प्रताप भानु मेहता का इस्तीफा: अंतहीन समझौतों के लिए खुलता रास्ता!
अशोका यूनिवर्सिटी से प्रोफ़ेसर प्रताप भानु मेहता के इस्तीफे के बाद उच्च शिक्षा संस्थानों में/की आज़ादी के प्रश्न पर बहस चल ही रही है। लेकिन अंग्रेज़ी में। अकादमिक स्वतंत्रता हिंदी का विषय नहीं है। इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि अशोका विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों की चिंता भी हिंदी नहीं रही है। यहाँ हिंदी से तात्पर्य राजभाषा नहीं है बल्कि एक भारतीय भाषा है कहने को।
अंग्रेज़ी भी अब भारतीय भाषा ही कहलाएगी लेकिन हमें मालूम है कि बावजूद अपनी लोकप्रियता के वह अंग्रेज़ी जो आपको ऊँचा ओहदा या ऊँचे ओहदेवालों की संगत दे सकती है, आज भी हिन्दुस्तान की आबादी के एक नगण्य अंश को ही उपलब्ध हो सकती है।
यह लिखना शिकायत-सा लगता है। ऐसा कहने या लिखने वाला एक रिरियाता हुआ, सफलता की दौड़ में फिसड्डी रह गया शिकायती। और शिकायतियों से सहानुभूति कम ही होती है। फिर भी कहना होगा कि सोनीपत की ज़मीन पर खड़े होकर आसमान छूने की जद्दोजहद में लगे हुए अशोका यूनिवर्सिटी की बेचैनी अगर हरियाणा के या भारतीय विश्वविद्यालयों में कोई कंपन पैदा नहीं कर सकी है तो उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यह संस्थान खुद को इन भारतीय शिक्षा संस्थाओं की बिरादरी का सदस्य मानता भी नहीं है। वह सोनीपत की ज़मीन में जड़ ज़माना नहीं चाहता।
अगर यह सवाल आप अशोका या उसके सहधर्मा जिंदल या शिव नाडर विश्वविद्यालय से करें तो वे आपको ऐसे कार्यक्रमों को फेहरिस्त पकड़ा देंगे जिन्हें “आउटरीच प्रोग्राम” कहा जाता है। इन कार्यक्रमों के जरिए परिसर के आसपास “गरीब” और “पिछड़े” बच्चों के लिए साक्षरता या आरंभिक शिक्षा का आयोजन किया जाता है।
लेकिन ये परिसर ऐसा करते हुए भी इस दरिद्र समाज के लिए ईर्ष्या के स्रोत ही बने रहते हैं और वे इस व्यापक समाज में अजनबियत के अलावा और कुछ पैदा नहीं करते।
ये परिसर आखिरकार अभिजन के अभिजन बने रहने या उसकी किलेबंदी करने का सरंजाम करते हैं। श्रेष्ठजन की श्रेष्ठता कैसे बहाल रहे? अगर श्रेष्ठता के लिए स्वतंत्रता की कीमत देनी हो तो सौदा क्या महँगा है? या क्या स्वतंत्रता को कुछ देर स्थगित नहीं रखा जा सकता ताकि श्रेष्ठता प्राप्त कर ली जा सके?
फिर श्रेष्ठता की ताकत के सहारे स्वतंत्रता भी हासिल की जा सकती है। यह भ्रम वह हड़बड़ी पैदा करता है जो प्रोफ़ेसर प्रताप भानु मेहता के इस्तीफे के बाद इस प्रकरण का पटाक्षेप करने की कोशिश में देखी जा सकता है।
क्या चीज़ है श्रेष्ठता?
श्रेष्ठता हमेशा ही जल्दबाज होती है और स्वतंत्रता की बलि दे सकती है। एक क्या बीसियों प्रताप को कुर्बान किया जा सकता है जिससे अशोका को श्रेष्ठता के लिए सुरक्षित किया जा सके। प्रश्न यह है कि यह श्रेष्ठता है ही क्या चीज़? क्या यह एक ब्रांड है? क्या श्रेष्ठता स्वतंत्रता के बिना और स्वतंत्रता क्या समानता के बिना संभव है? यह जनतांत्रिक प्रश्न है। लेकिन इसपर अकादमिक समुदाय ने ठहरकर विचार नहीं किया है।
जब-जब ये दोनों सवाल उठाए गए हैं, श्रेष्ठता के संधाता अधीर हो उठते हैं। यह अधीरता अकादमिक समुदाय में तब देखी गई थी जब आरक्षण का प्रश्न पहली बार उठा या दूसरी बार जब उच्च शिक्षा संस्थाओं में भी आरक्षण की माँग की गई। तब जनता के पैसे से ही चलनेवाले “श्रेष्ठ” संस्थानों के छात्र और अध्यापक भी विचलित और आंदोलित हो उठे थे।
जो श्रेष्ठता के समुदाय में शामिल हो गया उसकी रुचि उसके वृत्त को और विस्तृत करने में नहीं होती। मारामारी इस समुदाय में शामिल हो जाने भर की होती है। यह तब भी देखा गया जब खुद को श्रेष्ठ कहने वाले इन संस्थाओं ने अध्यापकों की नियुक्ति हो या छात्रों, अनुसूचित जाति और जनजातियों के आरक्षण की व्यवस्था को अप्रासंगिक माना।
एससी/एसटी प्रकोष्ठ क्यों नहीं?
