क्या प्रधानमंत्री संविधान से नहीं, योग से लोकतंत्र को बचाएंगे?
हम सब के लिए यह हर्ष का विषय है कि भारत के प्रधानमंत्री को सम्मानित किया जा रहा है लेकिन भारतीय नागरिक होने के नाते यह शर्म का विषय भी है कि भारत का एक अखंड हिस्सा, मणिपुर 50 से अधिक दिन तक जलता रहे और प्रधानमंत्री एक बार भी राज्य की जनता को संबोधित न कर सके। महिलाओं और बच्चों की हालत बेकाबू है, राज्य की जनता का भाजपा के सीएम बीरेन सिंह पर भरोसा नहीं है इसके बावजूद पीएम मोदी ने एक बार भी प्रदेश को संबोधित नहीं किया। 60 हजार लोगों का घर उजड़ चुका है, लेकिन वहाँ हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है।
हालत ये है कि हिंसाग्रस्त इलाके में पुलिस थाने भी लूटे जा रहे हैं। संवैधानिक रूप से बाध्य भारत सरकार को अपने देश की जनता की रक्षा करनी ही चाहिए थी। पता नहीं कौन सी जिद थी कि प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक तक बुलाना जरूरी नहीं समझा, पता नहीं कौन सी जिद थी कि विपक्ष कहता रहा कि पीएम मणिपुर को संबोधित करें लेकिन उन्होंने नहीं किया। अब जब पीएम देश में नहीं है तो गृहमंत्री अमित शाह ने 24 जून को सर्वदलीय बैठक बुलाई। मैंने जब तक लेख को पूरा किया तब तक नहीं पता कि इस पर क्या ठोस बातचीत हुई, पर इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति के कारण विपक्ष नाराज़ था।
ताज्जुब तो यह है कि जिस जनता के भरोसे, भारत की सत्ता और इतने विशाल लोकतंत्र के प्रधानमंत्री ने सम्मान और वैभव पाया वो जलती और मरती रही लेकिन उन्होंने कुछ भी ऐसा नहीं किया गया जिससे यह हिंसा पूरी तरह रुक जाती। क्या भारत सरकार में इतना भी सामर्थ्य नहीं कि एक छोटे से राज्य में हो रही हिंसा से समय रहते निपटा जा सके? अगर सामर्थ्य है तो अभी तक ये हिंसा क्यों नहीं रुकी? और अगर सामर्थ्य नहीं है तो भारत किस तरह अपने पड़ोसियों से मुकाबला करेगा। जब देश की जनता को आपसी हिंसा से ही सुरक्षा नहीं प्रदान की जा रही है, कानून का शासन तक स्थापित नहीं हो पा रहा है तो कैसे आशा की जा सकती है कि भारत सुरक्षित हाथों में है?
योग का मीडिया प्रदर्शन और अमेरिकी राष्ट्रपति का डिनर यह साबित नहीं कर पाएगा कि भारत के प्रधानमंत्री का नेतृत्व भारत जैसे विशाल और जटिल लोकतंत्र के लिए एक सक्षम नेतृत्व है। एक व्यापारी, एलोन मस्क जिसके अपने कथनों की गति उसके बस में नहीं, जो सिर्फ धन कमाने वाली मशीन बन चुका हो उसके सत्यापन से प्रधानमंत्री के नेतृत्व को संदेह से परे नहीं किया जा सकता। सक्षम और सशक्त नेतृत्व की परिभाषा संवेदनशीलता की मांग करती है, राजनैतिक लाभ-हानि से परे नागरिकों के हितों की मांग करती है जिसे पूरा करने में वर्तमान प्रधानमंत्री और उनकी सरकार विफल रही है।
हो सकता है प्रधानमंत्री ने कभी न सोचा हो और न ही उनके सलाहकारों ने सोचने के लिए कहा हो कि बृजभूषण शरण सिंह और मणिपुर जैसे मामले हों तोइतने विशाल लोकतंत्र के प्रधानमंत्री को बहुत खुलकर बोलना चाहिए, यह राष्ट्र के लिए बहुत जरूरी है। जब तमाम शक्तिशाली महिलाओं के यौनशोषण के बावजूद बृजभूषण शरण जेल नहीं गए और देश में यह संदेश गया कि केंद्र सरकार अपने सांसद को बचा रही है और यह कि देश के प्रधानमंत्री को जरूरी नहीं लगा कि वह इस मुद्दे पर बोलें। उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि एक यौनशोषण करने वाले को किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा चाहे उसका कितना भी राजनैतिक नुकसान क्यों न उठाना पड़े।
