हँसो मत, उन्हें एतराज़ है...
विख्यात चेक कवि मिरास्लाव होलुब की पंक्तियाँ हैं-
विदूषक क्या करते हैं
जब कोई नहीं,
कोई भी नहीं हँसता, माँ।
बहुत सारे राजनेताओं बल्कि किसी भी क़िस्म के सत्ताधारियों का स्वप्न एक ऐसी दुनिया है जहाँ कोई, कोई भी न हँसे। कम से कम ऐसी दुनिया जहाँ उन पर कोई न हँसे, वे अपने विरोधियों के ख़िलाफ़ हँसी को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की रियायत देने को तैयार रहते हैं। इसीलिए जब पश्चिम बंगाल में बीजेपी की एक युवा नेता को सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की एक फ़ोटोशॉप से हेरफेर की गई तसवीर को शेयर करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया तो वित्तमंत्री अरुण जेटली ने इसके ख़िलाफ़ एक ट्वीट किया जिसमें उन्होंने लोकतंत्र में व्यंग्य के महत्व को रेखांकित किया। वित्तमंत्री ने ऐसा ट्वीट तब नहीं किया जब प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ या किसी बीजेपी के मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर टिप्पणी करने पर लोगों को गिरफ़्तार किया गया। इसी तरह ममता बनर्जी ने अक्सर बीजेपी के नेताओं की तानाशाही प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है लेकिन उनके अपने राज्य में उनका विरोध करना या मज़ाक़ उड़ाना ख़तरनाक साबित हुआ है।
जब हम युवा थे और सामाजिक राजनैतिक आंदोलनों से जुड़े थे तो मध्यवर्ग की प्रवृत्तियों का मज़ाक़ उड़ाते हुए एक वाक्य बोलते थे - देश में भगत सिंह ज़रूर पैदा होना चाहिए लेकिन पड़ोसी के घर में, अपने बच्चे को तो सुरक्षित मध्यवर्गीय जीवन जीना चाहिए।
उसी तरह राजनेताओं का सिद्धांत यह है कि लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान ज़रूर होना चाहिए, लेकिन यह ज़िम्मेदारी सिर्फ़ हमारे विरोधियों की है। इसी तरह अभिव्यक्ति की आज़ादी ज़रूर होनी चाहिए, बशर्ते वह अभिव्यक्ति हमारे विरोध में न हो।
हम एक अजीब दौर में जी रहे हैं जबकि इंटरनेट और सोशल मीडिया के विस्तार की वजह से अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाना बहुत मुश्किल है क्योंकि नई टेक्नॉलजी और माध्यमों को बाँधना बहुत मुश्किल है। दूसरे, कुछ दशकों पहले तक अभिव्यक्ति के किसी व्यापक प्रसार वाले साधन का इस्तेमाल करना सिर्फ़ उनके लिए मुमकिन था जिनकी पहुँच छापाखाने या रेडियो स्टेशन तक हो सकती थी। बाक़ी लोगों के लिए तो चौराहे पर बात करना या दीवारों पर लिखने जैसे सीमित पहुँच के माध्यम थे। जैसे किसी वक़्त में लेख लिखना लेखक या पत्रकार नामक पेशेवर लोगों का काम था और कार्टून बनाना पेशेवर कार्टूनिस्टों का। अब कोई भी आदमी जिसके दिमाग में कोई विचार हो उसे सोशल मीडिया पर ठेल सकता है, जिसके भी दिमाग में कार्टून का कोई आइडिया आए वह फ़ोटोकॉपी के ज़रिये कामचलाऊ तसवीर बना सकता है, भले ही उसे चित्र बनाना न आता हो, जैसा बंगाल की उस बीजेपी नेता ने किया। इस मायने में अभिव्यक्ति के साधनों का लोकतांत्रिक विस्तार हुआ है।
आलोचना के प्रति अतिसंवेदनशीलता क्यों
लेकिन इसी के साथ कम से कम हमारे देश में आलोचना या मज़ाक़ के प्रति अतिसंवेदनशीलता बढ़ी है। देश में लोकतांत्रिक चेतना के विस्तार के साथ समाज के उन समूहों और वर्गों में भी अपने हक़ों और सम्मान के प्रति संवेदनशीलता बढ़ी है जिन लोगों में पहले यह चेतना नहीं थी। यह अच्छी बात है। मु्श्किल यह है कि व्यापक रूप से समाज में अपने लोकतांत्रिक कर्तव्यों के प्रति ज़िम्मेदारी कम हुई है। हम अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी के प्रति तो जागरूक हैं लेकिन इस आज़ादी के साथ दूसरे की बात सुनने की ज़िम्मेदारी भी जुड़ी हुई है, यह हम नहीं मानते। इससे असली संकट पैदा हुआ है।
