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प्रशांत भूषण अवमानना केस 100 साल पहले गाँधी ट्रायल की याद क्यों दिलाता है?

प्रशांत भूषण अवमानना केस 100 साल पहले गाँधी ट्रायल की याद क्यों दिलाता है?

यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि क़रीब 100 साल पहले 1922 में महात्मा गाँधी को लिखने के कारण जो आरोप और दोषारोपण झेलने पड़े, वो ही आरोप और दोषारोपण आज वकील प्रशांत भूषण को भी झेलने पड़ रहे हैं।

इतिहास हर व्यक्ति को जीवन में हमेशा एक मौक़ा ऐसा देता है जब आप एक साधारण व्यक्ति से ऊपर उठकर उन लोगों में अपना स्थान बना लेते हैं जिनको उनके त्याग और तपस्या के लिए समूचा संसार याद रखता है। वो पल ही निर्णय करता है कि आप भविष्य में लिखे जाने वाले इतिहास के उस स्वर्णिम पन्नों में अपने उच्चतम त्याग के लिए कैसे रेखांकित और कलमबद्ध किए जाएँगे। साल 2020 में इतिहास ने फिर से एक वकील के दरवाज़े पर दस्तक देकर कहा है कि समय आपको इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज करने के लिए आमंत्रित कर रहा है। यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज से क़रीब 100 साल पहले 1922 में ग़ुलाम भारत में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को लिखने के कारण जो आरोप और दोषारोपण झेलने पड़े, वो ही आरोप और दोषारोपण आज मानवाधिकार के मामलों के लिए पिछले तीन दशक से लड़ाई लड़ रहे वकील प्रशांत भूषण को भी झेलने पड़ रहे हैं।

गाँधी जी का ट्रायल

बात 1922 की है महात्मा गाँधी और शंकरलाल घेलाभाई बैंकर, क्रमश: युवा भारत (यंग इंडिया) के संपादक और प्रिंटर एवं प्रकाशक थे। दोनों पर 29 सितंबर 1921 और 15 दिसंबर 1921 तथा 23 फ़रवरी 1922 को यंग इंडिया में प्रकाशित तीन लेखों के लिए गंभीर आरोप लगाए गये। अदालत के सामने लेखों का पढ़ा गया। उनमें से पहला था ‘वफादारी के साथ छेड़छाड़’; और दूसरा, ‘पहेली और इसके समाधान', और अंतिम था ‘प्रेतों को हिलाना (शेकिंग द मेन्स)’। अंग्रेज़ी सरकार के एडवोकेट जनरल ने गाँधी जी पर आरोप लगाते हुए कोर्ट में कहा कि आरोपों की गंभीरता और वांछनीयता को देखते हुए कि उनकी पूरी जाँच होनी चाहिए। 

न्यायाधीश ने दोषियों की याचिका स्वीकार करने का फ़ैसला किया। एडवोकेट जनरल ने इस तथ्य पर ज़ोर दिया कि गाँधी जी का लेख सरकार के ख़िलाफ़ था। ये लेख सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए खुले तौर पर और व्यवस्थित रूप से, असहमति फैलाने के लिए एक नियमित अभियान का हिस्सा थे।

एडवोकेट जनरल ने आगे कहा कि इसके अलावा लेखक (महात्मा गाँधी) उच्च बौद्धिक शक्ति और एक मान्यता प्राप्त नेता हैं। यंग इंडिया एक बहुचर्चित पेपर है, इसमें लिखे गये लेख ने एक अभियान का काम किया। लोगों को भड़काया, बॉम्बे और चौरी-चौरा में दंगे हुए, लोगों की हत्याएँ की गयीं और संपत्ति को लूटा गया। एडवोकेट जनरल ने न्यायाधीश से "बम्बई, मालाबार और चौरी चौरा में दंगा और हत्याओं के लिए अग्रणी घटनाओं का ध्यान रखने का अनुरोध किया। गाँधी जी पर आरोप लगाते हुए कहा गया कि आप लगातार सरकार के प्रति असंतोष का उपदेश देते हैं, और उसे एक विश्वासघाती सरकार सिद्ध करते हैं, और आप खुले तौर पर और जानबूझ कर दूसरों को उसे उखाड़ फेंकने के लिए भड़काने की कोशिश करते हैं तो ये गंभीर अपराध है"। एडवोकेट जनरल ने न्यायाधीश से आरोपियों को सज़ा सुनाने के समय इन परिस्थितियों पर विचार करने के लिए कहा।

