धार्मिक आस्था के ये दुश्मन
इसलाम धर्म में 'नमाज़' उस इबादत का नाम है जिसे प्रत्येक वयस्क मुसलमान के लिये अनिवार्य माना गया है। नमाज़ के लिये पांच वक़्त विशेषकर निर्धारित किये गये हैं। पहली नमाज़ सूर्योदय से पूर्व पढ़ी जाती है जिसे ‘फ़जिर’ की नमाज़ कहते हैं। दूसरी अपराह्न में पढ़ी जाने वाली ‘ज़ोहर’ की नमाज़ कहलाती है। इसके कुछ ही देर बाद सायंकाल से पूर्व ‘अस्र’ की नमाज़ फिर सूर्यास्त के समय ‘मग़रिब’ और सूर्यास्त के कुछ देर बाद ‘ईशा’ की नमाज़ अदा करने का समय होता है।
शुक्रवार को ‘ज़ोहर’ के वक़्त पढ़ी जाने वाली साप्ताहिक नमाज़ की विशेष अहमियत होने के चलते प्रायः इसमें तुलनात्मक दृष्टि से ज़्यादा नमाज़ी इकट्ठे होते हैं।
आम तौर से जुमे की नमाज़ या ईद व बक़रीद जैसी वार्षिक नमाज़ों के वक़्त नमाज़ अदा करने वालों की तादाद इतनी हो जाती है कि मसजिद परिसर में वह नहीं समा पाती, लिहाज़ा मसजिदों या ईदगाहों के बाहर इन नमाज़ियों को अपने मुसल्ले बिछाने पड़ते हैं। फिर चाहे वह सड़क हो पार्क हो, कोई गली कूचा या सरकारी अथवा किसी का निजी प्लॉट।
भारत के धर्म प्रधान देश होने के नाते यहां सिर्फ़ मुसलमान ही अपनी धार्मिक आस्था का अनुसरण इस प्रकार यहां-वहां नमाज़ पढ़कर नहीं करते बल्कि लगभग सभी धर्मों व जातियों के लोग अपनी-अपनी धार्मिक आस्थाओं का प्रदर्शन किसी न किसी जुलूस, यात्रा, प्रवचन, नगर कीर्तन, जगराता, कांवड़ यात्रा, रामलीला, दशहरा, जगन्नाथ यात्रा, गणेश चतुर्थी, जुलूस-ए-मुहर्रम, माघ, कुंभ व अर्ध कुंभ, गरबा, डांडिया, छठ तथा अन्य मेलों के रूप में करते रहते हैं।
देश में किसी भी धर्म-जाति के लोगों को किसी भी धर्म-जाति के लोगों की धार्मिक आस्था संबंधी किसी भी गतिविधि को लेकर आज तक कोई आपत्ति, विरोध या टकराव सुनने को नहीं मिला। बल्कि एक दूसरे के धार्मिक आयोजनों में शरीक होने व उसमें एक-दूसरे के सहयोगी व भागीदार बनने की ख़बरें ज़रूर आती रही हैं।
परन्तु विगत कुछ वर्षों से कुछ दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी विचारधारा के चंद मुट्ठी भर लोग अलग-अलग संगठनों के बैनर तले सत्ता की शह पर कभी खुले आसमान के नीचे या पार्क अथवा प्लॉट में नमाज़ पढ़ने वालों का विरोध करते दिखाई दे जाते हैं तो कभी किसी की लाश क़ब्र में दफ़्न किये जाने का विरोध करने के लिये सड़कों पर उतर आते हैं।
मठ में मुसलमान
नमाज़ पढ़ने का विरोध करने वाली ताज़ातरीन ख़बरें चूँकि देश के एक शांतिप्रिय राज्य हरियाणा के महानगर गुरुग्राम से जुड़ी हैं इसलिये इसी राज्य की कुछ सद्भावपूर्ण मिसालें पेश करना भी ज़रूरी हैं। यमुनानगर से ख़िज़राबाद होते हुए हिमाचल प्रदेश की ओर जाते हुए रास्ते में हरियाणा-हिमाचल सीमा पर स्थित है 'कलेश्वर महादेव मठ'। यहां संत महानंदपुरी नाम के एक शिक्षित महंत रहा करते थे। उनके सहपाठी रहे हाफ़िज़ मोहम्मद साहब अपनी आयु के अंतिम समय तक इसी मठ में उनके साथ रहते थे।
भगवे वस्त्र में हाफ़िज़ साहब इसी मंदिर में आरती भी करते, प्रसाद भी बांटते और श्रद्धालुओं के मस्तक पर टीका भी लगाते। मंदिर परिसर में हाफ़िज़ साहब का एक निजी कमरा भी था जिसमें बैठकर वे इसी भगवे लिबास में नमाज़ भी पढ़ते, रोज़ा भी रखते और क़ुरान शरीफ़ भी पढ़ते।
