'भद्रलोक बंगाली', 'परफ़ेक्ट जेंटलमैन'! जो दो बार पीएम बनने से चूक गए
पूर्व राष्ट्रपति और कई सरकारों में कई विभागों के मंत्री रह चुके प्रणव मुखर्जी नहीं रहे। सोमवार की शाम उनका निधन दिल्ली में हो गया। कोरोना की शिकायत मिलने के बाद 10 अगस्त को दिल्ली स्थित सेना के आर. आर अस्पताल में उन्हें दाखिल कराया गया था।
प्रणब मुखर्जी को एक कुशल राजनेता, सक्षम प्रशासक, अच्छे वक्ता और उससे भी अच्छे इन्सान के रूप में याद किया जाएगा। एक ऐसा राजनीतिज्ञ जिसका कोई दुश्मन नहीं था, विरोधी कई थे। एक ऐसा राजनेता जिसके विरोधी तो अपने दल में भी थे, लेकिन दुश्मन विरोधी दल में भी नहीं था।
राजनीति में पहला कदम
सबसे पहले उन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नज़र पड़ी और वे कांग्रेस की उस समय के सबसे ताक़तवर नेता के नज़दीक आ गए। इंदिरा गांधी ने उन्हें 1969 में राज्यसभा का चुनाव लड़वाया और वे अपने पहले ही चुनाव में बड़ी आसानी जीत भी गए। इसके बाद वे मानो राज्यसभा के स्थायी सदस्य बन कर रह गए, प्रणब मुखर्जी 1969 के बाद 1975, 1981, 1993, 1999 में राज्यसभा के सदस्य बने।इंदिरा गांधी से नज़दीकी का पुरस्कार उन्हें इस रूप में मिला कि 1973 में वह औद्योगिक मंत्रालय में उप मंत्री बनाए गए। इसके बाद इंदिरा गांधी से उनकी ऐसी ट्यूनिंग बनी की उन्होंने कभी भी उनका साथ नहीं छोड़ा, उनके मृत्यु पर्यन्त, उनके उत्थान-पतन में उनके साथ रहे, इंदिरा जी के अच्छे-बुरे फ़ैसलों में उनका साथ दिया।
इंदिरा गांधी ने जब 1975 में तमाम लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर देश पर आपातकाल लगाया, प्रणब बाबू उनके इस फ़ैसले में भी उनके साथ थे। प्रणब बाबू पर इमर्जेंसी के दौरान कई तरह की ज़्यादतियाँ करने के आरोप लगे।
इमर्जेसी, शाह आयोग
इसके बाद 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी बुरी तरह हारी, इंदिरा गांधी अपनी सीट तक नहीं बचा पाईं, एक-एक कर कई नेता, उनके कई राजनीतिक साथी, उनके कई राजनीतिक सहयात्री उनका साथ छोड़ गए। पर प्रणब बाबू उनके साथ बने रहे।जनता पार्टी ने आपातकाल के दौरान की गई ज़्यादतियों की जाँच के लिए शाह आयोग का गठन किया, प्रणब मुखर्जी जैसे भद्र लोक बंगाली को भी इसमें दोषी पाया गया था। लेकिन बाद में यह पाया गया कि शाह आयोग ने अपने कार्य क्षेत्र से बाहर जाकर काम किया, उसकी सिफ़ारिशों को रद्द कर दिया गया, प्रणब मुखर्जी भी निर्दोष माने गए।
वित्त मंत्री प्रणब
इंदिरा गांधी ने उन्हें वफ़ादारी का ईनाम इस रूप में दिया कि वह 1982 में वित्त मंत्री बनाए गए, जिस पद पर वह 1984 तक बने रहे। उन्हें इस रूप में याद किया जाता है कि वित्त मंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी ने देश की अर्थव्यवस्था को संभाला, राजस्व बढ़ा, सरकार की आय बढ़ी और उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का बकाया पैसा चुकाया।मुसीबतों का सैलाब!
