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सामाजिक असंतोष भड़केगा तो छोड़नी होगी कुर्सी

सामाजिक असंतोष भड़केगा तो छोड़नी होगी कुर्सी

सूडान और फ़्रांस में जनता सड़कों पर उतरी है। भारत में भी किसानों की आत्महत्या की घटनाएँ और बेरोज़गारी बढ़ी है। क्या ऐसे आंदोलन केंद्र सरकार के लिए ख़तरे की घंटी हैं?

क्या सूडान और भारत का कोई रिश्ता है क्या सूडान में होने वाली घटनाओं को भारत से जोड़ा सकता है हम ऐसा क्यों कह रहे हैं। आइए, आपको बताते हैं। सूडान में इन दिनों रोटी की क़ीमत बढ़ने के ख़िलाफ़ लोग सड़कों पर हैं। प्रदर्शनकारियों की पुलिसकर्मियों के साथ हुई झड़प के बाद यह प्रदर्शन हिंसक हो गया है। इसमें अब तक 19 लोगों की मौत हो चुकी है और 219 से ज़्यादा लोग घायल हो चुके हैं। 

1974 में भारत में ऐसा ही एक आंदोलन हुआ जो छात्रों की कुछ माँगों से शुरू हुआ और भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी जैसे अहम मुद्दों को शामिल करता हुआ एक व्यापक जन आंदोलन बन गया। इस आंदोलन ने अजेय माने जानी वालीं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की सरकार को भी उखाड़ फेंका था। ऐसे में वर्तमान केंद्र सरकार को भी इससे सचेत हो जाना चाहिए। क्योंकि भारत में भी हाल ही में किसानों, आम लोगों ने अपनी आवाज़ जोरदार ढंग से उठाई है।

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कुल मिलाकर यह एक सामाजिक असंतोष है, जिसमें लोग व्यवस्था से परेशान होकर सड़कों पर प्रदर्शन करने को मजबूर हो जाते हैं। क्योंकि उनके पास जिंदा रहने के लिए ज़रूरी सामान जुटाना भी मुश्किल हो जाता है, वरना कोई क्यों सड़कों पर उतरकर अपनी जान की बाज़ी लगाना चाहेगा। 

भारत में भी महँगाई, बेरोज़गारी और किसानों की समस्याएँ प्रमुख हैं। इस साल अक्टूबर-नवंबर महीने में पेट्रोल और डीजल की क़ीमतें बहुत ज़्यादा बढ़ गई थीं। पेट्रोल तो 90 रुपये प्रति लीटर तक पहुँच गया था। लोगों ने इसे लेकर तीखी प्रतिक्रिया दी थी, जिसके बाद केंद्र सरकार को पेट्रोल और डीजल की क़ीमतों में कटौती करने को मज़बूर होना पड़ा था। 

दिल्ली आए थे किसान

हाल ही में देश भर के किसान दिल्ली में एकत्रित हुए और उन्होंने केंद्र की सरकार को चेताया था कि कर्ज़ माफ़ी और उनकी उपज के उचित मूल्य पर जल्द फ़ैसला लिया जाए। साथ ही स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को भी जल्द लागू किया जाए। किसानों की चेतावनी और उनकी नाराज़गी को अगर केंद्र या कोई भी राज्य सरकार नज़रअंदाज करती है तो उसके लिए सत्ता में वापसी करना बेहद मुश्किल है। केंद्र सरकार को यही बात समझाने किसान दिल्ली आए थे। 

एक सर्वेक्षण के अनुसार, नोटबंदी, जीएसटी और ई-कॉमर्स ने दुकानदारों, व्यापारियों की कमर तोड़ दी है। छोटा-मोटा काम करने वाले क़रीब 43 प्रतिशत लोग बेरोज़गार हो गए हैं।

देश में किसानों की हालत बेहद ख़राब है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़, पिछले तीन सालों में क़रीब 36 हज़ार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें सबसे आगे है महाराष्ट्र, जहाँ बीजेपी की ही सरकार है और राज्य में क़रीब 12 हज़ार किसान आत्महत्या कर चुके हैं।

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इसी महीने हुए तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी बेरोज़गारी और किसानों की कर्ज़माफ़ी बड़े मुद्दे थे। राजस्थान में तो बीजेपी और कांग्रेस ने सत्ता में आने पर बेरोज़गारों को भत्ता भी देने का वायदा किया था। साथ ही, तीनों राज्यों में किसानों की ख़राब हालत को देखते हुए इन राज्यों में विपक्षी दल कांग्रेस ने सत्ता में आने पर कर्ज़माफ़ी को मुद्दा बनाया था और इसका उसे चुनाव में लाभ भी हुआ। 

पिछले महीने आए एक ताज़ा सर्वेक्षण ने बेहद चौंकाने वाला दावा किया था कि नोटबंदी, जीएसटी और ई-कॉमर्स ने दुकानदारों, व्यापारियों और ग़रीब तबक़े की कमर तोड़ दी है। दुकानों व व्यापारिक गतिविधियों से जुड़ी कम्पनियों में काम करने वाले या अपना ख़ुद का छोटा-मोटा काम करने वाले क़रीब 43 प्रतिशत लोग बेरोज़गार हो गए हैं। यह सर्वेक्षण ‘ऑल इंडिया मैन्युफ़ैक्चरर्स ऑरगनाइज़ेशन' (आइमो) ने इसी अक्टूबर में किया है। सर्वेक्षण के मुताबिक़, दुकानदारों, व्यापारियों और उद्योगों के मुनाफ़े में भारी कमी आई है।

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बेरोज़गारी बढ़ी, आँकड़े भयावह

इस साल सितंबर में अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लिबरल स्टडीज ने स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया- 2018 नाम से रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट के आँकड़े बेरोज़गारी के बड़े ख़तरे की ओर इशारा करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़, 2013 से 2015 के बीच 70 लाख रोज़गार कम हुए हैं और इस कारण पढ़े-लिखे युवाओं में बेरोज़गारी दर 16 फ़ीसदी पहुँच गई है और यह बहुत ज़्यादा है।  

रिपोर्ट में कहा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि से रोजगार में कोई वृद्धि नहीं हुई है। जीडीपी में 10 फ़ीसदी की वृद्धि के बाद 1 फ़ीसदी से भी कम रोज़गार बढ़ा है। रिपोर्ट कहती है कि 82 फ़ीसदी पुरुष और 92 फ़ीसदी महिला कर्मचारी महीने में 10000 रुपये से भी कम कमाते हैं। 

हमने हाल ही में देखा था कि फ़्रांस में ईंधन की ऊँची क़ीमतों का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच जमकर झड़पें हुईं थी और पैरिस समेत कई शहरों में लगातार हिंसा हुई थी। लोगों ने प्रदर्शन के दौरान राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों को निशाना बनाया था और कहा था कि चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपने वादे पूरे नहीं किए। यह स्पष्ट संकेत है कि सामाजिक असंतोष की स्थिति में लोग राजनेताओं के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरते हैं और सरकारों को गिरा भी देते हैं।

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सूडान और फ़्रांस में हुए आंदोलन यह बताते हैं कि जनता में फैल रहे असंतोष को लंबे समय तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। जब लोगों को लगता है कि उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं मिल पा रही हैं तो वे सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं और जब सरकार उनका दमन करती है तो आंदोलन हिंसक हो जाते हैं। ऐसे में सरकारों को यह समझना होगा कि जनता से जुड़े मुद्दों पर ठोस काम करना बेहद ज़रूरी है, वरना उन्हें सत्ता से हटाने की ताक़त भी जनता के ही पास है।

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