उनके ऐसा न करने का परिणाम यह होगा कि आम जनता में उपस्थित ऐसे लोग जो महिलाओं को छेड़ने, बलात्कार करने और यौन शोषण के पहले थोड़ा बहुत सोचते और डरते रहे होंगे उनके मन से भी डर निकल गया होगा। अब वो सोचने लगे होंगे कि ऐसे मुद्दे से कभी भी बचा जा सकता है या कम से कम उनके अंदर से कानून से भय में कमी जरूर आयी होगी। निर्भया मामले के बाद देश में जो माहौल बना, उसे भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह मामले में प्रधानमंत्री की चुप रहने की जिद ने बहुत बिगाड़ दिया है और नुकसान पहुँचाया है।
ऐसा ही संदेश मणिपुर मामले में है। यदि पीएम मोदी ने खुलकर राज्य के मुख्यमंत्री से मई की शुरुआत में ही कह दिया होता कि हिंसा जारी रही तो वह उसे बर्दाश्त नहीं करेंगे, तो शायद स्थिति यहाँ तक नहीं पहुँचती। लेकिन तमाम लोगों के निवेदन के बावजूद पीएम नहीं बोले। यहाँ तक की मणिपुर के कई नेताओं का आरोप है कि उन्हें प्रधानमंत्री से मिलने तक का समय नहीं मिला। इससे कम से कम यह संदेश तो नहीं गया होगा कि प्रधानमंत्री हिंसा के खिलाफ हैं और वो भले ही कितनाभी राजनैतिक नुकसान हो जाए मणिपुर को जलने नहीं देंगे। अपने देश के लोगों के निवेदन पर भी न बोलने वाले प्रधानमंत्री जब बोले तो अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम’में बोले लेकिन वहाँ भी कभी भी बृजभूषण शरण सिंह और मणिपुर पर नहीं बोले! पता नहीं क्यों?
अमेरिका यात्रा पर गए पीएम मोदी वहाँ भी बोले लेकिन योग पर!
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 21 जून को योग दिवस के उपलक्ष्य में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में दुनिया भर के प्रतिनिधियों के सामने योग का प्रदर्शन किया। इस कार्यक्रम को ऐतिहासिक कहा गया। अखबारों ने छापा कि इस दौरान 135 देशों के प्रतिनधियों ने हिस्सा लिया। लगभग 45 मिनट तक चले इस कार्यक्रम में देश दुनिया की तमाम नामचीन हस्तियाँ शामिल हुईं। यहाँ भारत के प्रधानमंत्री योग का संदेश दे रहे थे और वहाँ भारत में एक राज्य, मणिपुर, 50 दिनों से चल रहे हिंसक संघर्ष के चलते ‘शीर्षासन’ करने को बाध्य है। 250 से अधिक चर्चों और 17 मंदिरों को जला दिया गया, 114 लोगों की मौत हो चुकी है और अनगिनत लोगों का विस्थापन हो चुका है।
कुकी और मेइती समुदाय के लोग एक दूसरे को देखना नहीं चाहते। कोई है जिसने दोनों के बीच विष का इतना बड़ा जंगल खड़ा कर दिया है जिसे काटने में हर तरफ असमर्थता और विफलता ही दिख रही है। अमेरिका दौरे पर गए प्रधानमंत्री टेस्ला और ट्विटर के मालिक एलोन मस्क से मिले, अमेरिका की प्रवासी भारतीय आबादी का अभिवादन स्वीकार किया इसके साथ रे डेलियो जैसे तमाम नामी उद्योगपतियों से भी मुलाकात की गई। योग दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री का ट्वीट भी आया, जिसमें उन्होंने योग के संबंध में कहा कि “योग कॉपीराइट से मुक्त, पेटेंट से मुक्त और रॉयल्टी भुगतान से मुक्त है। योग एकजुट करने वाला है; यह सभी के लिए, सभी जातीयताओं के लिए, सभी धर्मों के लिए, सभी संस्कृतियों के लिए है। योग पोर्टेबल है। योग वास्तव में सार्वभौमिक है।”साथ ही योग की दुनिया भर को जोड़ने और शांति स्थापित करने वाली क्षमताओं का हवाला देते हुए कहते हैं “वसुधैव कुटुंबकम के लिए योग”!