इंदिरा गांधी की 1984 में हत्या प्रणब मुखर्जी के लिए मानो मुसीबतों का सैलाब लेकर आई। उनका राजनीतिक करियर चौपट हो गया।
इंदिरा गांधी की हत्या के समय प्रणब मुखर्जी पार्टी के सबसे बड़े नेताओं में एक थे, सरकार में उनकी हैसियत नंबर दो की थी। ऐसा कहा गया और शायद स्वयं प्रणब दा को लगा कि प्रधानमंत्री की इस आकस्मिक मृत्यु के बाद उन्हें इस पद पर लाया जाना चाहिए, कम से कम कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए।
देश के सामने गुलज़ारी लाल नंदा का उदाहरण था, जिन्हें जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री की आकस्मिक मृत्यु के बाद कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया था।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इंदिरा गांधी की मृत्यु के अगले ही दिन संसदीय दल की बैठक बुलाए बग़ैर राजीव गांधी को प्रधानमंत्री चुन लिया गया। प्रणब मुखर्जी की इस क्षणिक राजनीतिक महात्वाकांक्षा ने उन्हें राजीव गांधी से दूर कर दिया, वे सरकार मे मंत्री नहीं रहे, उन्हें कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बना कर पश्चिम बंगाल भेज दिया गया।
राजनीतिक वनवास!
प्रणब मुखर्जी के लिए यह समय राजनीतिक वनवास का था। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा का दूसरा कार्यकाल चल रहा था, लोग सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल में हुई ज़्यादतियों को भूले नहीं थे। कांग्रेस पार्टी बिल्कुल हाशिए पर थी। तमाम कोशिशों के बावजूद प्रणब बाबू पार्टी में जान नहीं फूंक सके।
राज्य की राजनीति और हाशिये पर धकेले जाने से ऊब कर और शायद क्षोभ में प्रणब मुखर्जी ने 1986 में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी की स्थापना की। यह एक और राजनीतिक ग़लती साबित हुई। वे पार्टी को खड़ा नहीं कर सके, उसके जनाधार का विस्तार नहीं कर सके।
प्रणब बाबू के विरोधी कहते हैं कि वे स्वयं बड़े और मजबूत जनाधार वाले ज़मीनी नेता कभी नहीं रहे। वे राज्यसभा का चुनाव जीतते रहे, पर उस समय तक कभी लोकसभा का चुनाव नहीं जीता था। पश्चिम बंगाल राज्य विधानसभा के लिए 1987 में हुए चुनाव में उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली।
घर वापसी!
प्रणब मुखर्जी ने इसे जनता का फ़ैसला माना और 1987 में कांग्रेस में लौट आए। पी. वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तो 1991 में प्रणब बाबू को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया। वे 1995 में विदेश मंत्री बनाए गए,जिस पद पर वे 1996 तक बने रहे।प्रणब बाबू को कांग्रेस का महासचिव 1989 और पश्चिम बंगाल का प्रदेश अध्यक्ष 2000 में बनाया गया। इस बार प्रणब मुखर्जी ने राजनीतिक ग़लती नहीं की, वे सोनिया गांधी के नजद़ीक आ गए और उनके एकदम विश्वस्त नेता बन गए।
समझा जाता है कि राजनीति में सोनिया गांधी की शुरुआती पारी में वे उनके एक तरह से मुख्य सलाहकार यानी मेंटर बन गए। उन्होंने सोनिया गांधी का साथ अंत तक नहीं छोड़ा।
भाग्य ने फिर छला
आम चुनाव 2004 में प्रणब मुखर्जी पहली बार लोकसभा सदस्य बने, पश्चिम बंगाल के जंगीपुर से चुनाव लड़ा और जीता। लेकिन एक बार फिर भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया। प्रधानमंत्री का पद उनके पास आकर दूर चला गया। सोनिया गांधी न खुद प्रधानमंत्री बनीं न ही राहुल गांधी को बनाया।
उस समय एक बार फिर प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ नेताओं में एक थे, वे सबसे अधिक अनुभवी थे, कई बार केंद्रीय मंत्री रह चुके थे, योजना आयोग में उपाध्यक्ष रह चुके थे। लेकिन सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना।
