+
भारत में जनसंख्या वृद्धि दर घटने से फ़ायदा नहीं, होगा बड़ा नुक़सान

भारत में जनसंख्या वृद्धि दर घटने से फ़ायदा नहीं, होगा बड़ा नुक़सान

अगर मौजूदा कामकाजी आबादी का सही उपयोग न हुआ तो देश जनसांख्यिकीय लाभांश गँवा देगा। क्योंकि देश के शहरी इलाक़े और कई राज्य चीन की तरह ही बूढ़े होने की ओर बढ़ रहे हैं।

जनसंख्या वृद्धि दर घटना देश के विकास में बाधक है। यह भारतीयों को चौंकाने वाला वक्तव्य है, क्योंकि धारणा यह है कि जनसंख्या वृद्धि भारत के लिए समस्या बन चुकी है। जहाँ जाएँ वहाँ नरमुंड ही नज़र आते हैं। कहीं 10 लोगों को साक्षात्कार के लिए बुलाया जाए तो हज़ारों लोग जमा हो जाते हैं। पुलिस व सेना की सीधी भर्तियों में भीड़ पर काबू पाने के लिए लाठी चार्ज, आँसू गैस के गोलों तक का इस्तेमाल करना पड़ता है। वहीं भारत की जनसंख्या के आँकड़े कह रहे हैं कि शहरों में बच्चे पैदा करने की घटती मौजूदा दर आने वाले वर्षों में विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बनने वाली है।

दरअसल, किसी देश का विकास इस बात पर निर्भर है कि उसकी आबादी की गुणवत्ता कैसी है। सामान्य शब्दों में कहें तो इसका मतलब यह है कि बच्चों, कामकाजी लोगों व बुजुर्गों की संख्या देश में कितनी है। जिस देश में कामकाजी लोगों की संख्या ज़्यादा होती है उसका विकास बहुत तेज़ रफ्तार से होता है। वहीं जिन देशों में बुजुर्गों यानी आश्रित और निःशक्त लोगों की संख्या ज़्यादा हो जाती है उसके विकास की रफ्तार धीमी पड़ जाती है। इस हिसाब से भारत फ़िलहाल जनसांख्यिकीय लाभ के दौर से गुज़र रहा है, जहाँ कामकाजी लोगों की संख्या सबसे ज़्यादा है और बच्चों व बुजुर्गों यानी आश्रितों की संख्या कम है।

कई राज्यों में बढ़ रहे बुजुर्ग

लेकिन थोड़ा ठहरिए! जनसंख्या के जो आँकड़े आ रहे हैं, उसके मुताबिक़ भारत के हर राज्य में अब ऐसी स्थिति नहीं रह गई है। जनसांख्यिकीय बदलाव के दो आयाम हैं, प्रजनन और मृत्यु। अगर किसी देश में प्रति महिला कुल प्रजनन दर (टीएफ़आर) 2.1 प्रतिशत होती है तो वहाँ जनसंख्या लंबे समय तक स्थिर रहती है। वहीं अगर प्रजनन दर इससे कम है तो जनसंख्या घटने लगती है और प्रजनन दर इससे ज़्यादा होने पर जनसंख्या बढ़ती है। 2017 में देश के 22 प्रमुख राज्यों में यह दर 2.2 प्रति महिला थी।

भारत में पिछले 4 दशक से ज़्यादा समय से जन्म दर में कमी आ रही है। 1971 में जन्म दर प्रति 1000 जनसंख्या पर 36.9 थी, 2017 में यह घटकर 20.2 रह गई है। वहीं इस दौरान मृत्यु दर 14.7 से घटकर 6.3 रह गई है। यानी पैदा होने वाले कम हो रहे हैं और बूढ़े लोग बढ़ रहे हैं।

शहर और गाँवों में स्थिति अलग

अगर हम शहरी क्षेत्रों की स्थिति देखें तो महिलाएँ ज़्यादा उम्र में बच्चे पैदा कर रही हैं। वहीं ग्रामीण इलाक़ों में 35 साल से ज़्यादा उम्र की महिलाओं की प्रजनन दर में कमी आई है। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि शहरों में महिलाएँ ज़्यादा पढ़ी-लिखी, कामकाजी होती हैं और वे बच्चे पैदा करने के फ़ैसले टालने में सक्षम होती हैं।

अगर शहरी क्षेत्र में प्रजनन दर के आँकड़े देखें तो 2017 में यह घटकर 1.7 प्रतिशत रह गई है। बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को छोड़ दें तो सभी राज्यों में यह दर 2.1 प्रतिशत से कम या इसके बराबर है। यहाँ तक कि देश के 10 राज्यों में ग्रामीण इलाक़ों में भी प्रजनन दर 2 प्रतिशत से नीचे चल रही है।

