखी हैं कि उसने गाँधी को हटा क्यों दिया।
दूसरे लोगों का कहना है कि गाँधी की कोई तसवीर मुख्यमंत्री कक्ष में थी ही नहीं, फिर हटाने का सवाल पैदा ही नहीं होता। कुछ लोग पैरवी कर रहे हैं कि इन दो के साथ गाँधी को भी लगा लीजिए। वैसे, यह बहस एक स्तर पर बेतुकी है और दूसरे लिहाज से दखें तो यह गाँधी के लिए सम्मानजनक भी नहीं है।
जहाँ भी दूसरे नेताओं की छवि हो, वहाँ गाँधी अनिवार्यतः हों, यह एक अशोभनीय जिद मालूम पड़ती है। गाँधी होते तो अपने ऐसे प्रशंसकों से कहते, मुझे माफ़ करो। अंबेडकर और भगत सिंह को मेरे साथ की आवश्यकता नहीं वैधता के लिए।
हर राजनीतिक दल को अपने प्रतीक, अपने आदर्श चुनने का अधिकार है। भारत एक है लेकिन एक नहीं है, यह विभिन्न भाषाई, सांस्कृतिक इलाकों में छवियों, प्रतीकों के इस्तेमाल से मालूम होता है।
मणिपुर, मिज़ोरम हो या केरल या कर्नाटक, हर जगह एक ही छवि एक ही तरह की स्मृति नहीं जगाती। ज़रूरी नहीं कि पेरियार के साथ गाँधी की तसवीर लगे। जब हम ज्योतिबा फुले को याद करें तो वह पूर्ण ही न हो जब तक गाँधी का जिक्र न आए। गाँधी को हर तरह की दाल में बघार नहीं बना देना चाहिए। इस अर्ह की शिकायत से गाँधी के अनुयायियों की असुरक्षा का ही पता चलता है।
आलोचक कह सकते हैं कि यह ऐसा कोई आम सार्वजनिक प्रसंग नहीं। मुख्यमंत्री के कक्ष में किसी तसवीर के होने का एक संदेश, एक आशय है: राज्य नीति की दिशा क्या होगी, यह उसका संकेत है। लेकिन पंजाब को जाननेवाले अच्छी तरह जानते हैं कि पंजाब का गाँधी के साथ रिश्ता ज़रा जटिल है।
गाँधी को लेकर पंजाब के लोग असुविधा महसूस करते रहे हैं। इस बात को समझ कर ही जाना जा सकता है कि भले ही सचेत रूप में नहीं, लेकिन गाँधी को अपने आदर्श दिशा निर्देशक के तौर पर आप सरकार ने क्यों नहीं पेश किया। मुझे एक घटना की याद आ गई। कोई 5 साल पुरानी बात होगी। अपने कुछ धर्मनिरपेक्ष मित्रों के साथ पंजाब में एक संवाद शृंखला की योजना पर चर्चा हो रही थी। चंड़ीगढ़ में गाँधी पर संवाद का प्रस्ताव आया। कुछ समय बाद बतलाया गया कि उनके नाम को लेकर मतभेद है। वह संवाद नहीं हो सका।
हमें बात करनी चाहिए थी कि गाँधी पर चर्चा से क्यों असहमति है। लेकिन हमने उसे टाल दिया। क्या पंजाब में गाँधी का स्वागत इसलिए नहीं है कि यह आम समझ बना दी गई है कि भगत सिंह की फाँसी रोकने के लिए गाँधी ने पर्याप्त प्रयास नहीं किया? ऐतिहासिक तथ्य कुछ और हैं और पेचीदा हैं लेकिन समाज की सामूहिक स्मृति जटिलताओं को सँभाल नहीं सकती। इसलिए मान लिया गया है कि अहिंसावादी गाँधी ने हिंसावादी भगत सिंह को फाँसी लगने दी। जैसे गाँधी पर यह इल्जाम कि उन्होंने भारत का विभाजन होने दिया। लेकिन यह मामला इतने तक ही नहीं है। इस आम समझ के चलते मुमकिन नहीं कि भगत सिंह और गाँधी की तसवीरें साथ-साथ लगें।
'आप' ने रणनीतिक दृष्टि से भगत सिंह का चुनाव पंजाब में किया, यह ठीक ही था। गाँधी पंजाब में किसी भावनात्मक रिश्ते के लिए सहायक नहीं है, भगत सिंह हैं। बाबा साहब भी दलित समुदाय से संबंध स्थापना के लिए उपयोगी हैं।
पंजाब में गाँधी किसी फौरी राजनीतिक लाभ देने के लिहाज से उपयोगी नहीं हैं। फिर 'आप' उनका उपयोग क्यों करती! यह पूछा जाए कि क्या चुनाव प्रचार में कांग्रेस ने ही गाँधी का कभी स्मरण किया था? किसी मूल्य की याद दिलाने के लिए? फिर 'आप' से ही शिकायत क्यों?
दूसरे, गाँधी के अतिशय राजकीय इस्तेमाल ने सामान्य जन मानस में गाँधी का वास्तविक अर्थ ही समाप्त कर दिया है। मुझे पंजाब के मुख्यमंत्री कक्ष में गाँधी की अनुपस्थिति से उतनी शिकायत नहीं जितनी भारतीय जनता पार्टी नीत सरकार के द्वारा गाँधी-छवि के अति प्रयोग से है। गाँधी इस सरकार के लिए एक सुंदर पात्र हैं जिसमें वह अपनी विचारधारा का विष भर कर लोगों को पिला रही है। जो सरकार मुसलमानों, ईसाइयों को प्रताड़ित और अपमानित करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ती, बल्कि उसके लिए नए नए तरीके ईजाद करती है, वह गाँधी-छवि का प्रयोग करे, यह गाँधी-विचार की विजय नहीं है। यह गाँधी को अर्थहीन कर देने का सबसे कारगर तरीका है। जिस दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने गाँधी को प्रातः स्मरणीय घोषित किया, उसी दिन हमने समझ लेना चाहिए था कि देश में एक दीर्घ कपट-काल का आरम्भ हो चुका है।
गाँधी के प्रति इस मिथ्या सम्मान को उनकी हत्या के एक दिन बाद ही लिखी कविता में नागार्जुन ने पहचान लिया था। गाँधी के प्रति आरएसएस के श्रद्धा निवेदन के छल को भी। जिस आरएसएस के नेता कुछ हफ्ता पहले गाँधी को खामोश कर देने की धमकी दे रहे थे, एक पूर्व स्वयंसेवक के द्वारा उनकी हत्या के बाद जब उन्होंने देश की जनता का रोष देखा, यह देखा कि
"... जनता सचेत है
कोटि-कोटि कंठों से निःसृत सुन-सुनकर आक्रोश
भगवा-ध्वजधारी दैत्यों के उड़े जा रहे होश
लगे बदलने दुष्ट पैंतरे....
.....
मृत्यु समय के तेरी सौम्य मुखाकृति की ही
छवि उतारकर
रुद्ध कंठ हो, सजल नेत्र हो
जन-समूह से माँग रहा है भीख क्षमा की
गाँव-गाँव में
गली गली में
नगर-नगर में
सत्य-अहिंसा शांति और करुणा, मानवता
तेरी बनी-बनाई टिकिया बाँट रहा है
.... काली टोपी जला-जला वह आज कर रहा
तेरी जय-जयकार।"
जिस आरएसएस ने गाँधी के खिलाफ हिंसा का प्रचार किया उसने उनकी हत्या के बाद 13 दिन के शोक की घोषणा की। नागार्जुन लिखते हैं,
" रोकर-धोकर थोक-ठठाकर
तेरह दिन तक शोक मनाकर
भले और कुछ नहीं हुआ हो
भस्मासुर की आयु तो बढ़ी!"
भारत में एक अजीब-सी बात है। उम्र बढ़ाने के लिए गाँधी-नाम का सेवन उनकी हत्या के 75 साल बाद भी कारगर बना हुआ है। आरएसएस के पोर-पोर में गाँधी के प्रति घृणा है। यह स्वयंसेवकों से ही नहीं, उसके समर्थकों से बात करने भर से मालूम हो जाता है। लेकिन शाखाओं में वे प्रातः स्मरणीय हैं। यह चतुराई है, धोखा है लेकिन किससे?
क्या हमने इसपर कभी सोचा है कि जो आरएसएस गाँधी की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा के कतई खिलाफ है, क्यों उसके एक स्वयंसेवक की सरकार गाँधी के आश्रमों पर अधिकार करना चाहती? क्यों वह उनको अपनी कल्पना में ढालना चाहती है? क्यों यह गाँधी-ग्रस्तता?
इसीलिए गाँधी-स्मरण या गाँधी जाप का अर्थ अनिवार्यतः गाँधी-दर्शन या गाँधी-मूल्य से सहमति नहीं है। वह उसके ठीक खिलाफ भी हो सकता है।
वैसे गाँधी को इतना खींचा गया है कि उनके नाम और दर्शन का तनाव ही समाप्त हो गया है। आम तौर पर गाँधी का नाम लेने में संकोच होना चाहिए। इसलिए कि उसकी पात्रता है या नहीं, यह पहले तय करना होगा। लेकिन जो गाँधी का नाम लेते हैं, वे गाँधी को नहीं, खुद को वैध साबित करना चाहते हैं।
ठीक ही है कि पंजाब में आप सरकार ने यह नाटक नहीं किया। यह उस प्रहसन का अगला अंक होता जो 2010, 2011 में गाँधी का रूप देकर एक विदूषक को सामने रखकर रचा गया था। उसकी कलई जल्दी ही उतर गई। लेकिन जैसे आरएसएस की कपट लीला से हमारे कई सुधीजन प्रभावित हैं, वैसे ही वे इस नई कलाबाजी से प्रफुल्लित हुए थे। वह जितनी जल्दी खत्म हो उतना अच्छा।
वैसे भी गाँधी और राज्य के बीच एक चिरंतन द्वंद्व रहा है। गाँधी का पूरा कार्यक्रम राज्य को अप्रासंगिक बना देने का है। स्वराज में स्व व्यक्ति का है और वह संप्रभु है। राज्य का उस पर कोई अधिकार नहीं हो सकता। क्या राज्य इतने सारे विविध और भिन्न स्व की सामूहिकता का प्रतिनिधित्व कर सकता है? या वह उन्हें नियंत्रित करके एक स्व में अनुकूलित करना चाहता है?
गाँधी की तसवीर रखने का मतलब है इस प्रश्न का रोजाना सामना करना। वह कौन करे?