‘न हिन्दू मरा है न मुसलमान मरा है, सत्ता है सुरक्षित पर इंसान मरा है...!’
एक बार फिर उग्रवाद ने कश्मीर को लपेट लिया। जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग पर सीआरपीएफ़ की टुकड़ी पर आत्मघाती हमले ने फिर से साबित कर दिया कि भारत आतंकवादियों के लिए सॉफ़्ट टार्गेट है। मीडिया की ख़बरों के अनुसार भारी मात्रा में विस्फोटक से लैस गाड़ी को एक उग्रवादी ने पुलिस बल के काफ़िले में टक्कर मार दी। हमले के तुरंत बाद राजनेताओं के बयान भविष्य के लिए स्पष्ट संकेत हैं। प्रधानमंत्री हों, सत्ता दल हो, विपक्ष हो, सभी ने संवेदनाएँ व्यक्त की। इस बीच इस बात का पुख्ता प्रमाण मिला है कि हमले की खुफ़िया पूर्व सूचना थी। प्रश्न है कि पूर्व सूचना के बावजूद यह दुष्कृत्य सरंजाम कैसे हुआ? देश की आंतरिक सुरक्षा-व्यवस्था क्या कर रही थी? स्पष्ट है कि निरीह जनता बेचारी पीड़ा से कराह रही है और राज्यसत्ता ने उन्हें रामभरोसे छोड़ दिया है।
सवाल है कि जब देश के सभी राजनैतिक दल जनता को आश्वस्त करने की बजाय अपनी स्थिति पर छोड़ रहे हैं, तो शासन-व्यवस्था की आवश्यकता ही क्या है?
पुलवामा हमला : अब इसलाम के नाम पर बरगलाया जा रहा है कश्मीर के युवाओं को
भारत में जहाँ प्रति एक लाख जनसंख्या (आम आदमी) पर 137 पुलिसवाले तैनात हैं, वहीं महज 13 हज़ार वीआईपी की सुरक्षा में 45 हज़ार पुलिसवाले नियुक्त हैं। और सरकारी सूत्रों के अनुसार 22% पुलिस विभाग में पद रिक्त हैं। 40 करोड़ तो अकेले राष्ट्रपति भवन की सुरक्षा में ख़र्च किये गए। भारत ने अपने प्रधानमंत्री के पिछले चार साल की विदेश यात्रा पर दो हज़ार करोड़ फूँके हैं।
गिनती भर आतंकी भी नियंत्रित नहीं हो सकते?
इससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि एक तरफ़ तो शासन के व्यवहार एवं बयानों से यह स्पष्ट है कि गिनती भर आतंकवादियों को नियंत्रित करना उसके बस का नहीं, अगले ही पल वही शासन 120 करोड़ जनता में तलाक़, सिगरेट, हेलमेट, बार बाला आदि विषयों को नियंत्रित करने का ठेका जबरन अपने ऊपर लेने के लिए अगर ज़मीन-आसमान एक करता है तो उसकी नीयत पर शक न किया जाय तो क्या किया जाय। बलात्कार, चोरी, डकैती, अपहरण, लूट, हत्या, आतंकवाद, भ्रष्टाचार आदि असली समस्याएँ जिस व्यवस्था से नहीं संभलती वह सामाजिक सुधार में इतनी तत्परता क्यों दिखाती है।
- सर्वमान्य सिद्धाँत है कि हर कोई अपनी-अपनी क्षमता को प्राथमिकताओं के आधार पर ही नियोजित करता है। प्रश्न है कि भारत की जनता की प्राथमिकता क्या है? सुरक्षा या समाज सुधार? सामाजिक न्याय हमारा अभीष्ट तो है, पर सुरक्षा की क़ीमत पर नहीं। क्योंकि अगर बाँस ही न रहे तो बाँसुरी कहाँ बजेगी।
रिपोर्ट : आतंकवादी घटनाएँ बढ़ी ही नहीं, ज़्यादा घातक भी होती गईं
अमेरिका जैसी कार्रवाई क्यों नहीं?
सन 2001 में अमेरिका पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ। आश्चर्य है वह दोबारा दोहराया नहीं जा सका। उलटे शासन ने उस हमले के सूत्रधार को ही बिल में घुसकर साफ़ भी कर दिया। क्या अंतर है भारत और अमेरिका में। अमेरिका ने 9/11 के बाद यह नीतिगत निर्णय ले लिया कि वह अपनी पूरी क्षमता पहले अपने नागरिकों की सुरक्षा पर लगाएगा, उसके बाद अगर क्षमता बचे तो वह समाज सुधार में। इसका प्रमाण है कि इन दस वर्षों के अंतराल में दो-दो अमेरिकी राष्ट्रपतियों की प्रिय स्वास्थ्य सुधार योजना को भी वहाँ की सदनों ने निरस्त कर दिया।
भारत में उल्टा क्यों हो रहा है?
भारत में इसके ठीक उल्टा हो रहा है। एक तरफ़ तो शासन ने आतंकवाद निरोधी धारा टाडा को निरस्त कर दिया, भ्रष्टाचार पर सशक्त लोकपाल विधेयक लाने में आना-कानी कर रहा है। दूसरी तरफ़ समाज सुधार के नाम पर तलाक़, गोकशी, नोटबंदी, आधार, मंदिर, इलेक्टोरल बॉंड्स जैसे विषयों में तत्परता दिखाता है।- इन्हें कौन समझाए कि मुर्गी को किसी भी तरीक़े से हलाल किया जाय इससे मुर्गी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। जनता जीवित रहेगी तब खाना, सिगरेट, तलाक़ आदि प्रश्न उठेंगे, मृत या शीघ्र ही मरने वालों के लिए ये किस काम के।
समय आ गया है कि भारत की राज्य व्यवस्था भी अपनी सीमित क्षमता केवल जनता को सुरक्षा एवं न्याय प्रदान करने में लगाए। समाज सुधार जैसी कृत्रिम मृग-मरीचिका अगर अब लम्बे समय तक जनता को दिखाने का प्रयास जारी रहा तो अव्यवस्था भी बढ़ेगी और सुरक्षा-ख़तरा भी। भगवान या जीवन में से शासन हम जनता को क्या दिलाएगा यह स्पष्ट करे।
ख़तरा : लोकल कश्मीरी का आत्मघाती हमलावर बनना भारत के लिए ख़तरनाक