भारत बर्बाद कर रहा है युवाओं का श्रम

भारत में एक तरफ़ जहाँ आबादी में बढ़ोतरी सुस्त पड़ रही है, वहीं कामकाजी लोगों की संख्या बढ़ रही है। यह फ़ायदे वाली स्थिति है। यह जनसांख्यिकीय लाभ क़रीब 40 साल तक उठाया जा सकता है। लेकिन इसका लाभ तभी हो सकता है जब इस आबादी का सही इस्तेमाल हो। वर्ना यह बोझ में तब्दील हो सकती है। भारत में यह लाभ अलग-अलग राज्यों में अलग है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के मुताबिक़ देश के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्से में अधिक उम्र के लोग बढ़ रहे हैं इसलिए जनसांख्यिकी बदलावों का लाभ लेने के लिए यहाँ 5 साल ही बचे हैं। वहीं कुछ राज्यों के पास 10-15 साल का वक़्त है। जिन राज्यों में प्रजनन दर ज़्यादा है, वहाँ यह लाभ उठाने के लिए तुलनात्मक रूप से ज़्यादा वक़्त है। फ़िलहाल भारत की स्थिति यह है कि यहाँ बड़े पैमाने पर नौकरियाँ जा रही हैं और बेरोज़गारी दर पिछले 45 साल के उच्चतम स्तर पर है, जिसके चलते देश इस जनसांख्यिकीय लाभ को गँवा रहा है।

इस तरह से भारत के जिन राज्यों में प्रजनन दर कम हो गई है, वहाँ बुजुर्गों की संख्या 5 साल में ज़्यादा हो जाएगी। जिन राज्यों में प्रजनन दर ज़्यादा है, वे अभी कुछ ज़्यादा साल तक युवा रहेंगे।

चीन की जनसंख्या नीति उसके लिए संकट

आइए, अब चीन का उदाहरण लेते हैं। भारत में जब भी जनसंख्या कम करने की बात आती है तो चीन का उदाहरण दिया जाता है। वहाँ अब पति-पत्नी और एक बच्चे की नीति ने तमाम समस्याएँ पैदा कर दी हैं। पति-पत्नी और एक बच्चे की नीति की सबसे ज़्यादा मार महिलाओं पर पड़ी। महिलाओं को बंध्याकरण या अबॉर्शन के लिए बाध्य होना पड़ा। नवजात बच्चियाँ मार दी गईं। बेटे के लिए बच्ची पैदा होते ही उसे लावारिस छोड़े जाने की घटनाएँ बढ़ीं। यहाँ तक कि पड़ोस के देशों की महिलाएँ मानव व्यापार की शिकार बनीं, क्योंकि शादी करने के लिए लड़कियाँ मिलनी मुश्किल हो गईं।

चीन क्यों बदल रहा है नीति

35 साल तक चली इस नीति में चीन को 2015 में ढील देनी पड़ी। और अब पति-पत्नी और दो बच्चे की नीति में भी समस्या आ रही है। ‘एक ही बच्चा काफ़ी’ और ‘देर से विवाह और देर से बच्चे का जन्म बेहतर’ की नीति के बाद अब सरकारी मीडिया यह अनुरोध कर रहा है कि ज़्यादा उम्र में बच्चे पैदा होने से बच्चों को जन्मजात बीमारियाँ होती हैं। इसके अलावा महिलाओं को दो बच्चे पैदा करने पर नौकरियों में भी समस्याएँ आ रही हैं। तमाम लोग इसलिए दो बच्चे नहीं पैदा करना चाहते हैं क्योंकि वे दो का बोझ नहीं उठा सकते। बच्चे बढ़ाने की तमाम कवायदों के बीच अब चीन बूढ़ा हो रहा है और उसका जनसांख्यिकीय लाभांश ख़त्म हो चुका है। इस तरह से देखें तो जनसंख्या वृद्धि दर में कमी आना हमेशा फ़ायदे का सौदा नहीं होता। चीन ने पति-पत्नी और एक बच्चे की नीति 35 साल तक अपनाई। तैयार होते बूढ़ों की फ़ौज देखकर घबराए चीन ने नीतिगत बदलाव किया और अब वहाँ के लोग बच्चे पैदा करने को तैयार ही नहीं हैं। 

चीन ने भारत की तरह युवा जनसंख्या का दुरुपयोग नहीं किया है, बल्कि 3 दशक में वह सस्ते श्रम का इस्तेमाल करके अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन चुका है।

भारत में कई दशक से धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि दर और मृत्यु दर में कमी आ रही है। यह देश के लिए ऐसा वक़्त है, जब वह जनसांख्यिकीय लाभांश से तेज़ वृद्धि दर दर्ज कर सकता है। भारत के लिए जनसंख्या समस्या नहीं बल्कि अभी वरदान है। अगर इसका लाभ नहीं उठाया गया और प्रजनन दर प्रति महिला 2.1 से नीचे चली जाती है तो भारत भी उसी संकट की ओर बढ़ सकता है, जिससे इस समय चीन जूझ रहा है। भारत के शहरी इलाक़े इस संकट के साफ़ संकेत भी दे रहे हैं।

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें