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मनोज झा के कविता वंदन से इतनी मिर्च क्यों लग गई? 

मनोज झा के कविता वंदन से इतनी मिर्च क्यों लग गई? 

आरजेडी सांसद मनोज झा ने संसद में एक कविता क्या पढ़ दी, बिहार में मामला जातिवादी हो गया। इससे यह साबित हुआ कि कविता का असर होता है। मनोज झा ने जो कविता पढ़ी, वो उनकी अपनी नहीं थी। उन्होंने ओमप्रकाश बाल्मीकि की कविता पढ़ी थी। कविताएं हर देश में हर युग में महत्वपूर्ण रही हैं। कविताएं क्रांति कर सकती हैं। राकेश अचल के इस उद्गार को पढ़िए और फिर उसके बाद कोई अच्छी सी कविता तलाश कर पढ़िए। मुमकिन हो तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, फैज अहमद फैज और अदम गोंडवी को पढ़िए। 

 मुझे अपने पत्रकार होने पर जितना गर्व आज नहीं है जितना की कवि होने पर है। हालाँकि मै रजिस्टर्ड कवि नहीं हूँ। बिहार के राज्यसभा सांसद मनोज झा ने राज्यसभा में नारी शक्ति वंदन विधेयक पर बहस कि दौरान ओमप्रकाश बाल्मीक की कविता पढ़कर जो कमाया है उसे देखकर मुझे एक बार फिर महसूस हो रहा है कि कविता का ' अम्ल ' अभी कायम है । फिर कविता चाहे ओमप्रकाश बाल्मीक लिखें या असंग घोषया राकेश अचल।

 कविता आज भी अपना काम करती है और वो काम करती है जो किसी वंदन विधेयक से नहीं हो सकता। दरअसल मेरी अक्ल उन बहुत से लोगों की अक्ल जैसी है जो दिमाग में रहने के बजाय घुटनों में रहती है । इसीलिए जब डॉ मनोज झा ने राज्यसभा में 'ठाकुर ' कविता पढ़ी तब कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई । कविता पार प्रतिक्रिया आने में कई दिन लगे । प्रतिक्रिया तब आयी जब अक्ल घुटनों से निकलकर दिमाग तक पहुंची। आज हालत ये है कि कविता बाल्मीक साहब की है और जान सांसत में है मनोज झा की। झा साहब के पीछे पूरी आरजेडी खड़ी है। मेरा मानना है कि अब मामला सिर्फ आरजेडी और भाजपा का नहीं है । झा के पीछे एक कवि के नाते मै भी खड़ा हूँ और मुझे उम्मीद है कि झा के पीछे देश का हर कवि खड़ा होगा चाहे वो किसी भी भाषा का हो।

 मै डॉ मनोज झा को आश्वस्त करना चाहता हूँ कि वे अकेले नहीं हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए किसी फ़ौज-फांटे की जरूरत नहीं पड़ेगी। दुनिया जानती है कविता की ताकत को। न जानती हो तो आज जान ले । अमृतकाल में जान ले कि यदि आपके पास कविता है तो आप अकेले नहीं है। कविता आदमी को अकेला रहने भी नहीं देती। कविता में अम्ल और छार दोनों होता है । कविता तलवार से भी ज्यादा धारदार और मारक होती है । कविता लाल मिर्च से भी ज्यादा तीखी होती है । जो कविता को पचा लेता है उसका हाजमा ठीक हो जाता है और जो नहीं पचा पाता वो सी-सी करता फिरता है बाहुबली आनंद मोहन और चेतन आनंद की तरह। 

मेरे गुरुतुल्य कवि प्रो प्रकाश दीक्षित कहते थे कि -कविता लिखना इतना आसान नहीं जितना की सुबह-सुबह सूरज का उगना। कविता कोशिश होती है मोमबत्ती से पत्थर पर लकीर उकेरने की । भाजपा के पास यदि रमेश बिधूड़ी हैं तो ये संयोग है कि आरजेडी के पास डॉ मनोज झा जैसे संसद हैं। झा बिना गाली-गलौच के भी अपनी बात कहकर संसद को ही नहीं बल्कि देश के उस वर्ग को गरमा सकते हैं जो आज भी शोषक है। आज भी जो मनुष्य को मनुष्य नहीं मानता । आज भी उसकी निगाह में ऊंच नीच हिलोरें मारती है । खुदा का शुक्र है कि आनंद मोहन संसद में नहीं हैं अन्यथा वे तो डॉ मनोज झा की जबान खींच ही लेते । अभी तो वे जबान खींचने की धमकी भर दे रहे हैं।