आरोपों पर महात्मा गाँधी का जवाब 

गाँधी जी ने अपने ऊपर लगे आरोपों पर मौखिक और लिखित बयान कोर्ट को दिया, लिखित बयान के पहले गाँधी जी बोले,

“मैं विनम्रता के साथ अपने संबंध में एडवोकेट जनरल की टिप्पणी का पूरी तरह से समर्थन करता हूँ। मुझे लगता है कि उन्होंने ऐसा कहा है, क्योंकि यह बिल्कुल सच है और मैं इस अदालत से इस तथ्य को छिपाना नहीं चाहता कि सरकार की मौजूदा सिस्टम के प्रति असंतोष का प्रचार करना मेरे लिए लगभग एक जुनून बन गया है, और मुझे लगता है कि जब एडवोकेट जनरल यह कहते हैं कि मेरे द्वारा असंतोष की भावना का प्रचार यंग इंडिया के साथ अपने जुड़ाव की वजह से नहीं है, बल्कि यह बहुत पहले शुरू हो गया है, तो वे पूरी तरह से सही हैं, और अब जो बयान मैं पढ़ने जा रहा हूँ, उसमें इस अदालत के समक्ष यह स्वीकार करना मेरे लिए तकलीफदेह कर्तव्य होगा कि यह एडवोकेट जनरल द्वारा कही जाने वाली अवधि की तुलना में काफ़ी पहले शुरू हो गया था।"

गाँधी जी कहते हैं, 

“यह मेरे साथ एक तकलीफदेह कर्तव्य है, लेकिन मुझे अपने कर्तव्य का निर्वहन करना होगा क्योंकि इसकी ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर टिकी हुई है, और मैं एडवोकेट जनरल द्वारा बंबई की घटनाओं, मद्रास और चौरी चौरा की घटनाओं के संबंध में मेरे कंधों पर डाले गए सभी दोषों का समर्थन करना चाहता हूँ। इन बातों पर गहराई से सोचने और कई-कई रातों को उनके साथ सोने के बाद, मुझे लगता है कि चौरी चौरा की ख़तरनाक अपराधों या बंबई के पागल दंगों से ख़ुद को अलग करना मेरे लिए असंभव है। वे बहुत सही हैं जब उन्होंने कहा कि एक ज़िम्मेदार आदमी के रूप में, एक ऐसे आदमी के रूप में जिसे अच्छी शिक्षा मिली हो, जिसने इस दुनिया का पर्याप्त अनुभव प्राप्त किया हो, मुझे अपने सभी कृत्यों के नतीजे का पता होना चाहिए था। मैं उन्हें जानता हूँ। मैं जानता था कि मैं आग के साथ खेल रहा था। मैंने जोखिम उत्पन्न किया था और मुझे मुक्त किया गया, तो मैं फिर से ऐसा ही करूँगा।

आज सुबह मैंने महसूस किया कि अभी-अभी मैंने यहाँ जो कुछ कहा यदि वह नहीं कहता तो मैं अपने कर्तव्य में असफल हो जाता।“

