उद्धव के घर कौन सी राजनीतिक गोटियाँ बिठाने गए थे प्रशांत किशोर?
लोकसभा चुनाव की चौसर बिछ गई है और हर राजनीतिक दल इस बिसात पर अपने-अपने मोहरे सजाने में व्यस्त दिख रहा है। लेकिन महाराष्ट्र में इस बार शिवसेना दुविधा में नज़र आ रही है। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठबंधन हो चुका है और अधिकाँश सीटों का बँटवारा भी, अब मात्र इसकी औपचारिक घोषणा होना शेष है।
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गठबंधन पर असमंजस में शिवसेना
साल 1984 से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक शिवसेना दो बार बीजेपी के साथ केंद्र की सरकार में हिस्सेदार बनी। लेकिन इस बार उसे, बीजेपी के साथ खड़े होना है या नहीं, यह यक्ष प्रश्न पार्टी प्रमुख के समक्ष खड़ा है। पार्टी के नेता गठबंधन के पक्ष में दिखाई दे रहे हैं तो पार्टी का झंडा उठाकर गली-मोहल्ले में चलने वाला शिव सैनिक केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को लेकर आक्रोशित दिखाई दे रहा है।
शिव सैनिक केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार से नाराज़ हैं और इसके कई कारण भी हैं। ये कारण पिछले साढ़े चार साल से पार्टी प्रमुख, वरिष्ठ नेताओं और पार्टी के मुखपत्र 'सामना' में छप रहे बयानों से जुड़े हैं।
किशोर के आने से उठे सवाल
ऐसे में चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर का मुंबई आना, शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे और पार्टी नेताओं से मिलना कई सवाल खड़े करता है। कुछ लोग इसे प्रशांत किशोर की महज व्यावसायिक मुलाक़ात बता रहे हैं तो कुछ का कहना है कि वे एनडीए के दूत बनकर आए थे। कहा जा रहा है कि प्रशांत किशोर चुनावों को लेकर अपनी रणनीति व आंकड़ों से उद्धव ठाकरे के समक्ष खड़ी हुई दुविधा को दूर करेंगे।
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प्रशांत किशोर को महज चुनावी रणनीतिकार नहीं माना जा सकता। वे एनडीए के सहयोगी दल जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं और पार्टी में नीतीश कुमार के बाद उन्हें ही अहमियत मिल रही है। साथ ही जेडीयू, बिहार में बीजेपी की महत्वपूर्ण सहयोगी है।
सांसद पक्ष में, शिव सैनिक ख़िलाफ़
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी की जीत का श्रेय प्रशांत किशोर को भी दिया जाता है। इसलिए यह चर्चा जोरों पर है कि प्रशांत किशोर व्यावसायिक नहीं राजनीतिक मक़सद से मुंबई आए थे। उद्धव ठाकरे वर्तमान में पार्टी नेताओं व साधारण शिव सैनिकों के वैचारिक मतभेद के बीच उलझे हुए हैं। जैसी ख़बरें विगत दिनों से आ रही हैं कि शिवसेना के सांसद बीजेपी से गठबंधन के पक्षधर हैं और शिव सैनिक इसके ख़िलाफ़।
शिव सैनिकों की इस नाराज़गी की वजह है पिछले साढ़े चार साल से बीजेपी और शिवसेना नेताओं के बीच चल रहा वाकयुद्ध। आरोप-प्रत्यारोप के इस खेल ने दोस्ती की उस नींव को कमज़ोर कर दिया है जो 35 साल पहले पड़ी थी।
शिवसेना महाराष्ट्र में हमेशा बीजेपी के बड़े भाई की भूमिका में रही है। लेकिन बाला साहेब ठाकरे के निधन और बीजेपी में बने नए शक्ति केंद्र (नरेंद्र मोदी-अमित शाह) के उदय ने इन रिश्तों में तल्खियाँ बढ़ा दीं।
प्रशांत किशोर अमित शाह के क़रीबी भी हैं और ख़ुद नीतीश कुमार इस बात को कह चुके हैं कि प्रशांत की नियुक्ति के लिए बीजेपी अध्यक्ष ने ही उन्हें कहा था। इसके अलावा प्रशांत, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस को भी राजनीतिक सलाह देने का काम करते हैं।
यह माना जा रहा है कि केंद्र में अपने दम पर सरकार बनाने में विफल रहने पर बीजेपी, वाईएसआर कांग्रेस से मदद ले सकती है। ऐसे में प्रशांत शिवसेना, बीजेपी को क़रीब लाने के साथ ही चुनाव बाद की परिस्थितियों में वाईएसआर कांग्रेस का समर्थन एनडीए को दिला सकते हैं। इसके अलावा प्रशांत का शिवसेना के पास जाना और वहाँ से किए गए ट्वीट में नीतीश कुमार को टैग करना इस बात को बताता है कि वह चुनाव बाद की परिस्थितियों में एनडीए के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश में हैं।
Thank you for your warm hospitality Uddhav ji and @AUThackeray.
