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समय रहते संभल जाइए मोदी जी, लोगों का ग़ुस्सा बढ़ रहा है!

समय रहते संभल जाइए मोदी जी, लोगों का ग़ुस्सा बढ़ रहा है!

नागरिकता क़ानून को लेकर चल रहे जोरदार विरोध के अलावा अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी हालात ठीक नहीं हैं। लोगों में ग़ुस्सा है और नरेंद्र मोदी को इसे समझने की ज़रूरत है। 

यह कहना अभी मुश्किल होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिमाग में क्या चल रहा होगा नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ जो ग़ुस्सा सड़कों पर दिखा उसकी तासीर पर वह कितने चिंतित होंगे या फिर चिंतित भी होंगे या नहीं सड़कों पर उतरे लोगों के आक्रोश में भी वह अपना फ़ायदा देख रहे हैं या फिर उन्हें लग रहा है कि कहीं यह ग़ुस्सा देश का मूड न बदल दे 

मोदी बेहद चालाक नेता हैं। उन्हें हर विपरीत परिस्थिति को अपने पक्ष में मोड़ने में महारत हासिल है। कई बार ऐसा लगा कि वह शायद फँस गये, पर वह हर बार बच निकले और पहले से अधिक कामयाब हुए। लेकिन इस बार लगता है कि उनके लिए बचकर निकलना आसान नहीं होगा। अभी तक चाहे वह नोटबंदी हो या फिर जीएसटी या फिर पुलवामा, लोगों में नाराज़गी तो दिखी पर ग़ुस्सा मन में ही घर कर रह गया, बाहर नहीं उमड़ा। इस बार लोगों ने खुलकर अपने ग़ुस्से का इज़हार किया, आगज़नी की और जैसे-जैसे पुलिस ने ज़्यादती की, असंतोष और भड़का। ऐसे में मोदी को संभलने की ज़रूरत है। 

मुझे याद आता है साल 2010। तब तक देश की अर्थव्यवस्था सरपट भाग रही थी। हालाँकि भ्रष्टाचार के आरोप भी ताबड़तोड़ लग रहे थे। राष्ट्रमंडल खेल और आईपीएल घोटाले की सब जगह चर्चा थी। लोगों में असंतोष तो था पर इस असंतोष को कहीं कोई आवाज नहीं मिल रही थी। देश वर्ल्ड कप क्रिकेट में डूबा था। भारत की जीत के साथ ही राष्ट्रवाद का नया ज्वार दिखने लगा था। उन दिनों बीजेपी हताश, निराश और बेबस दिख रही थी। पार्टी की हालत आज की कांग्रेस से रत्ती भर भी बेहतर नहीं थी। वह सिर्फ़ टीवी बहसों में ही दिखाई पड़ती थी। आडवाणी के बाद की पीढ़ी लोगों के ग़ुस्से को न तो समझ पा रही थी और न ही वह इसका फ़ायदा उठाने की हैसियत में थी। 

अन्ना आंदोलन से बदला विमर्श

मोदी और अमित शाह तब सिर्फ़ गुजरात तक ही सीमित थे। इस बीच अप्रैल, 2011 में अचानक लोकपाल का मुद्दा लेकर समाजसेवी अन्ना हज़ारे जंतर-मंतर पर आमरण अनशन पर बैठे गये और देखते ही देखते देश का विमर्श बदल गया। अन्ना हज़ारे और अरविंद केजरीवाल देश के पटल पर छा गये। इससे केंद्र में बैठी मनमोहन सरकार और कांग्रेस सकते में आ गये। जो काम विपक्ष में बैठी बीजेपी को करना था वह काम अन्ना हज़ारे ने कर दिया। लोग सड़कों पर उतरने लगे। जैसे आज दिल्ली से तिरुअनंतपुरम तक लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, वैसा ही तब भी हुआ था। 

“मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना” गाते, अन्ना टोपी पहने, हाथ में तिरंगा और मोमबत्ती लिए लोगों की बाढ़ आ गयी। यूपीए सरकार जब तक सँभलती तब तक हाल बुरा हो चुका था। 2012 में गुजरात की जीत के बाद मोदी बीजेपी के सबसे बड़े नेता बन गये। 2013 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी-कांग्रेस की सरकार बनी तो 2014 में केंद्र में मोदी की। दोनों की जीत का श्रेय सिर्फ़ और सिर्फ़ भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जो माहौल अन्ना के आंदोलनों ने बनाया था, उसको ही जाता है। बीजेपी और मोदी सही समय पर उपस्थित थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे बुरी हार मिली और बीजेपी को ऐतिहासिक जीत। 

मुहम्मद बौजीजी का आत्मदाह

यह वह दौर था जब अंतरराष्ट्रीय पटल पर आंदोलनों की झड़ी लगी हुई थी। अन्ना का आंदोलन अरब देशों के आंदोलनों से प्रभावित था। इसकी शुरुआत सबसे पहले ट्यूनीशिया में हुई थी। 17 दिसंबर, 2010 को सब्ज़ी की रेहड़ी लगाने वाले मुहम्मद बौजीजी नाम के एक मामूली इंसान ने राजधानी से 300 किमी दूर ज़िला मुख्यालय के सामने आत्मदाह किया था। इस ग़रीब आदमी की रेहड़ी को पुलिस की एक महिला अफ़सर ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया था! आरोप यह था कि बौजीजी ने घूस देने से इंकार कर दिया था। बौजीजी के साथ मारपीट की गयी। इस पर उसने बड़े अफ़सरों से न्याय की गुहार लगाई। जब वह हर तरफ से निराश हो गया तो उसने विरोध स्वरूप अपने ऊपर तेल छिड़ककर आग लगा ली। इस मामूली सी घटना ने पूरे देश को हिला दिया। लोग सड़कों पर उतर आये और 14 जनवरी, 2011 को राष्ट्रपति बेन अली को इस्तीफ़ा देना पड़ा। 