वही, डॉक्टर सिंह जिन्हें प्रणब मुखर्जी ने वाणिज्य मंत्री के रूप में भारतीय रिज़र्व बैंक का गवर्नर बनाया था। पर्यवेक्षकों का कहना है कि ज़मीनी आधार नहीं होने, राजनीतिक महात्वाकांक्षा नहीं होने और एकम चुप रह कर सबकुछ मान लेने के मनमोहन सिंह के गुणों की वजह से सोनिया ने उन्हें प्रधानमंत्री बनवाया, प्रणब बाबू को भाग्य ने एक बार फिर छला।
मनमोहन सिंह की कैबिनेट में प्रणब मुखर्जी एक बार फिर सबसे महत्वपूर्ण मंत्री बन कर उभरे, वे वित्त मंत्री बने, रक्षा मंत्री बने और विदेश मंत्री भी।
कर प्रणाली को दुरुस्त किया
प्रणब मुखर्जी को कॉरपोरेट टैक्स प्रणाली में सुधार के लिए याद किया जाएगा। वह बहुत ही उलझा हुआ था, जटिल था। प्रणब बाबू ने कॉरपोरेट टैक्स प्रणाली को दुरुस्त किया, उसे आसान बनाया। इससे टैक्स कमप्लायंस बढ़ा, यानी ज्यादा लोगों ने कर चुकाया, टैक्स की चोरी कम हुई और राजस्व बढ़ा। यह काम उन्होंने वाणिज्य मंत्री और वित्त मंत्र रहते हुए किया।
वित्त मंत्री के रूप में प्रणब बाबू पर यह आरोप लगा कि उनके कार्यकाल में एक ख़ास व्यवसायिक घराना, एक कॉरपोरेट हाउस को फ़ायदा हुआ, वह बहुत तेज़ी से फला-फूला। लेकिन वही कॉरोपरेट घराना आज की सत्ता के भी सबसे नज़दीक है।
वित्त मंत्री के रूप में प्रणब बाबू ने 1983, 1984, 2009, 2010, 2011 में बजट पेश किया। यह कहा जाता है कि उनके वित्त मंत्री रहते हुए सरकार का राजस्व हर बार बढ़ा क्योंकि वह आसान कर रखते थे, टैक्स कमप्लायंस बढ़ जाता था।
जीएसटी
वित्त मंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी ने इस देश को सबसे अहम चीज दी, वह है गुड्स एंड सर्विस टैक्स यानी जीएसटी। इसके पहले प्रणब बाबू के गृह राज्य पश्चिम बंगाल में वैल्यू एडेड टैक्स प्रणाली का प्रयोग किया जा चुका था, जो कामयाब हुआ था। वहां कांग्रेस के धुर विरोधी भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार थी और असीम दासगुप्त वित्त मंत्री, जिन्होंने देश में सबसे पहले इस कर प्रणाली को अपनाया।प्रणब मुखर्जी ने जब जीएसटी पर सलाह देने और कार्य योजना तैयार करने के लिए देश के सभी राज्यों के वित्त मंत्रियों की कमेटी बनाई, अपने राजनीतिक विरोधी सीपीएम के नेता असीम दासगुप्त को उसका अध्यक्ष बनाया। यह शायद नेहरूवादी राजनीति का एक प्रयोग था, जो अब कोई सोच भी नहीं सकता।
राष्ट्रपति प्रणब
लेकिन जीएसटी की योजना पूरी होने या लागू करने के पहले ही 2012 में प्रणब बाबू को राष्ट्रपति बना दिया गया।राष्ट्रपति के रूप में कोई अप्रत्याशित काम नही किया। बाद में प्रणब मुखर्जी विवाद में तब आए जब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में भाग लेने के न्योते को स्वीकार कर लिया।
उनका विरोध हुआ, आलोचना हुई, कांग्रेस पार्टी में बहस हुई, यहां तक कि राष्ट्रपति कि बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने उन्हें इसमें शिरकत न करने की सलाह दी। वे नही माने।
प्रणब मुखर्जी आरएसएस के मुख्यालय गए, भाषण दिया। उन्होंने सहिष्णुता पर ज़ोर दिया, हिंसा से दूर रहने की सलाह दी और कहा कि राष्ट्र कई भाषाओं, संस्कृतियों, विचारों और धर्मों से बनता है, वह सबका संगम होता है। धर्म, राजनीतिक कट्टर विचार और असहिष्णुता नहीं टिक पाएगी, विलीन हो जाएगी।
प्रणब मुखर्जी भद्र लोक बंगाली थे, परफेक्ट जेंटलमैन! हर पार्टी में उनके समर्थक, उनका सम्मान करने वाले, उनकी बात सुनने वाले।
उनमें गजब का हास्यबोध था, बजट पर विपक्ष के हमले को मजाक मजाक में उड़ाना उनके लिए आसान था। वह तुनकमिजाजी भी थे, संसद में उन्हें गुस्से से लाल होते हुए भी देखा गया है। कांग्रेस पार्टी कवर करने वाले पत्रकार याद करते हैं कि वे किस तरह मजाक करते थे, अपनी ही पार्टी के किसी नेता की जानकारी लीक कर देते थे, हंसी मजाक करते थे और गुस्सा भी हो जाते थे।
प्रणब बाबू के साथ ही भारतीय राजनीति में एक युग का अंत हो गया।