कट्टरपंथियों ने किया विरोध
एक बार मुझे हाफ़िज़ साहब ने बताया कि कुछ कट्टरपंथियों ने महानंदपुरी जी से इस बात को लेकर आपत्ति दर्ज कराई थी कि एक मुसलमान व्यक्ति मंदिर परिसर में आरती पूजा, प्रसाद वितरण नमाज़, क़ुरान आदि क्यों करता है। परन्तु दबंग स्वभाव के महानंदपुरी जी ने साफ़ कह दिया कि जिसे मंदिर में आना हो आये और जिसे इस सर्वधर्म समभाव व्यवस्था से आपत्ति हो वह चाहे तो इस मंदिर में न आये परन्तु यहां की व्यवस्था ऐसी ही रहेगी। और इन दोनों ही 'महापुरुषों' के जीवन के अंत तक यह व्यवस्था ऐसे ही चली।
जब मैंने हाफ़िज़ साहब से उनकी नमाज़-क़ुरान और मंदिर व आरती में सामंजस्य बिठाने को लेकर रूढ़िवादी मुसलमानों के विचार जानने की कोशिश की तो उन्होंने एक शेर पढ़कर इसका जवाब कुछ यूँ दिया -
ज़ाहिद-ए-तंग-नज़र ने मुझे काफ़िर जाना।
और काफ़िर ये समझता है मुसलमान हूँ मैं।
इसी तरह एक बार मैं किसी कार्य वश हिमाचल प्रदेश के नाहन जा रहा था। नाहन से लगभग 5-6 किलोमीटर पूर्व मेरी नज़र एक मंदिर के बाहर थाली लेकर खड़े एक व्यक्ति पर पड़ी जो कि प्रसाद बाँटने के लिये मुख्य मार्ग पर खड़ा था। उसकी 'पहचान कपड़ों से' की जा सकती थी कि वह एक मुसलमान है। मैं रुका उससे प्रसाद लिया और मंदिर के अंदर बैठे पुजारी से मिला। पुजारी ने बताया कि वह मुसलमान व्यक्ति उसका दोस्त है। यहीं रहता है और यहीं नमाज़ क़ुरान आदि भी पढ़ता है और मंदिर की सभी गतिविधियों में सहयोग करता है।
ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिसमें न मुसलमान को मंदिर में नमाज़ व क़ुरान पढ़ने में आपत्ति है न ही पुजारी या महंत को उसके पढ़ने से।
मुंबई और चेन्नई की मिसाल
मुंबई के गणेश चतुर्थी के पंडाल में आयोजकों ने तब मुसलमानों को नमाज़ अदा करने दी जब बारिश के चलते उन्हें नमाज़ पढ़ने में दिक़्क़त आ रही थी। चेन्नई में कई वर्ष पूर्व आई भयंकर बाढ़ में मुसलमानों ने मसजिद के दरवाज़े सभी के लिये खोल दिये थे। सैकड़ों लोग उसी मसजिद में बना-खा रहे थे और अपनी आस्थानुसार पूजा पाठ कर रहे थे।
मैंने अपने बचपन से ख़ास तौर पर ग़ैर मुसलिमों को बड़ी संख्या में मसजिदों के बाहर अपने बीमार बच्चों या अन्य मरीज़ों को लेकर खड़े देखा है ताकि वे नमाज़ पढ़कर बाहर निकलने वाले नमाज़ी व्यक्ति से बीमार व्यक्ति पर फूँक मरवा सकें। उनकी मान्यता है कि नमाज़ी के फूँक मारने से शिफ़ा मिलती है।
आज देश में फ़क़ीरों की सैकड़ों मज़ारें हैं जिनकी देखभाल पूरी तरह से हिन्दू भक्तों द्वारा की जाती है।
2016 में पंजाब के जगराओं ज़िले के एक सिख बाहुल्य गांव के लोगों ने गांव की लगभग एक सदी पुरानी मसजिद के पुनर्निर्माण में गांव में रहने वाले एकमात्र मुसलिम परिवार की बढ़-चढ़कर मदद की तथा मसजिद का पुनर्निर्माण कराया।
सिख ग्रामीणों ने आर्थिक सहायता के अतिरिक्त मसजिद के निर्माण में भी सहयोग किया। ऐसी सैकड़ों मिसालें हैं जो यह साबित करती हैं कि हमारे देश की गंगा यमुनी तहज़ीब में संयुक्त रूप से त्यौहार मनाने की प्राचीन परंपरा रही है जिसे धार्मिक आस्था के ये मुट्ठी भर दुश्मन समाप्त करने पर आमादा हैं।