आरक्षण को दरकिनार करके क्या भारतीय संविधान के अन्य मूल्यों की पैरोकारी की जा सकती है? यह सवाल कुछ पहले श्वेता दास और अविनाश डी सी ने पूछा था (https://rb।gy/xgbmsq)। संविधान के 93वें और 94वें संशोधन का पालन करने की बाध्यता से मुक्त करना क्या अपनी सुविधा के अनुसार संविधान की व्याख्या करना नहीं है? क्यों अशोका में अनुसूचित जाति और जनजाति प्रकोष्ठ नहीं है?
जो संस्थान जनता के कर के पैसे से चलते हैं वे तो संविधान के समानता हासिल करने के यत्न के साथ प्रतिबद्ध हैं लेकिन शेष को इसलिए छोड़ दिया जाए कि उन्हें श्रेष्ठजन के लिए श्रेष्ठता सुरक्षित करनी है?
यही तर्क दिल्ली के नौकरशाहों ने, जिनपर संविधान को लागू करने का दायित्व है अदालत में दिया जब उन्होंने अपने “संस्कृति” स्कूल को उस कानून से छूट देने की मांग की जो हर किसी को शिक्षा का अधिकार देता है। वे तर्क दे रहे थे कि हम पर श्रेष्ठता का इतना बड़ा दायित्व है, क्या आप हमें संविधान की बेड़ियों में जकड़ देंगे? हमें दौड़ने नहीं देंगे?
जियो विश्वविद्यालय श्रेष्ठ?
अभिजन को श्रेष्ठता का प्रलोभन देकर स्वतंत्रता से विरत किया जा सकता है। कुछ समय पहले जब सरकार ने श्रेष्ठ संस्थानों की छंटाई शुरू की तो सरकार से यह दर्जा हासिल करने की दौड़ में अशोका समेत वे सारे संस्थान शामिल थे जो निजी पूँजी की सरपरस्ती में चलते हैं। लेकिन अशोका को न तो पहली, न दूसरी सूची में जगह दी गई। अजन्मे जियो विश्वविद्यालय को यह तमगा दिया गया श्रेष्ठता की आशा में।
लेकिन उस अपमानजनक प्रक्रिया का विरोध तो छोड़ें, इसकी आलोचना भी इन संस्थानों की तरफ से नहीं की गई। क्योंकि उम्मीद थी कि आज नहीं तो कल शायद विशिष्टता की पदवी मिल ही जाए। इस सूची का लाभ उन ढेर सारी प्रक्रियाओं से छूट के रूप में मिलता जो दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं के लिए बाध्यकारी हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थान में जाति और भाषा का प्रश्न समानता के आदर्श से जुड़ा है। अशोका यूनिवर्सिटी में वह अंग्रेज़ी का एक वाक्य बेहतर तरीके से लिखने भर का सवाल है। जाहिर है उस परिसर के अध्यापक उस तनाव से मुक्त हैं जिनसे कुरुक्षेत्र या पंजाब विश्वविद्यालय की कक्षा रोजाना गुजरती है।
वह मात्र महत्वपूर्ण कक्षा नहीं है, उसे अपने भीतर की गैरबराबरी का भी अहसास है। इसलिए हर कक्षा का संघर्ष बराबरी के खयाल को असलियत में तब्दील करने का संघर्ष भी है। इस संघर्ष से किनारे रहकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करना थोड़ा अवसरवादी ही जान पड़ता है।
अशोका यूनिवर्सिटी से पूछा जा सकता है कि क्या कश्मीर पर सार्वजनिक रूप से बोले बिना या किसान आन्दोलन से एकजुटता दिखलाए बिना आप अपना अकादमिक काम नहीं करते रह सकते?
अपने पर्चे लिखना, पेशेवर विचार-विमर्श में भागीदारी क्या काफी नहीं? क्या अशोका के स्नातकों को नौकरी और बाहर के विश्वविद्यालयों में दाखिले की गारंटी काफी नहीं? क्या दुनिया के श्रेष्ठतम संस्थानों के साथ मेलजोल काफी नहीं? श्रेष्ठता का व्यावहारिक अर्थ और उपयोग यही तो है।
फिर प्रताप भानु मेहता जैसे लोगों के कारण जो अगर गैर नहीं तो अभिव्यक्ति के अतिरिक्त व्यापार में संलिप्त थे, अशोका के श्रेष्ठता के अभियान को क्यों बाधित होने देना चाहिए?
इसीलिए सबको प्रताप भानु मेहता के इस्तीफा प्रकरण को पीछे छोड़ने की जल्दी थी ताकि असली व्यावहारिक और अकादमिक प्रश्नों पर लौटा जा सके। अध्यापकों को उनका पाठ्यक्रम तय करने की आज़ादी होगी, क्या इसके लिए उन्हें अपने संरक्षकों का कृतज्ञ नहीं होना चाहिए? बिना यह सोचे कि यह तो शायद विश्वविद्यालय होने की न्यूनतम शर्त है। लेकिन प्रताप के इस्तीफे के बाद अशोका के कुलाध्यक्ष की बात अगर मानें अगर मानें तो अब यह भी नेमत है।
अशोका विश्वविद्यालय के अध्यापक समूह और छात्रों को इस कृपा के लिए संस्थापकों और संरक्षकों का कृतज्ञ होने को कहा जा रहा है। प्रताप का जाना वास्तविक नहीं, प्रक्रियागत मसला भर है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से जो एक बात अशोका जैसी संस्थाओं के सदस्यों को सीखनी चाहिए, वह यह कि एक जगह अगर संवैधानिक प्रतिबद्धता से समझौता किया गया तो वह अंतहीन समझौतों के लिए रास्ता खोल देता है।