बौजीजी की मौत महज़ एक चिंगारी थी। ट्यूनीशिया के लोग आसमान छूती महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और राजनीतिक स्वतंत्रता की कमी से त्रस्त थे। “जास्मिन क्रांति” के नाम से मशहूर इस घटना ने आस-पड़ोस के देशों को अपनी चपेट में ले लिया। मिस्र इसका बड़ा उदाहरण बना।

मिस्र के 26 साल के एक लड़के ने एक दिन फ़ेसबुक पर लिखा - “अब बहुत हो गया। मैं विरोध में तहरीर चौक पर बैठने जा रहा हूँ।” गोइल ओमिन नाम का यह लड़का गूगल में काम करता था। राजनीति का उसका कोई इतिहास नहीं था। उसकी ही तरह असमा महफ़ूज़ नाम की एक लड़की ने एक वीडियो ब्लॉग बनाया और लोगों से आह्वान किया कि 25 जनवरी, 2011 को उसके साथ तहरीर चौक पर अनशन पर बैठें। हुस्नी मुबारक के तानाशाही रवैये से लोग परेशान थे। 25 जनवरी से तहरीर चौक क्रांति चौक में तब्दील हो गया। पुलिस और सेना ने इस आंदोलन को दबाने की भरसक कोशिश की। 800 से ज्यादा लोग मारे गये  अंत में मुबारक को गद्दी छोड़नी पड़ी। 

पिंजरे में क़ैद हुआ तानाशाह मुबारक

अब्दुल गमाल नासिर ने 1953 में क्रांति कर मिस्र को जो उम्मीदें दी थीं, मुबारक की तीन दशक की तानाशाही ने उन्हें ख़त्म कर दिया था। मिस्र में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी चरम पर थी। फिर दुनिया ने मुबारक को पिंजरे में क़ैद होकर अदालत में पेश होते देखा। एक तानाशाह का ऐसा अंत पूरी दुनिया के तानाशाहों के लिए एक संदेश था। उसके बाद लीबिया के कर्नल गद्दाफ़ी जैसे कई तानाशाहों को जनता ने अपदस्थ किया। इससे मध्य-पूर्व एशिया का राजनीतिक नक़्शा ही बदल गया। 

2011 में पूरी दुनिया में लोग सड़कों पर उमड़े थे। “आक्यूपाई वालट्रीट” आंदोलन के नाम पर हज़ारों-लाखों की तादाद में लोगों ने मॉस्को, न्यूयार्क, पेरिस, लंदन, बर्लिन, सिडनी जैसे बड़े शहरों में विरोध-प्रदर्शन किया। लैटिन अमेरिकी देशों में भी जनता पीछे नहीं रही।

पिछले दिनों हांगकांग में चीनी सख़्ती के बाद भी लोग लगातार सड़कों पर डटे हैं। चीन की समझ में नहीं आ रहा है कि वह इससे कैसे निपटे। कारण यह था कि हांगकांग की सरकार ने क़ानून में एक बदलाव किया था और इस क़ानून के अपराधियों को चीन भेजने का नियम बनाया था। बस फिर क्या था लोगों ने इसका विरोध किया और जनांदोलन खड़ा कर दिया। 

अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर हालात ख़राब

मैं यह नहीं कहता कि भारत में भी वैसा ही होने वाला है। मोदी को यह समझना चाहिये कि लोगों में ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा है। जिस तरह से एक समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है वह ख़तरनाक है। दूसरा, भारत की अर्थव्यवस्था बद से बदतर हो रही है। बेरोज़गारी 45 साल में सबसे अधिक है। खाद्य पदार्थों के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। प्याज़ सवा सौ रूपये किलो बिक रहा है। फ़ूड इनफ्लेशन दहाई में पहुंच चुका है। विकास के सारे सूचकांक लगातार गिर रहे हैं और लोग ख़र्च करने से बच रहे हैं। माँग लगातार घट रही है। बाज़ार में कोई उत्साह नहीं दिख रहा। ज़्यादातर उद्योगों में नकारात्मक ग्रोथ है। आयात-निर्यात में कमी आ रही है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। टैक्स की उगाही कम होती जा रही है। ख़र्चा बढ़ता जा रहा है और मोदी सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में प्रवेश कर गयी है। 

सरकार के पुराने आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था आईसीयू में जा चुकी है लेकिन इतिहास की सबसे अक्षम वित्त मंत्री नीरो की तरह कह रही हैं कि वह प्याज़ नहीं खातीं।

सपनों को पूरा करें हुक्मरान

नागरिकता संशोधन क़ानून की बारीकियाँ शायद बहुत लोगों को समझ में न आएं। पर लोग यह समझते हैं कि कब हुकूमतें जनता के ख़िलाफ़ हो जाती हैं। वह हुक्मरानों की सनक को भी बख़ूबी समझ लेती हैं। लोग मासूम हो सकते हैं पर बेवक़ूफ़ क़तई नही हैं। 72 साल के लोकतंत्र ने सिखा दिया है कि कैसे इंदिरा गाँधी जैसी अहंकारी प्रधानमंत्री को गद्दी से उतारा जाता है। नागरिकता संशोधन क़ानून के बहाने लोगों ने संकेत दे दिया है। उनका संदेश साफ़ है कि उन सपनों को पूरा करो जो 2014 में दिखाये थे और हमें जाति-धर्म के द्वंद्व में मत उलझाओ। 

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