धमकी देने वाले भाजपा में हमेशा से पुरस्कृत किये जाते हैं। डॉ मनोज झा को जिस कविता को सुनाने के बाद जान से मारने कोई धमकी दी जा रही है वो उनकी लिखी नहीं है । कविता उत्तरप्रदेश के बरला गांव मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) के उन ओम प्रकाश बाल्मीकि की है जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। ओमप्रकाश बाल्मीकि नाम के ही नहीं बल्कि जन्म से भी बाल्मीकि थे । आज अगर वे होते तो पूरे 73 साल के होते और बहुत खुश होते अपनी कविता की मार को देखकर। ये तो अच्छा है कि भाजपा के नरसिंहों को ज्यादा पढ़ना -लिखना नहीं आता अन्यथा वे ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा ' जूठन' पढ़कर या तो ख़ुदकुशी कर लेते या फिर सुधर जाते, धमकियां देना भूल जाते । बाल्मीक ने लिखा था कि -' शब्द झूठ नहीं बोलते '। 

देश में अगले साल आम चुनाव होने वाले है। अगले महीने देश के पांच राज्यों की विधानसभाओं के भी चुनाव होने है। राजनीतिक दलों को खासकर भाजपा को चाहिए कि वो बाहुबलियों, धनपशुओं या अनपढ़ों को अपना प्रत्याशी बनाने कि बजाय कवियों को अपना प्रत्याशी बनाएं । जन प्रतिनिधि अगर कवि होगा तो मनोज झा की तरह अपने प्रतिद्वंदी को कविताएं सुनकर लाजबाब कर देगा। मै चुटकले सुनाने वाले कवियों की बात नहीं कर रहा । मै रामकथाएं सुनाने वाले कवियों की भी बात नहीं कर रहा, मै उन कवियों की बात कर रहा हूँ जो चेतना के कवि है। भले ही वे दलित हों या सवर्ण । ठाकुर हों या बाल्मीकि। वैसे भी यदि कोई मूलत: कवि है तो उसके भीतर बैठा ठाकुर-ब्राम्हण अपने आप या तो मर जाता है या खिसक लेता है।

देश का दुर्भाग्य है के राजनीति में कवियों कि लिए जगह सीमित है। राजनीति में गिने-चुने कवि है। कविता से रार रखने वाले, कविता से भी खार खाने वालों की संख्या राजनीति में ज्यादा है । राजनीति भी कविता को कहाँ सींचती है । कविता आज भी उनकी जय बोल रही है जो देश के खेतों में काम करते हैं, सीमाओं पर पहरा देते हैं। मुझे हैरानी होती है के उस बिहार के भाजपा नेता और पूरी भाजपा कविता के प्रहार से भयभीत है जिस बिहार ने देश को एक से बढ़कर एक कवि दिए हैं। 'कलम आज उनकी जय बोल ' जैसी अमर कविता लिखने वाले रामधारी सिंह दिनकर बिहार की धरती के ही सपूत थे। क्या आनंद मोहन और उनकी जैसे लोग दिनकर की जबान भी खींच लेते ? 

दिनकर ने तो सीना ठोंककर लिखा था कि - 'अंधा चकाचौंध का मारा, क्या जाने इतिहास बेचारा, साखी हैं उनकी महिमा के, सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल।’ 

बिहार के ठाकुरों को ही नहीं पूरे देश के शोषक वर्ग को पहले इतिहास पढ़ना चाहिए फिर धमकियां देने कि बारे में सोचना चाहिये । उन्होंने जान लेना चाहिए की कविता किसी जाति को इंगित नहीं करते । ओमप्रकाश बाल्मीकि की कविता यदि ठाकुरों को इंगित कर लिखी गयी है तो बिहार में तो कर्पूरी ठाकुर भी होते है। क्या ये कविता कर्पूरी की जाति को निशाने पर रखकर लिखी गयी होगी ? मुझे भाजपा पर, उसके सांसदों पर गुस्सा बिलकुल नहीं आता, दया आती है क्योंकि उनके पास न तो भाजपा के पितृ -पुरुष अटल बिहारी बाजपेयी की तरह भाषा का लालित्य है और न साहित्य का ज्ञान। वे बेचारे कविता की ताकत को क्या समझेंगे। उन्हें क्षमा किया जाये।

 मै मनोज झा को नहीं जानता, उनसे कभी मिला भी नही। एक-दो टीवी डिबेट में जरूर उनके साथ बैठना हुआ है । इस बिना पर मै कहता हूँ की मनोज झा जैसे सांसद हमारी राजनीति की जरूरत है। उनका समर्थन किया जाना चाहिये। मनोज झा पर किसी भी तरह का हमला एक आरजेडी सांसद पर नहीं बल्कि इस देश के साहित्य पर भी हमला है । सांसद पर भी हमला है और लोकतान्त्रिक समाज पर भी हमला है। इसलिए आइये मनोज झा का साथ दीजिये। कविता का साथ दीजिये।

(राकेश अचल के फेसबुक पेज से)

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