ब्रिटिश जज का फ़ैसला

गाँधी जी का ट्रायल करने वाले जस्टिस सी. एन. ब्रूमफ़ील्ड अपने आदेश में कहते हैं,

“मि. गाँधी, आपने अपना गुनाह कबूल करके मेरा काम आसान कर दिया है। फिर भी, जो कुछ भी है, अर्थात् केवल एक वाक्य का निर्धारण, ये शायद उतना ही मुश्किल है जितना कि इस देश में एक न्यायाधीश के रूप में इस बात का सामना करना। क़ानून व्यक्तियों का सम्मान नहीं करता। फिर भी, इस तथ्य को नज़रअंदाज़ करना असंभव होगा कि आप किसी भी ऐसे व्यक्ति से अलग श्रेणी में हैं जिन पर मेरे सामने मुक़दमा चला है, और शायद ही आगे चलने की कोई संभावना है। इस तथ्य को भी अनदेखा करना असंभव होगा कि आप लाखों देशवासियों की नज़र में एक महान देशभक्त और एक महान नेता हैं, यहाँ तक ​​कि वे सभी जो राजनीति में आपसे अलग हैं, वे भी आपको उच्च आदर्शों और महान और यहाँ तक ​​कि संत जीवन के व्यक्ति के रूप में देखते हैं। मुझे आपके साथ केवल जज के एक किरदार में काम करना है। यह मेरा कर्तव्य है कि क़ानून के अधीन एक व्यक्ति के रूप में न्याय करूँ, जिसने क़ानून को तोड़ा है, और मैं मानता हूँ कि एक साधारण व्यक्ति को इस तरह के क़ानून के ख़िलाफ़ गंभीर अपराध का आरोपी होना चाहिए। मैं यह नहीं भूलता कि आपने लगातार हिंसा के ख़िलाफ़ प्रचार किया है, या कि आपने कई मौक़ों पर, जैसा कि मैं विश्वास करने को तैयार हूँ, हिंसा को रोकने के लिए बहुत कुछ किया है।”

जज अपने आदेश के अंत में कहते हैं कि “इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि मैंने आज तक जिनकी जाँच की है अथवा करूँगा आप उनसे भिन्न श्रेणी के हैं। इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि आपके लाखों देशवासियों की दृष्टि में आप एक महान देशभक्त और नेता हैं। यहाँ तक कि राजनीति में जो लोग आपसे भिन्न मत रखते हैं वे भी आपको उच्च आदर्शों और पवित्र जीवन वाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं।” चूँकि गाँधी जी ने क़ानून की अवहेलना की थी अत: उस न्यायपीठ के लिए गाँधी जी को 6 वर्षों की जेल की सज़ा सुनाया जाना आवश्यक था। लेकिन जज ब्रूमफ़ील्ड ने कहा कि “यदि भारत में घट रही घटनाओं की वजह से सरकार के लिए सज़ा के इन वर्षों में कमी और आपको मुक्त करना संभव हुआ तो इससे मुझसे ज़्यादा कोई प्रसन्न नहीं होगा।”

क़रीब 100 साल बाद प्रशान्त भूषण केस 

1922 के गाँधी ट्रायल के बाद वकील प्रशान्त भूषण के केस को बारीकी से समझने का मौक़ा देश की जनता को मिला। उनके दो ट्वीट को लेकर प्रशान्त भूषण को सुप्रीम कोर्ट ने दोषी ठहराया। सज़ा पर फ़ैसले के दिन कोर्ट ने प्रशान्त भूषण को 2-3 दिन का वक़्त देते हुए कहा कि आपने सुप्रीम कोर्ट और सीजेआई को बदनाम करने की नियत से जो टिप्पणी की है उस पर आप माफ़ी माँग लें। लेकिन प्रशान्त भूषण ने अपने जवाब में कहा है कि,

“मैं दया की भीख नहीं माँगता हूँ, और न ही मैं आपसे उदारता की अपील करता हूँ। मैं यहाँ किसी भी सज़ा को शिरोधार्य करने के लिए आया हूँ जो मुझे उस बात के लिए दी जाएगी, जिसे कोर्ट ने अपराध माना है, जबकि वह मेरी नज़र में ग़लती नहीं, बल्कि नागरिकों के प्रति मेरा सर्वोच्च कर्तव्य है। पीड़ा है कि मुझे अदालत की अवमानना ​​का दोषी ठहराया गया है, जिसकी महिमा मैंने एक दरबारी या जयजयकार के रूप में नहीं बल्कि 30 वर्षों से एक संरक्षक के रूप में बनाए रखने की कोशिश की है।”