— Prashant Kishor (@PrashantKishor) February 5, 2019
As part of NDA, we look forward to joining forces with you in Maharashtra to help secure victory in upcoming Lok Sabha elections & beyond. @nitishkumar https://t.co/I1F2JFlvAS
मोदी लहर से टूटे सियासी समीकरण
साल 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की जीत मोदी लहर बन गई और उस लहर ने राज्य के सियासी समीकरण तोड़ डाले। प्रदेश में शिवसेना की पिछलग्गू समझी जाने वाली बीजेपी ने अपने इस सहयोगी से नाता तोड़कर अलग विधानसभा चुनाव लड़ा और 122 सीटें हासिल कर सरकार बना ली। वर्षों से बड़े भाई की भूमिका में रहने वाली शिवसेना इस बदली हुई भूमिका में सत्ता में रहकर भी असहज दिखाई देती है और विरोधियों जैसे बयान देते रहती है।
अलग-अलग लड़े दोनों दल
2014 में हुए विधानसभा चुनावों से पूर्व जितने भी विधानसभा चुनाव शिवसेना-बीजेपी ने मिलकर लड़े, उनमें सीटों के बँटवारे का फ़ॉर्मूला 171 : 117 का था। लेकिन मोदी लहर के बाद बीजेपी, शिवसेना को 152 सीटें भी देने को तैयार नहीं हुई और गठबंधन टूट गया। बता दें कि महाराष्ट्र में विधानसभा की कुल 288 सीटें हैं। 2014 या उससे पहले के लोकसभा चुनाव में प्रदेश की कुल 48 सीटों में से शिवसेना 22 और बीजेपी 26 सीटों पर चुनाव लड़ती आई है।
बताया जा रहा है कि इस बार बीजेपी, शिवसेना को खुश करने के लिए उसे 24 सीटें देने पर भी राजी हो गई है, इसके बावजूद उद्धव ठाकरे से कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलने की वजह से मामला अटका हुआ है।
कड़वाहट करनी होगी दूर
यह भी ख़बर है कि उद्धव ठाकरे ने शिव सैनिकों के बीच जो अपने स्तर पर सर्वे कराया है, उसमें गठबंधन को लेकर राय विपरीत है। और इसी पहेली को सुलझाने के लिए शायद प्रशांत किशोर को एनडीए ने दूत बनाकर भेजा होगा, इसके कयास राजनीतिक गलियारों में लगाए जा रहे हैं।
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प्रशांत किशोर कितने सफ़ल हुए या होंगे, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन पिछले साढ़े चार साल से दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं में ज़मीनी स्तर पर जो कड़वाहट फैली है, उसे दूर कर पाना टेढ़ी खीर ही साबित होगा।
नहीं थम रहा शिवसेना-बीजेपी में टकराव
साल 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना-बीजेपी में टकराव का जो सिलसिला शुरू हुआ वह थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। मुम्बई महानगरपालिका चुनाव हों या कल्याण महानगरपालिका चुनाव, बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। इन दोनों जगहों पर शिवसेना को सत्ता पर काबिज होने के लिए मनसे या निर्दलीय नगरसेवकों का सहयोग लेना पड़ा। टकराव की वजह से आज भी शिव सेना के खाते का केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक पद रिक्त पड़ा है।
बीजेपी ने शिवसेना को दो पद देने की बात कर सुरेश प्रभु व अनिल देसाई को दिल्ली बुलाया था। लेकिन दिल्ली पहुँचकर सुरेश प्रभु द्वारा बीजेपी में जाने की ख़बरें मिली तो उद्धव ठाकरे ने अनिल देसाई को हवाई अड्डे से ही वापस बुला लिया। ऐसी ही स्थिति राज्य मंत्रिमंडल में भी है। शिवसेना के खाते के कई मंत्रियों के पद रिक्त ही पड़े हैं। यही नहीं राज्य सरकार के अनेक महामंडलों के चेयरमैन पद भी इसी लड़ाई में खाली पड़े हैं। सियासी रस्साकसी की यह कठिन पहेली खेल मात्र गठबंधन से ही हल हो जाएगा, यह कहना मुश्किल है।