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इंदिरा जैसा संघर्ष तो प्रियंका ने किया लेकिन कब खड़ी होगी कांग्रेस?

इंदिरा जैसा संघर्ष तो प्रियंका ने किया लेकिन कब खड़ी होगी कांग्रेस?

कांग्रेस और उसके नेताओं को प्रियंका की तुलना इंदिरा से करने के बजाय संगठन को खड़ा करना होगा, वरना पार्टी को सियासी संकट से निकालना मुश्किल होगा। 

प्रियंका गाँधी ने सक्रिय राजनीति में उतरने के बाद जो पहला आंदोलन किया उसमें वह सफल रहीं। वह सोनभद्र नरसंहार के पीड़ित परिवारों के सदस्यों से मिलीं भी और बिना जमानत या किसी सरकारी कार्रवाई के उन्हें छोड़ भी दिया गया। प्रियंका गाँधी ने जिस दृढ़ता से इस मुद्दे को एक आंदोलन बनाने का प्रयास किया, वह शुरुआती दौर में सफल होता दिख रहा है। 

उत्तर प्रदेश की क़ानून व्यवस्था का सच छिपाए नहीं छुप रहा। यहाँ आये दिन हत्या-बलात्कार की घटनाएँ हो रही हैं और आम आदमी के साथ-साथ पुलिस तक को निशाना बनाने से बदमाश नहीं चूक रहे हैं। इस लचर क़ानून व्यवस्था में जो सबसे ज़्यादा पीड़ित वर्ग है वह है दलित, आदिवासी, पिछड़ी जाति व मुसलिम समाज। इस समीकरण ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को वर्षों तक सत्ता में टिकाये रखा था। प्रियंका गाँधी के इस क़दम के बाद इस वर्ग के लोगों में उनको लेकर एक आस और विश्वास ज़रूर पैदा हुआ होगा और कांग्रेस को उसे अब कायम रखने या और दृढ़ करने की ज़रूरत है। 

कांग्रेस कार्यकर्ताओं को अब हर उस मॉब लिंचिंग या दलितों पर होने वाले अत्याचार के ख़िलाफ़ संघर्ष करना होगा जो इन दिनों उत्तर प्रदेश में आम हो चली है। यदि वे ऐसा करने में विफल रहे तो आने वाले दिनों में राजनीति उनके लिए हार दर हार का चक्र बनकर रह जायेगी।

प्रियंका गाँधी जब भी राजनीति के मैदान में उतरती हैं, कांग्रेस उनमें इंदिरा गाँधी की छवि देखने लगती है। इस छवि को वह आम जनता के दिलो-दिमाग में भी बिठाने का प्रयास करती है। इस आंदोलन के दौरान भी ऐसा हुआ और प्रियंका-इंदिरा की तुलना जैसे बयान भी दिए गए। लोकसभा चुनाव से पहले जब प्रियंका ने गंगा यात्रा की तो ऐसे ढेरों प्रसंग मीडिया की सुर्खियाँ बने और सोशल मीडिया पर छाये रहे। अब प्रियंका गाँधी सोनभद्र नरसंहार के पीड़ित परिवारों मिल चुकी हैं तो फिर से सोशल मीडिया और मीडिया उनमें इंदिरा गाँधी की छवि तलाश रहा है। 

प्रियंका गाँधी के सड़क पर धरना देने की इंदिरा गाँधी के धरना देने से तुलना की जा रही है और सोनभद्र की उनकी यात्रा को बेलछी (बिहार) में हुए नरसंहार के बाद इंदिरा गाँधी के वहाँ के दौरे से जोड़ा जा रहा है।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब कांग्रेस के नीति-निर्धारक इस तरह का प्रचार या टोटकेबाज़ी का सहारा लेते हुए दिख रहे हैं। सोनिया गाँधी ने जब बेल्लारी का रुख किया था तब कांग्रेस के नेताओं ने इसकी तुलना इंदिरा गाँधी के चिकमंगलूर चुनाव से करनी शुरू कर दी थी। यही नहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में राहुल गाँधी के प्रचार की शुरुआत आदिवासी बहुल सीट धुलिया-नंदुरबार से शुरू कराकर कांग्रेस ने यह शिगूफ़ा छोड़ा था कि इंदिरा जी और पंडित नेहरू भी यहीं से प्रचार अभियान शुरू करते थे। पटना के गाँधी मैदान में राहुल गाँधी की सभा को भी ऐसे ही प्रचारित किया गया था। लेकिन नतीजा क्या हुआ? 