बोले तो वो व्हाइट हाउस में भी लेकिन उस पर फिर नहीं बोले जिस पर बोलने की आशा की गई, जिस पर वास्तव में उनसे सवाल किया गया था। उनसे सवाल किया गया कि उनकी सरकार अल्पसंख्यकों, पत्रकारों और आलोचकों के खिलाफ की जा रही ज्यादतियों के विषय में क्या कदम उठाने जा रही है लेकिन उन्हे तो ‘मन की बात’ करनी थी, उन्होंने जो जवाब दिया उसका प्रश्न से सीधा कोई संबंध नहीं था। भारत की बनी बनाई परंपराओं और व्यवस्थाओं का जिक्र करते हुए, प्रधानमंत्री ने कहा कि “लोकतंत्र हमारी आत्मा में है और हम इसे जीते हैं। यह हमारे संविधान में है। जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव का कोई सवाल ही नहीं है। भारत सबका साथ, सबका विकास और सबका प्रयास में विश्वास रखता है।”
यह उस सवाल का जवाब नहीं था जो पूछा गया था। प्रधानमंत्री के अपने देश में उनके अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी और जम्मू एवं कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अमेरिका में पीएम द्वारा लोकतंत्र पर की गई चर्चा पर सवाल करते हुए एक वाजिब प्रश्न पूछा, उन्होंने कहा कि “मुझे आश्चर्य है कि यह(लोकतंत्र) अभीतक जम्मू एवं कश्मीर तक क्यों नहीं पहुँचा। अब तो यहाँ केन्द्रीय शासन के 5 साल बीत चुके हैं।” वास्तविकता तो यह है कि अपने देश में पनप रही समस्याओं पर पर्दा डालने से भारत ‘विश्व-गुरु’ नहीं बन सकता। पर्दे को निष्ठुरता से खींचना पड़ेगा। विश्व-गुरु बनने के लिए विचारधारा के ‘बायोस’ को ‘अपडेट’ करना पड़ेगा, सुदर्शन चैनलों को कानून का आईना दिखाना होगा या साबित करना होगा कि भारत मंदिर या मस्जिद से नहीं संविधान के अनुच्छेदों से चलेगा।
योग पर जो ज्ञान संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के बाहर और ट्विटर पर दिया गया वह सही तस्वीर नहीं है। योग की जिस परिभाषा को पीएम मोदी को स्वयं भी जानना चाहिए और लोगों को भी बताना चाहिए उसकी चर्चा महात्मा गाँधी के निजी सचिव, महादेव हरिभाई देसाई ने पुस्तक ‘गीता एकॉर्डिंग टू गाँधी’ की प्रस्तावना में की है। योग की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा कि योग “आत्मा की वह स्थिरता जो व्यक्ति को जीवन के सभी पहलुओं को समान रूप से देखने में सक्षम बनाती है।”क्या प्रधानमंत्री जी ऐसा कर पा रहेहैं? योग सिर्फ सर के बल खड़े हो जाना और हाथ-पैरों को असंख्य तरीकों से खींच लेनेभर का नाम नहीं है। पिछली सदी के महानतम योग गुरु स्व. बीकेएस अइयंगर अपनी पुस्तक‘लाइट ऑन योगा’ में भगवद्गीता को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि “जब उसका मन, बुद्धि और आत्म (अहंकार) नियंत्रण में होते हैं, बेचैन इच्छा से मुक्त होते हैं, ताकि वे भीतर की आत्मा में आराम करसकें, तो एक व्यक्ति भगवान के साथ युक्त हो जाता है।”