तीखी आलोचना पर ट्रोल करते हैं हमला
व्यक्तिगत तौर पर मुझे तीस साल से ज़्यादा पत्रकारिता में हो गए और मेरा काम ही मुख्य रूप से व्यंग्य करने या असहमति व्यक्त करने का रहा है। पिछले कुछ वर्षों से यह महसूस होता है कि हम पर एक अदृश्य दबाव है कि ऐसी कोई बात न हो जाए जिसका लोग जानबूझकर ग़लत अर्थ निकाल लें या कोई आरोप लगा दें। पहले कई बार कई राजनेताओं के ख़िलाफ़ लगभग मुहिम चलाकर तीखे कार्टून बनाए लेकिन आमतौर उससे राजनेताओं के या पार्टी कार्यकर्ताओं के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा, बल्कि व्यक्तिगत मेल-मुलाक़ातों में उनका रुख़ यही होता था कि हम अपना काम कर रहे हैं, आप अपना, तो इसमें झगड़ा क्या है। अब सत्ताधारी बीजेपी के ख़िलाफ़ ख़ास तौर पर शीर्ष नेतृत्व के ख़िलाफ़ कार्टून बनाने पर तुरंत सोशल मीडिया पर ट्रोल सक्रिय हो जाते हैं कि आपको कांग्रेस से पैसा मिल रहा है, आप पूर्वग्रहग्रस्त हैं, कांग्रेस के ख़िलाफ़ क्यों नहीं कार्टून बनाते। मज़े की बात यह है कि यह आरोप लगाने वालों में मित्र भी है जिन्हें समझाने की भी व्यर्थ-सी कोशिश भी की कि भाई जो सत्ता में होगा उसकी तो आलोचना होगी, जब कांग्रेस सत्ता में थी तो हमने उसकी आलोचना की और फिर सत्ता में आएगी तो फिर करेंगे।
ऐसा नहीं है कि बीजेपी के विरोधी राजनेता पक्के लोकतांत्रिक हैं। आम तौर पर उनकी भी आलोचना सुनने या मज़ाक़ सहने की क्षमता कोई बहुत ज़्यादा नहीं है। दरअसल, बाक़ी पार्टियों का लोकतंत्र भी छोटी-छोटी तानाशाहियों का समुच्चय है।
ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, मायावती, किसी भी वर्तमान या पूर्व या भावी मुख्यमंत्री को ले लीजिए, एकाध अपवाद छोड़कर किस राज्य के स्थानीय मीडिया को उनकी आलोचना करने की आज़ादी है यूपीए सरकार के दौर में भी एकाध ताक़तवर राजनेता की वजह से पत्रकारों की नौकरियाँ जाने के क़िस्से कम नहीं हैं।
अब संगठित असहिष्णुता का दौर
पहले के दौर में या दूसरी पार्टियों के राज में जो असहिष्णुता कुछ अनियोजित-सी थी, बीजेपी ने उसको संगठित करके और असहमति को दबाने का एक सुनियोजित तंत्र बना डाला है। भावनाएँ आहत होने का नाटक करता और उसका राजनैतिक उपयोग करता इतना व्यापक सरकारी और ग़ैर-सरकारी तंत्र एक साथ जब सक्रिय होता है तो यह लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है। और इसी राजनैतिक प्रवृत्ति को पूरी मदद मिल रही है मीडिया को चला रही कॉर्पोरेट संस्कृति से। यह ग़ौर करने की बात है कि तमाम दुनिया में अख़बारों से नियमित राजनैतिक कार्टूनिस्ट ग़ायब हो रहे हैं। इस वक़्त राजनैतिक कार्टून का पुनर्जीवन हुआ है इंटरनेट के ज़रिये, वरना अख़बारों से तो यह विधा ख़त्म ही हो चली है।
एक अन्य चेक लेखक मिलान कुंदेरा से जब पूछा गया कि तत्कालीन पूर्वी यूरोप के देशों के लेखन में व्यंग्य का इतना ज़्यादा स्थान क्यों है तो उन्होंने कहा- हम छोटे देशों के लोग हैं। कभी नेपोलियन की सेनाएँ हमें कुचल देती हैं तो कभी हिटलर की। कभी समाजवाद के नाम पर हम कुचले जाते हैं कभी लोकतंत्र के नाम पर। बड़े देशों और बड़े आदर्शों का भयावह पहलू ही हमने देखा है, इसलिए हमारे सोचने में व्यंग्य प्रमुखता से होता है।
सत्ताधारी इसीलिए मज़ाक़ से चिढ़ते और डरते हैं। वह उनके आभामंडल को चीर कर उनका वास्तविक क़द दिखा देता है। इसीलिए लोकतंत्र के लिए यह ज़रूरी है। जहाँ कोई हँसेगा नहीं उस दुनिया में सच्चाई भी नहीं होगी। और यह लड़ाई आज के भारत में ज़्यादा कठिन हो गई है।