यह सही है कि बेलछी नरसंहार ने इंदिरा गाँधी को राजनीति में वापस स्थापित होने की नयी आशा दी थी। बेलछी, बिहार का पहला जातीय नरसंहार था। ये घटना 27 मई 1977 को हुई थी और इसमें 11 दलितों की हत्या कर दी गयी थी। इंदिरा गाँधी को जब इस घटना की जानकारी मिली तो घटना के क़रीब ढाई महीने बाद उन्होंने बेलछी जाने का फ़ैसला किया था। 

पटना से बेलछी जाने के लिए कार से आगे जाना नामुमकिन था, कुछ दूर तक इंदिरा गाँधी ने ट्रैक्टर पर बैठ कर यात्रा भी की लेकिन वह भी कीचड़ में फंस गया। इसके बाद 13 अगस्त 1977 को इंदिरा गाँधी हाथी पर सवार होकर बेलछी पहुँची थीं।

इंदिरा गाँधी के साथ उस तूफानी मौसम में पार्टी के कुछ कार्यकर्ता भी साहस के साथ खड़े रहे। और उन साहसी कार्यकर्ताओं के दम पर ही इंदिरा का काफ़िला राजनीति में आगे बढ़ा और वह चिकमंगलूर विजय के साथ संसद और सत्ता की कुर्सी तक पहुँचा। लेकिन आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस के पास वैसे कार्यकर्ता हैं। 

1977 का चुनाव हारने के बाद भी कांग्रेस विषम परिस्थितियों से गुजर रही थी। लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपनी जिद और साहस से उन विषम परिस्थितियों में भी पार्टी के कार्यकर्ताओं को नयी ताक़त दी और फिर से सत्ता हासिल की। प्रियंका गाँधी भी 30 घंटे तक चिनार के किले में डटी रहीं और अपने मक़सद में कामयाब भी हुई हैं। 

प्रियंका ने सड़क पर धरना दिया, चुनार के किले में स्थित सरकारी अतिथि गृह में रात गुजारी, जहाँ बिजली तक की सुविधा नहीं थी। रातभर कार्यकर्ताओं से बातें करती रहीं। लेकिन देश भर में कांग्रेस संगठन में जैसी हलचल दिखनी चाहिए थी वैसी नहीं दिखी।

कहाँ थे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता?   

प्रियंका गाँधी के साथ इस दौरान जितने भी नेता या कार्यकर्ता दिखाई दिए हैं वे सब बनारस से ही हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर, वरिष्ठ नेता प्रमोद तिवारी, श्री प्रकाश जायसवाल जैसे दर्जनों नेता कहाँ हैं, यह सवाल उठता रहा। क़रीब 24 घंटे बाद प्रमोद तिवारी राज्यपाल को ज्ञापन देते नजर आये तो 26 घंटे बाद राजबब्बर, राजीव शुक्ला, मुकुल वासनिक, जतिन प्रसाद और आरपीएन सिंह बनारस हवाई अड्डे पर सरकारी खानापूर्ति करते दिखे। इन नेताओं को क्या यह नहीं पता था कि जब वे हवाई अड्डे पर पहुँचेंगे तो गिरफ्तार कर लिए जायेंगे? वे दूसरे साधनों से भी रातों-रात मिर्जापुर पहुँच सकते थे? यही नहीं कांग्रेस का प्रदेश संगठन भी वहाँ नहीं पहुँच पाया? दूसरे राज्यों में इस गिरफ्तारी को लेकर कोई ख़ास स्वर सुनाई नहीं दिए। इस आंदोलन के जरिये प्रियंका गाँधी के दौरे को इंदिरा गाँधी के बेलछी दौरे से जोड़ने वाले कांग्रेस के नेताओं और नीति निर्धारकों को हक़ीक़त से रूबरू होना पड़ेगा। 

कांग्रेस और उसके नेताओं को इस तरह की टोटकेबाज़ी से ऊपर उठकर अपने संगठन को खड़ा करना होगा तभी इस तरह का प्रचार सही साबित हो पायेगा, वरना यह राजनीतिक गप्पबाज़ी ही बनकर रह जाएगा।

उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ समय में आपराधिक वारदातों का ग्राफ़ बढ़ा है। गाय के नाम पर हिंसा, दलितों के नाम पर मारपीट और अब नरसंहार, इसने सत्ता को घेरने के लिए विपक्ष को बड़ा मुद्दा दे दिया है। 

मायावती अपने भाई के ख़िलाफ़ चल रही सीबीआई की जाँच और छापे की कार्रवाई में उलझी हुईं हैं तो अखिलेश यादव लोकसभा में फिर से 2014 जैसे प्रदर्शन के कारण अपनी विफलता के सूत्र सुलझाने में उलझे हुए हैं। मायावती-अखिलेश गठबंधन टूटने के बाद कांग्रेस के लिए यह सुनहरा अवसर है कि वह प्रदेश में फिर से अपनी जगह स्थापित करे। 

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