गीता का लक्ष्य साफ है कि जो मन में अहंकार और जिद को पाले हुए है जिसका मन और बुद्धि उसके नियंत्रण से निकलकर किसी लाभ-हानि पर टिक गई है उसके लिए योग और पीटी में कोई विशेष अंतर नहीं है। योग इसीलिए विशेष है क्योंकि यह शारीरिक उठापटक से ATP के खर्च की विधा नहीं बल्कि मन की शुद्धता और शुचिता को प्रस्तावित करने वाला अभ्यास है जिसे किसी राजनैतिक लाभ-हानि के चश्में से देखने पर हासिल नहीं किया जा सकता है। मुझे नहीं पता प्रधानमंत्री इस विषय पर क्या सोचते हैं लेकिन जब वो देश के अहम सामाजिक मुद्दों पर अपनी जिद या मजबूरी/कमजोरी की वजह से चुप रह जाते हैं तब वह किसी भी तरह योग के विद्यार्थी नहीं नजर आते।
जब एक तरफ़ देश की जनता द्वारा बहुमत से सरकार बनाने के लिए चुना जाने वाला व्यक्ति जो अब प्रधानमंत्री हैं, वे कुछ नहीं बोलते तब दूसरी तरफ़ कॉंग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गाँधी जो कभी किसी समाजिक मुद्दे पर चुप नहीं रहीं, वह मणिपुर के लोगों से खुलकर अपील करने सामने आती हैं। जब प्रधानमंत्री न्यूयॉर्क में योग सिखा रहे थे तब काँग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गाँधी लगातार अलगाव और हिंसा की ओर बढ़ रहे पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर के लोगों से शांति, एकता और भाईचारे के लिए निवेदन कर रही थीं।
मणिपुर की व्यथा को शब्दों में बदलते हुए उन्होंने कहा कि “मणिपुर के प्रिय भाइयों और बहनों, पिछले लगभग 50 दिनों से हम मणिपुर में एक बड़ी मानवीय त्रासदी देख रहे हैं…..इस घटना ने राष्ट्र की अंतरात्मा पर एक गहरा आघात किया है।” भविष्य के भारत और उसके आगामी चरित्र पर चिंता व्यक्त करते हुए वह कहती हैं कि “आज हम एक निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं।
किसी भी राह पर चलने का हमारा चुनाव एक ऐसे भविष्य को आकार देगा जो हमारे बच्चों को विरासत में मिलेगा..।” सोनिया गाँधी को यह एहसास है कि महिलाओं की स्थिति ऐसे संघर्षों में क्या होती है और यह भी कि यदि महिलायें एक बेहतर स्थिति की अवधारणा अपने मन में बना लें तो उन्नत परिणाम आ सकते हैं। इसलिए अपने सम्बोधन में वह कहती हैं कि “मैं…अपनी बहादुर बहनों से यह अपील करती हूं कि वे इस खूबसूरत धरती पर शांति और सद्भाव की राह का नेतृत्व करें…मैं आप सभी से यह निवेदन करती हूं कि अपनी अंतरात्मा की आवाज को पहचानें।”सोनिया गाँधी मानवीयता का जो संदेश देना चाहती थीं वो उन्होंने अपने कुछ मिनटों के सम्बोधन में दे दिया।
लेकिन काश! यह सब देश के वर्तमान प्रधानमंत्री की तरफ से आया होता! मणिपुर के लोगों को इतनी त्रासदी न देखनी पड़ती, मणिपुर के हालात अलग होते! भारत जैसे लोकतंत्र में एक प्रधानमंत्री जो बहुमत की सरकार चला रहा हो उसमें अनंत बल होता है, असंख्य सुविधाएं और सलाहें होती हैं बस उसे अपने आप से मुट्ठी भर साहस और राजनैतिक इच्छाशक्ति हासिल करनी होती है, दुर्भाग्य से जिसे अभी तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हासिल नहीं कर पाए हैं।