सुप्रीम कोर्ट में प्रशांत भूषण ने कहा,

"मैं सदमे में हूँ और इस बात से निराश हूँ कि अदालत इस मामले में मेरे इरादों का कोई सबूत दिए बिना इस निष्कर्ष पर पहुँची है। कोर्ट ने मुझे शिकायत की कॉपी नहीं दी। मुझे यह विश्वास करना मुश्किल है कि कोर्ट ने पाया कि मेरे ट्वीट ने संस्था की नींव को अस्थिर करने का प्रयास किया।"

प्रशांत भूषण ने कहा,

"लोकतंत्र में खुली आलोचना ज़रूरी है। हम ऐसे समय में रह रहे हैं जब संवैधानिक सिद्धांतों को सहेजना व्यक्तिगत निश्चिंतता से अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिए। बोलने में असफल होना कर्तव्य का अपमान होगा। यह मेरे लिए बहुत ही बुरा होगा कि मैं अपनी प्रमाणिक टिप्पणी के लिए माफ़ी माँगता रहूँ।"

न्यायपालिका और संकीर्ण हुई

1922 के ट्रायल करने वाला जज जो कि एक डिस्ट्रिक एंड सेशन जज था, उसने गाँधी जी को सज़ा ज़रूर ब्रिटिश क़ानून के दायरे में रहकर दी या कहें तो देनी पड़ी। लेकिन अपने अंतिम के शब्दों में जब उसने लिखा कि अगर सरकार आपकी सज़ा कम या माफ़ कर दे, तो मुझ से ज़्यादा प्रसन्न व्यक्ति कोई नहीं होगा। ये शब्द साफ़ कहते थे कि जज जानता था कि बंधे और लिखे हुए क़ानून के अंतर्गत ही मुझे जो सज़ा देनी पड़ी, लेकिन गाँधी जी को दी जा रही सज़ा अर्थहीन और तार्किक नहीं थी। वहीं अगर प्रशान्त भूषण के मामले में सुप्रीम कोर्ट के रवैये का विश्लेषण करें तो दिखता है कि अवमानना के मामले में जिस कोर्ट ने नोटिस दिया, जिस कोर्ट ने ट्रायल किया, जिस कोर्ट ने दोषी ठहराया, वही अदालत पुनर्विचार इस आधार पर देने को तैयार नहीं है कि उस व्यवस्था को अवमानना के क़ानून में शामिल नहीं किया गया। ये पूरी न्यायिक सिद्धांतों के प्राथमिक नियमों के उलट व्यवस्था है जिसके लिए देश के तमाम क़ानूनविद् और अवकाशप्राप्त जज बोल और लिख रहे हैं। 

क्या अब प्रशान्त भूषण माफ़ी माँग लेंगे

सोमवार का समय अदालत ने प्रशान्त भूषण को दिया है कि वो दोबारा अपने दिए गये बयान (ट्वीट) पर विचार करें और अदालत से माफ़ी माँग लें। शायद प्रशान्त भूषण ऐसा कर भी दें, और शायद देश की सर्वोच्च अदालत उन्हें माफ़ भी कर दे। लेकिन इतिहास ने प्रशान्त भूषण को एक मौक़ा दिया है कि जब स्वतंत्रता और बोलने की आज़ादी पर देश के प्रत्येक पटल पर सार्वजनिक बहस होगी, तब प्रशान्त भूषण को याद किया जाएगा। यहाँ किसी की हार या जीत का सवाल नहीं है, सवाल उस संवैधानिक व्यवस्था को बचाये रखने का है जिसने देश के प्रत्येक नागरिक को समान रूप से स्वस्थ और निष्पक्ष आलोचना का अधिकार दिया है। प्रशांत भूषण का अगला क़दम बहुत से सवालों का तय करने वाला होगा।

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